tedhi pagdandiya - 6 in Hindi Fiction Stories by Sneh Goswami books and stories PDF | टेढी पगडंडियाँ - 6

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टेढी पगडंडियाँ - 6

टेढी पगडंडियाँ

6


ऐसे सैकङों किस्से जुङे हैं भाई की यादों से । इतने प्यारे भाई के बारे में सोच कर मन उसके लिए प्यार से भर उठता है । अब बेचारा अकेला ही अपने आप से उलझ रहा होगा । पता नहीं किस हाल में होगा । शायद अब तक शादी भी हो गयी होगी । पूरे छ साल हो गये है उसे यहाँ इस गाँव में आये हुए ।
और सीरीं , वह इस समय अपनी ससुराल में होगी । जब उसकी शादी हुई थी , तब कितना मजा आया था । पूरे सात दिन उनके घर में ढोलक बजी थी । बन्नी गायी गयी थी । सब लङकियों के साथ वह भी देर रात तक नाचती रही थी । पाँच दिन तेल चढा था सीरीं के । सौ सगुण मनाये थे माँ ने । सात सुहागनों ने हल्दी में चंदन का चूरा मिलाकर सीरीं के बदन पर उबटन लगाया था तो सीरीं लाज से दोहरी हो हो गयी थी । दो दिन हलवाई बैठा था घर में । लड्डू , शक्करपारे , नमकपारे , बूँदी , सिवइयाँ , निमकी , बालूशाही और हाँ बारात के लिए बरफी और गुलाबजामुन भी उतारे गये थे । पूरा घर गोतियों , रिश्तेदारों और पङोसियों से भर गया था । घर में औरतें और घर के बाहर नीम और पाकर के गाछ तले खाटें डाल मरद बैठे थे । मिठाई के थाल के थाल खाली हो रहे थे । शाम होते ही मरदों ने शराब के गिलास थाम लिये थे । हर तरफ ठहाके लग रहे थे ।
माँ एक तरफ खुश दिखती सबसे बधाई ले रही थी , दूसरी ओर कमरे के कोने में जाकर आँचल के छोर से आँखें पौंछ लेती । उसे मां को रोते देख हैरानी हुई थी और उसने पूछ लिया था – माँ क्या हुआ रोती क्यों है ?
कुछ नहीं , मैं कहाँ रो रही हूँ । ये तो आँख में थोङी धूल चली गयी इसलिए - माँ की सजल आँखों में हँसी झलक पङी । चेहरे पर एक मीठी मुस्कान आ गयी ।
नहीं नहीं मैंने देखा था , उस कोने में जहाँ सीरीं का पलंग रखा है , वहाँ उस कोने में । वहाँ खङी होकर तुम अपने आँसू पौंछ रही थी ।
माँ हँस पङी और उसने मुझे अपने सीने से लगा लिया – अभी तू बहुत छोटी है , इन सब बातों को समझने के लिए । जब तेरी शादी होगी तब तुझे समझ आएगी । चल अब । काम कर । जा , मेहमानों को मिठाई और चाय दे आ ।
शाम होते ही बारात आ गयी थी । एक बस में पचासएक बाराती होंगे । द्वार चार के बाद मिलनी की रसम हुई । सब बारातियों को हार पहनाये गये । एक एक कंबल और पाँच पाँच रुपये मिलाई के दिये गये । फिर भाँवर हुई । उसके बाद खाना । सुबह सीरीं को साथ लेकर बारात लौट गयी थी । कितना रोई थी सीरीं । एक एक को पकङ कर छोङने का नाम ही नहीं लेती थी । तब किरण को समझ आया था कि सीरीं हमेशा के लिए इस घर से विदा हो रही है । अब वह जीजा की मर्जी से ही इस घर में आ सकेगी वरना नहीं । माँ इसी लिए बार बार अपने आँसू छिपा रही थी । शाम तक एक बुआ और एक मौसी को छोङ कर सारे मेहमान विदा हो गये थे । घर एकदम चुप हो गया था ।
