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गुजरात की सीमा पार करने के कुछ समय बाद से सपाट इलाका शुरू हो गया जिसमें दूर-दर तक वनस्पति जैसी कोई चीज़ नज़र नहीं आ रही थी।आँखों के सामने केवल रेत ही रेत उड़ रही थी। भागती हुई गाड़ी में से सपाट बंजर ज़मीन पर ऊँची -नीची उड़ती रेत छोटे बड़े टीलों सी लगती पर जब गाड़ी उस स्थान पर हुँचती तब पता चलता कि ज़मीन बिल्कुल सपाट है, उड़ती हुई रेत टीले होने का भ्रम पैदा करती। यह भ्रम कभी-कभी बहुत कष्टदायक हो जाता है, समिधा सोच रही थी। यह भ्रम ही तो महाभारत की लीला के प्रमुख कारणों में से एक था ।उस स्थान पर कोई आदमजात है भी या नहीं?वह मि.दामले तथा शोध करने वाले लड़कों से बहुत से सवाल करती रही।
समिधा के मन में झाबुआ के आदिवासियों के बारे जानने की विशेष उत्सुकता तथा यात्रा की लंबाई दोनों ही गहराती जा रही थीं। काफ़ी देर के बाद आदम जात के दर्शन होने शुरू हुए |उनमें कुछ मजदूर जैसे लोग जिनमें किसी के साथ स्त्री भी थी, समिधा के अनुमान से वह उसकी पत्नी हो सकती थी। किसी स्त्री के कूल्हे पर लटकता हुआ बच्चा तो किसी मर्द के कंधे पर उछलता हुआ बच्चा लदा था । गाड़ी जब गंतव्य के समीप पहुंचने को हुई तब कहीं छोटे-छोटे, कच्चे-पक्के मकान दिखाई देने लगे| भारत के अधिकांश गाँवों की भाँति झाबुआ का सिंह द्वार भी अन्य स्थानों से मिलता-जुलता सा ही था।
“मैडम! अब आदिवासी इलाके इतने भी पिछड़े नहीं रह गए हैं कि वहाँ कुछ ना दिखाई दे | आपको यहाँ पर पक्के मकान, होटल, अस्पताल..... सभी कुछ मिलेंगे। बस इन लोगों की मानसिकता, इनकी सोच वही की वही है| आगे बढ़ना ही नहीं चाहते ये लोग! दामले के लिए यह क्षेत्र बहुत करीब से जाना पहचाना था| वर्षों से यहाँ उनका आना-जाना हो रहा था और वे कई तथाकथित बड़े लोगों व कलाकारों के संपर्क में थे,
उनके कई अन्य कार्यक्रमों में यहीं के कलाकारों ने शिरकत की थी शहर में कलाकार अधिक पैसों के अलावा नखरे कितने करते हैं! दामले शहर के कलाकारों के द्वारा सताए हुए थे और झाबुआ के कलाकारों को आगे बढ़ने दिया नहीं जाता |समिधा के मन ने आक्रमण करना चाहा परंतु उसके आक्षेप करने से पूर्व ही दामले फिर से अपनी रौ में बोल उठे।
“आप देखेंगे यहाँ कितने अच्छे कलाकार हैं ! मैंने आपको अपने पिछले कार्यक्रम दिखाए थे ना?वे कुछ
अधिक ही प्रभावित थे इनसे !समिधा के मन में कुछ और ही चल रहा था ....
