बोधू के पिता दीनू ने अपने 1 बीघे खेत मे अमरूद का बगीचा लगाया था।दीनू ने इन्हें बच्चों की तरह पाला था एक एक पौधे की रखवाली में उन्होंने रात दिन एक कर दिए थे।देर से ही सही कड़ी मेहनत रंग लाती ही है
।पौधे बड़े होकर पेड़ बनने लगे तो उनमें फल लगने लगे।अब अमरूद का बगीचा खूब लहलहाता था तो पड़ोसियों के हृदय में शूल उठते थे।
दीनू ज्यादा दिन बगीचे को लहलहाता देख न सके।एक रात जो वह सोए तो फिर उठ न सके।जाते जाते दीनू ने दोनो बेटों बोधू और गोधू के लिए बगीचा तैयार कर दिया था।बोधू नरम स्वभाव के सज्जन व्यक्ति थे।पिता दीनू के जाने के बाद पढ़ाई की जगह घर की जिम्मेदारियों ने ली तो उन्होंने कलम की जगह हल की मूंठ पकड़ ली।उनका खेती किसानी में खूब मन लगता।पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए वह बगीचे का खूब ध्यान रखते।छोटे बेटे गोधू शहर में रहकर बैरिस्टरी की पढ़ाई करते थे।गोधू उग्र स्वभाव के चंचल मन वाले व्यक्ति थे।एक जगह उनका मन न टिकता था।घर से पढ़ाई के लिए रुपये ले जाते तो उसे शराब,सिगरेट और सिनेमा में खर्च कर देते।व्यसनों के अनुसार उनके पास यार दोस्त भी खूब जुट गए थे।
बोधू यह सोचकर कि भाई शहर में पढ़ लिख रहा है, पैसे भिजवाते रहे।सीजन में अमरूदों और अन्य फसलों से जो पैदावार होती उसका बड़ा हिस्सा गोधू की पढ़ाई में खर्च हो जाता। गोधू पहले हर महीने पैसे लेने गांव आते तो अब हर 15 दिन में आने लगे।सरल चित्त के बोधू सोचते कि बैरिस्टरी की पढ़ाई में खर्च ज्यादा लग रहा जबकि गोधू को अब जुएं का भी अतिरिक्त शौक लग गया था।गोधू जब गांव आते तो बड़े टीमटॉम से आते मानो सचमुच के वकील बन गए हों जबकि शहर में वह बिलबाटम पहने दोस्तों के साथ गुलछर्रे उड़ाते।
जब तक समय की मार आदमी पर नही पड़ती आदमी सीखता नही है।इश्क और मुश्क छुपाए नही छुपते सो जल्द ही बोधू तक भी छोटे भाई गोधू की कारगुजारियों के किस्से पहुंचने लगे।पहले तो वह विश्वास ही न कर सके। जब कानों से सुनी हुई बात पर भरोसा न हो तो आंखे ही एकमात्र जरिया रह जाती हैं।बोधू ने स्वयं शहर जाना तय किया।आखिर अपना पेट काटकर,अपने सपनो,इच्छाओं को दफन कर वह जिस पौधे को सींच रहे थे उसकी खैर-ख्वाहिश तो लेनी चाहिए।इसी उद्देश्य से बोधू एक दिन शहर जा पहुंचे।रास्ता पूछते जब तक वह गोधू के कमरे में पहुंचते दोपहर हो चुकी थी।थके-हारे जैसे ही वह कमरे के बाहर पहुंचे अचानक ठिठक गए।कमरे से तेज आवाजें और सिगरेट,शराब की बू आ रही थी।पहले तो उन्हें भ्रम हुआ कि किसी और जगह तो नही आ गए लेकिन जैसे ही उन्होंने दरवाजा खटखटाया गोधू नशे में धुत्त सामने खड़े थे।सरल स्वभाव बोधू के पैरों तले जमीन खिसक गई। कान चाहे भले झूठ बोलें आंखे झूठ नही बोलतीं।प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या।अब कोई शंका न थी।बोधू दुखी मन से उल्टे पांव लौट आए।
गोधू का जब नशा हिरन हुआ तो हकीकत मुंह खोले सामने खड़ी थी।वह अगले ही दिन गांव आये और बहाने बनाने लगे।बड़े भाई बोधू ने उनसे साफ कह दिया कि अब आगे पढ़ाई जारी रखनी हो तो खुद के बूते करो।गोधू को पढ़ाई तो क्या ही करनी थी उनकी मुख्य चिंता व्यसनों की खातिर पैसों की आवक कम होना था।उन्होंने खूब क्षमा मांगी,कान पकड़े लेकिन बोधू टस से मस न हुए।अंततः हारकर वह शहर चले गए।शहर तो पैसों से ही बना है,पैसे हैं तो इज्जत है, दोस्त हैं।जब तक पैसे पास में थे रेला लगा रहता था अब यार-दोस्त भी कम होने लगे।कुछ दिन उधार से शराब, जुआ चला लेकिन धीरे-धीरे वह भी जाता रहा।दोस्त-यार जैसे पैसे पास होने पर करीब आये थे वैसे ही पैसे न रहने पर दूर हो गए।अब गोधू अकेले बचे।खाने तक के लाले पड़ गए।दोस्तों से पैसे मांगते तो वह इनकार कर देते।जिनकी सोहबत में गोधू ने शराब-जुआ सीखा था अब वह गोधू से बात करना तो दूर पहचानते तक न थे।अंततः जब भूखों मरने की नौबत आ गयी तो वह गांव आये।
बुरे अनुभवों ने गोधू का हृदय परिवर्तन कर दिया था।वह जान गए कि व्यसनों में जो संगी-साथी होते हैं वह सब वक्त के साथी हैं।अब गोधू बड़े भाई बोधू संग अमरूद के बगीचे में खूब मेहनत करते।धीरे-धीरे उनके व्यसन भी जाते रहे।
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जो चीज आदमी को कोई नही सिखा पाता, उसे वक्त सिखा देता है।