अगले दिन सीरीं वापिस आई थी जीजा और सास , ससुर , देवर के साथ । पगफेरा की रसम के लिए । कुलदेवता की पूजा के लिए । इस सब में और भोजन में दो घंटे कैसे बीत गये थे , पता ही नहीं चला । वह तो उसकी सास उठ खङी हुई – अच्छा जी , विदा कीजिए अब तो जाकर अहसास हुआ । किरण को भी जीजा के हाथ से नेग के सौ रुपये दिलाए थे उसकी सास ने । और तरह तरह के भेंट और उपहारों से लदे फंदे वे लौट गये थे । किरण अपनी बहन से दो बात भी न कर पाई थी ।
और सीरीं , सीरीं तो पराई हो चुकी थी । वही सीरी जो किरण के बिना एक मिनट नहीं रहती थी । जिसका सोना जागना , खाना , खेलना सब किरण के साथ होता था । सारा सारा दिन वे दोनों हँसती खिलखिलाती रहती थी । माँ अक्सर उन्हें डाँट देती – क्या दाँत निकाले जा रही हो । सासरे जाओगी तो सास सारे दाँत निकाल कर हाथ में पकङा देगी ।
वे एक कान से सुनती और दूसरे कान से निकाल देती । थोङी देर चुप्पी के बाद ही दोनों का खिलखिलाना फिर से चालू हो जाता । घर के काम में भी दोनों साथ रहती । एक कपङे धोती तो दूसरी निचोङ कर फैला रही होती । एक रोटी बेलती तो दूसरी तवे पर सेक रही होती । एक झाङू लगाती तो दूसरी पीछे पीछे सामान संभाल रही होती , कूङा उठा रही होती । एक जान थी दोनों । कहने को जिस्म अलग था पर रूह एक थी , वही सीरीं अब अपने पति का हाथ थामकर ससुराल चली गयी थी एक शब्द भी बोले बतियाये बिना । किरण देर तक रोती रही थी । घर उसे काटने को दौङता । फिर धीरे धीरे सब सामान्य होता चला गया । सीरीं के साथ रिश्ता तीज त्योहार का रह गया था । हर त्योहार पर माँ बापू सीरीं को घर बुलवा लेते । बीरा लेने जाता तो वह आ जाती पर एक या दो दिन से ज्यादा रह न पाती । दूसरे दिन जीजा लिवाने आ जाते या संदेश भिजवा देते कि हम में से कोई आ नहीं पाएगा इसलिए सीरीं को छुङवा दीजीए और बापू या बीरा सीरी को छोङ आते । सीरीं के साथ जाते घर भर के लोगों के कपङे , फल , मिठाई । फिर धीरे धीरे यह सिलसिला थम गया । अब मिलने पर माँ कुछ नकद रुपए त्योहार के नाम से दे देती । फिर साल बीतते ही सीरीं के बेटा हो गया और सीरीं अपनी गृहस्थी में पूरी तरह से रम गयी ।
किरण ने अपनी दसवीं मैरिट में आकर पूरी की तो सरकार की तरफ से वजीफा लग गया । इस पर उसका आगे पढने का रास्ता आसान हो गया । दसवीं तक का स्कूल तो गाँव में था पर ग्यारहवीं और बारहवीं के लिए शहर के बङे स्कूल में दाखिला लेना था । किरण को इसके लिए माँ बापू की चिरौरी करनी पङी । भानी का दिल किसी अनहोनी के डर से मान ही नहीं रहा था । वह तो बीरे ने उसका मन देख कर माँ को मना लिया । वही उसका दाखिला शहर के जाने माने स्कूल में करवा कर आया । किरण के रिकार्ड को देखते हुए दाखिले में कोई परेशानी होनी ही नहीं थी पर फिर भी जब तक फीस जमा नहीं हुई , किरण का दिल धङकता रहा । आखिर जब रसीद हाथ आई तो दोनों बहन भाई ने चैन की साँस ली ।
किरण टोले से शहर पढने जाने वाली पहली लङकी बन गयी थी । उसके गाँव से और कोई लङकी शहर नहीं जाती थी , अकेले जाना उसे बहुत मुश्किल लग रहा था । ऐसे में बीरा एक बार फिर से उसके लिए संकटमोचक बन गया ।

बाकी कहानी अगली कङी में ...