‘ फिर भी कोई कारण तो होगा इनके अभी तक इतना पिछड़ा रहने का !’समिधा ने कहना चाहा फिर कुछ सोचते हुए चुपचाप गुजरने वाले रास्तों को देखने लगी।
यात्रा लंबी थी, सुबह 10:00 बजे चलकर शाम लगभग 6:00 बजे काफ़िला झाबुआ के उस बँगले के बाहर पहुँचा जहाँ उनके ठहरने की अवस्था की गई थी |बैठे-बैठे थकान से सबके अंग प्रत्यंग सो गए थे |सभी अपने शरीर में चुस्ती भरने का प्रयास कर रहे थे |बंसी ने गाड़ी से उतर कर अपने दोनों हाथ ऊपर की ओर खींचते हुए बड़ा सा मुंह खोलकर एक भरपूर अंगड़ाई ली और क्षण भर बाद अपने हाथों को पीछे छोड़कर गाड़ी से पानी की बोतल निकाल कर एक कोने में जा अपनी आँखों में पानी के छींटे मारने लगा| वैसे सभी अपने सोए हुए पैरों को ज़मीन पर जोर से मारकर उन्हें जगाने का प्रयास करने लगे थे | लगभग 45 वर्ष के तीन बच्चों के पिता दामले बहुत प्रेम व सावधानीपूर्वक अपनी गिनी-चुनी जुल्फों पर कंघा फिराने लगे थे मानो अपने लिए लड़की देखने जा रहे हों | थकान के बावजूद समिधा के चेहरे पर मुस्कान पसर गई |
जैसे ही बंसी ने गाड़ी रोकी आसपास के नंगे- अधनंगे बच्चे गाड़ी को घेर कर खड़े हो गए और अपनी गुजराती- हिंदी आदिवासी बोली में फुसफुस करने लगे। समिधा का मन उनसे बात करने का हुआ, दामले के सिर पर कँघा फेरने से चेहरे पर बनी मुस्कान को उसने उन बच्चों की ओर मोड़ दिया। वह बच्चों को अपने पास बुलाना ही चाहती थी कि बंसी ने उन्हें इतनी ज़ोर से घूरा कि वे सब दूर भाग खड़े हुए ।वे सभी मुड़- मुड़कर देखते जा रहे थे, कुछ इस भाव से 'देखना, बच्चू, हम फिर ना आए तो...' पीछे मुड़कर देखते हुए वे कभी भागते तो कभी उनके कदम धीमे पड़ जाते ! कोई बच्चा बंसी की ओर जीभ निकालकर चिढ़ाता तो कोई अपने दोनों हाथों से सिर पर सींग बनाकर जीभ निकालकर बंसी की ओर देखता जाता।सभी बच्चों की आँखों से शरारत टपक रही थी ।
संमिधा खूब सारे बिस्किट्स और चॉकलेट्स लेकर आई थी, सोचा था बच्चों में बाँटकर उनसे मित्रता कर लेगी। बच्चे बहुत आसानी से बातों बातों में अपने भोलेपन में सब कुछ बता देते हैं। छुपाने की कला में कहाँ निपुण होते हैं वे! उनका लुका -छुपी का खेल उनके भोले बालपन तक ही सीमित रहता है। जैसे-जैसे वे बड़े होते जाते हैं वैसे -वैसे हम उन्हें अपने व्यवहार से सारी बनावटी चीजें और छुपाने के गुण सिखाते रहते हैं। हाँ उनसे मित्रता करने के लिए कोई जुगाड़ करना पड़ता है, कुछ ऐसा तो करना ही होता है जो उन्हें आप की ओर आकर्षित कर सके।
" बंसी आपने बच्चों को भगा दिया खड़े रहने देते न... ।" समिधा ने बंसी से शिकायत की ।उससे चॉकलेट लेकर जाते तो फिर उसके पास आते बच्चे...पर बंसी ने....।
" अरे मैडम आप नहीं जानते, मैं तो हर महीने 2/3 चक्कर लगाता हूँ यहाँ के, गाड़ी देखकर पागल हो जाते हैं ये, बहुत परेशान करते हैं ...." ड्राइवर थका हुआ तो था ही, खीज उसके चेहरे पर पसरी हुई दिखाई दे रही थी।
वह चुप लगा गई, अभी तो कई दिन यहाँ रहना है फिर कभी सही ..उसने सोचा ।समिधा पहली बार यहाँ आई थी। वह यहाँ के माहौल को केवल इतना ही समझ पाई थी जो दूसरों ने उसे समझाने का प्रयास किया था।
अभी माहौल को समझने में उसे कुछ और समय की जरूरत थी, सोचते हुए वह उधर की ओर बढ़ चली जिधर मि.दामले गए थे। बंसी अभी बाहर ही खड़ा उस दिशा की तरफ घूर रहा था जिस ओर बच्चे भागे थे।
