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कभी उसे लगता है वह कुछ ‘आसमान्य’ सी है !मानव-मन कितनी और कैसी-कैसी बातों में उलझा रहता है ! सच बात तो यह है, हम जीवन का अधिकांश समय व्यर्थ की बातों में ही गँवा देते हैं | वह सोच रही थी और रैम उसके मुख चुगली खाते आते-जाते भावों को पढ़ने की चेष्टा कर रहा था |शायद रैम ने समिधा की बेचैनी ताड़ ली थी, समिधा को अपनी ओर देखते हुए पाकर उसने अपनी दृष्टि दूसरी ओर घुमा ली |
“बाहर बैठें ?”समिधा ने रैम से कहा |
“ठीक है मैडम, आप चलिए, मैं अभी आता हूँ ---“उसकी ओर चेहरा घूमाकर वह जल्दी से बोल उठा और तेज़ी से रसोईघर की ओर बढ़ गया |वह एक ही मिनट में आ गया, उसके हाथ में एक फोल्डिंग चेयर थी |
बाहर का दृश्य हरीतिमा से भरा मनभावन था | उस छोटे से बँगले के एक ओर छोटा, प्यारा सा लॉन बना हुआ था, जिसके चारों ओर रंग-बिरंगे पुष्पों की क्यारियाँ थीं, ये रंग -बिरंगे पुष्प पवन का कोमल स्पर्श पाकर झूम रहे थे |उसे लगा ये सभी रंगीन पुष्प अपने रंगीन मिज़ाज के पुष्प-मित्रों से बतिया रहे हैं |, कैसा झूम-झूमकर नाच रहे थे वो –
प्र्कृति रंग-भेद, जाति –भेद कहाँ जानती है ?कहाँ भयभीत होती है ?कितनी निश्छल व दृढ़-निश्चयी है, सब काम समय पर करते हुए वह मनुष्य के ऊपर अपना सुख व संवेदन लुटाती रहती है |पर वह उससे भी कहाँ संतुष्ट हो पाता है !कैसा है मनुष्य !कोई न कोई कमी सब में तलाश कर लेता है |
सच तो यह है, हर बात में कमी निकालने वाला मनुष्य कितना कमज़ोर है !अपने आपको ‘सुप्रीम पॉवर’समझने वाला मनुष्य एक चूहे से, एक छिपकली से, एक कॉकरोच से भी भयभीत हो जाता है, फिर भी अपने बड्डे मारता रहता है ! अपने ‘अहं’को संतुष्ट करने के लिए खून की नदियाँ बहा देता है ……. ये खिलते, मुस्कुराते, गुनगुनाते, नाचते फूल कितना प्रेम बाँट रहे हैं !समिधा उन्हें देखकर अपने भीतर के भय से मुक्ति पाने लगी, उसका मन फूलों के साथ नाचने लगा |बगीचे की क्यारियों को काँटों की बाड़ ने बहुत तरतीब से घेर रखा था| ये काँटे फूलों की रक्षा कर रहे थे |
मनुष्य तथा प्रकृति में कितना अन्तर है ?प्रकृति एक-दूसरे की, मनुष्य की रक्षा करती है और विकसित बुद्धि वाला मनुष्य अपनी ही जाति को दंश चुभाने के लिए आमादा रहता है, वह अपने स्वार्थों के लिए किसी को भी पीड़ित करने से नहीं चूकता ! हम इस तथ्य से परिचित हैं कि प्रकृति ही ईश्वर है, हम उसके ही पाँच तत्वों से निर्मित हैं फिर हमें भयभीत होने की क्या आवश्यकता है ?यह सब सोचते हुए समिधा का हाथ अपनी गर्दन पर जा रहा था जहाँ अब भी उसे कुछ चुभता हुआ महसूस हो रहा था |
“यह सब तुमने किया है ?”समिधा ने अपना ध्यान सुंदर, खिलखिलाते, मुस्कुराते, मुस्कुराते नन्हे से बगीचे पर दृष्टि जमाने की चेष्टा करते हुए युवक को प्रशंसनीय दृष्टि से देखा |
“हो... मैम, ”समिधा ने देखा वह प्रसन्नता व उत्साह से भर उठा था |
बहुत करीने से बगीचा सजाया गया था |लॉन कि दूसरी तरफ़ रैम ने ‘किचन गार्डन’ भी बना रखा था जिसमें जगह –जगह डंडे खड़े करके एक जाल जैसा तैयार किया गया था, उस पर तोरी, लौकी की बेलें फैला दी गईं थीं | छोटे-छोटे बैंगन और टमाटर ऐसे झाँकने लगते थे मानो टमाटरों के नन्हे-मुन्ने शिशु लुका-छिपी खेल रहे हों |
समिधा उन्हें देखकर प्रसन्न हो उठी, चारों ओर घूमती हुई वह आकर कुर्सी पर बैठकर सामने का नज़ारा देखने लगी |चारों ओर घरों की व सड़क की बत्तियाँ जल उठीं थीं | रैम ने बँगले के चारों ओर की बत्तियाँ उसके बाहर आने से पूर्व ही जला दीं थीं वह छोटा सा खिला-खिला बगीचा उसके मन में उमंग भरने लगा और शनै: शनै: उसके भय को कम करने लगा था |
“मैडम ! धरती पर आदमी के लिए प्रकृति बहुत बड़ा वरदान है जिसे हम मनुष्य खतम कर रहे हैं ---“युवक ने गंभीरता से कहा |
समिधा ने उसे गौर से देखा, उसे वह कहीं से भी आदिवासी नहीं लग रहा था | अपनी सोच पर वह स्वयं ही हँस पड़ी |
‘आदिवासियों के कोई सींग होते हैं क्या?हैं तो आदमजात ही न !’उसने मन में सोचा |
“क्या हुआ मैडम ?”रैम ने पूछा |
“नहीं, कुछ ख़ास नहीं .... यहाँ साहब लोगों के पास कब से हो ?”
“जब से यहाँ काम शुरू हुआ है, कोई तीनेक साल हो गए होंगे |” उसकी झिझक दूर होती जा रही थी |