समिधा ने जैसे ही कमरे में प्रवेश किया उसकी दृष्टि दीवार पर चिपक कर रह गई। दीवार पर चिपके बड़े से तीर-कमान जैसे उसके आने की प्रतीक्षा ही कर रहे थे। उसको लगा मानो उसे कोई गुपचुप संदेश दिया जा रहा है या फिर उसे ऐसे ही कमरे की सजा के लिए लटकाया गया था। पता नहीं क्यों पर संमिधा उद्विग्न हो उठी ।मिस्टर दामले ने सारांश को जो कहानी सुनाई थी उसने समिधा के मस्तिष्क की दीवार पर खाके खींचने शुरू कर दिए थे। अचानक तीर कमान में से उस नर्स की तस्वीर उभरने लगी जिसे ना तो उसने कभी देखा ही था न ही वह दामले के द्वारा सुनाई गई कहानी के अतिरिक्त उसके बारे में कुछ अधिक जानती थी। नर्स का मासूम, बेचारा सा, खून में सना चेहरा न जाने क्यों और कहां से उसके मस्तिष्क में गढ़ मटता होने लगा और उसकी निगाह दीवार पर चिपक कर रह गई उसे तीन में से लहू टपकता दिखाई दे रहा था।
न जाने कितने कितनों की जान ली होगी !उसके मन में बेमानी बातें उमड़नी शुरू हो गईं थीं और उसका कल तन भीतर से कम काँपने लगा था ।
“मैडम ! आपका सामान........!” समिधा ने ज़बरदस्ती दीवार से अपनी दृष्टि खींचकर हटाई और मुड़कर उस तरफ देखा जिधर से आवाज आई थी| अब उसका चेहरा युवक की तरफ था | पीछे से वह अपनी गर्दन में तीर की चुभन महसूस कर रही थी| अनजाने में ही उसने अपनी गर्दन पर हाथ फिराया कुछ नहीं था| फिर भी वह एक अजीब सी बेचैनी महसूस करने लगी उसने पसीने से तरबतर हुए अपने चेहरे पर हाथ फिराया।
यह एक आदिवासी युवक था जो मध्यम कद का था, जिसकी उम्र कोई 17 /18 वर्ष रही होगी |उसके चेहरे पर दाढ़ी मूछों की हल्की सी रेखा दिखाई दे रही थी | युवक उसका सामान उठाए खड़ा था| जहाँ वह खड़ी थी उस कमरे में एक बेंत के सोफे के अतिरिक्त कुछ कुर्सियाँ भी थीं | कुर्सियाँ -- और एक गोल सी लकड़ी के मेज़ भी रखी थी | कमरा ना तो बहुत पढ़ा था न हीं बहुत छोटा !आदिवासी युवक ने एक बार फिर कहा;
“मैडम! आपका सामान....”
समिधा ने अब उसके चेहरे पर अपने दृष्टि टिका दी | युवक शालीन दिखाई दे रहा था! उसने समिधा का सामान ड्रॉइंग रूम जैसे कमरे से सटे हुए दूसरे कमरे में ले जाकर रख दिया और बोला;
“ मैडम! यह आपका कमरा है और आप के बराबर वाला दामले सर का कमरा है|” युवक ने वहीं से दूसरे कमरे की ओर इशारा किया।
"आप फ्रेश होना चाहोगे मैडम ?मैं आपको बाथरूम दिखा दूँ ..."युवक की भाषा शिष्ट थी।
"और बाकी लोग कहाँ हैं ?"उसने अपने बैग में से सामान निकालते हुए पूछा ।
पता नहीं वह किस दुनिया में थी! अभी तो वे लोग दोनों लड़कों को होटल वाली गली में छोड़ कर आए थे ।
कमरे में लटके तीर कमान उसका पीछा नहीं छोड़ रहे थे जो अनजाने में ही दामले द्वारा सुनाई हुई घटना से उसे जोड़ने लगे थे
“जी ---आप और दामले सर यहाँ पर और बाकी लोग होटल में ठहरे हैं ---“”समिधा ने महसूस किया, उसके सिर पर तीर-कमान हौआ बनकर छाने लगा था | अपने सिर को झटका देकर वह स्न्यमित होने का प्रयास करने लगी |
मि. दामले के कमरे के दरवाज़े के सामने से बाथरूम की ओर बढ़ते हुए युवक बोला ;
“मैं इस सोफ़े वाले कमरे में हूँ, आपको जब भी कुछ चाहिए, मुझे बुला लेना ---“
अब वह उसके पीछे चल रही थी|
“वो –सबसे कोने वाला बाथरूम है मैडम !पानी, साबुन, एकदम साफ़ तौलिया ---सब कुछ है वहाँ पर –”युवक ने समिधा के कंधे पर लटके हुए तौलिए और हाथों में पकड़े हुए सामान की ओर देखते हुए कहा | समिधा ने उसकी ओर देखकर मुस्कुराने का प्रयास किया, अचानक उसे युवक तीर-कमान से सज्जित एक आदिवासी की वे?”शभूषा में दिखाई देने लगा | उसे अपने पैरों में शिथिलता महसूस होने लगी और वह सहज होने के प्रयास में अपने पैरों को ज़मीन पर ज़ोर से दबाकर रखते हुए बिना कुछ कहे बाथरूम की ओर बढ़ गई |