Pawan Granth - 19 in Hindi Mythological Stories by Asha Saraswat books and stories PDF | पावन ग्रंथ - भगवद्गीता की शिक्षा - 19

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पावन ग्रंथ - भगवद्गीता की शिक्षा - 19



अध्याय तेरह
सृष्टि और सृष्टा

अनुभव— दादी जी, मैं खा सकता हूँ, सो सकता हूँ, सोच सकता हूँ,बात कर सकता हूँ, चल सकता हूँ, दौड़ सकता हूँ, काम कर सकता हूँ और पढ़ सकता हूँ । मेरे शरीर को यह सब करने का ज्ञान कहॉं से, कैसे आता है?

दादी जी— हमारे शरीर सहित सारा विश्व पॉंच मूल तत्वों से बना है । वे तत्व हैं— पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश । आकाश अदृश्य तत्व है । हमारी ग्यारह इंद्रियाँ हैं । पॉंच ज्ञानेंद्रिययॉं (नाक , जीभ, ऑंख, त्वचा और कान) , पॉंच कर्मेन्द्रियाँ (मुख , हाथ, पैर, गुदा और मूत्रेन्द्रिय ) तथा मन , नाक से हम सूंघते हैं, जीभ से स्वाद चखते हैं, ऑंखों से देखते हैं, त्वचा से स्पर्श का अनुभव करते हैं और कानों से सुनते हैं । हमारी अनुभूति की भी एक इन्द्रिय है जिससे हम दुख-सुख का अनुभव करते हैं ।

यह सारी इंद्रियाँ हमारे शरीर को वह सब देतीं हैं, जो शरीर को काम करने के लिए चाहिए । हमारे भीतर की आत्मा को प्राण भी कहा जाता है वह शरीर को सब काम करने की शक्ति देता है । जब प्राण शरीर को छोड़ देते हैं तो हम मर जाते हैं ।

अनुभव— आपने कहा कि भगवान विश्व के सृष्टा हैं । हमें कैसे मालूम है कि कोई सृष्टा या भगवान है?

दादी जी— किसी भी सृष्टि के पीछे कोई तो सृष्टा होगा ही, अनुभव ।जो कार हम चलाते हैं और जिस घर में हम रहते हैं, उनको किसी व्यक्ति या शक्ति ने तो बनाया ही है । किसी व्यक्ति या शक्ति ने सूर्य, पृथ्वी, और चंद्रमा तारों को बताया है । हम उस व्यक्ति या शक्ति को भगवान या विश्व का सृष्टा कहते हैं ।

अनुभव— यदि हर वस्तु का कोई सृष्टा है तो भगवान को किसने बनाया?

दादी जी— यह तो बहुत अच्छा प्रश्न है अनुभव, पर इसका कोई उत्तर नहीं । परमात्मा हमेशा थे और हमेशा रहेंगे । भगवान सब वस्तुओं का मूल (जड़) है, पर भगवान का कोई मूल नहीं । प्रभु सब वस्तुओं के जड़ हैं, पर उनकी कोई जड़ नहीं ।

अनुभव— पर भगवान का स्वरूप कैसा है, दादी जी? क्या आप उनका वर्णन कर सकतीं हैं?

दादी जी— भगवान का यथार्थ वर्णन तो असम्भव है । परमात्मा का वर्णन केवल दृष्टांत-कथाओं द्वारा ही किया जा सकता है— अन्य किसी प्रकार नहीं । उनके हाथ , पैर , ऑंखें, शीश, मुख और कान सभी जगह हैं । वे बिना किसी भौतिक इंद्रियाों के देख सकते हैं, अनुभव कर सकते हैं और आनंद कर सकते हैं । उनका शरीर हमारे शरीर जैसा नहीं है।

उनका शरीर, उनकी इंद्रियाँ इस लोक से परे हैं । वे बिना पैर के चलते हैं, बिना कानों के सुनते हैं, वे सब काम बिना हाथों के करते हैं, बिना नाक के सूंघते हैं, बिना ऑंखों के देखते हैं, बिना मुख के बोलते हैं, बिना जीभ के सब स्वादों का आनंद लेते हैं । उनकी इंद्रियाँ और कर्म अलौकिक हैं ।उनकी महिमा वर्णन से परे है । परमात्मा हर जगह, हर समय विद्यमान हैं, अंत: वह हमारे बहुत पास हैं ।हमारे हृदय में रहते हैं और दूर भी— अपने परमधाम में ।

वे सृष्टा रूप में ब्रह्मा हैं, पोषक रूप में विष्णु हैं और विनाशक रूप में महेश हैं । एक में ही सब हैं ।

इस बात को बताने के लिए कि भगवान का वर्णन कोई भी क्यों नहीं कर सकता, नमक की गुड़िया की कथा सर्वश्रेष्ठ तरीक़ा है । मैं तुम्हें सुनाती हूँ ।

कहानी (16) नमक की गुड़िया

एक बार नमक की गुड़िया समुद्र की गहराई नापने गई ताकि वह दूसरे लोगों को बता सके कि समुद्र कितना गहरा है । किंतु हर बार जब वह पानी में गई, वह पिघल गई।
कोई भी सूचित नहीं कर सका कि समुद्र की गहराई कितनी है । तो इसी प्रकार किसी के लिए भी भगवान का वर्णन करना असंभव है, जब भी हम प्रयत्न करते हैं, हम उनके यथार्थ के रहस्यमय महान महा सागर में घुल जाते हैं।

हम ब्रह्म का वर्णन नहीं कर सकते । समाधि में हम ब्रह्म को जान सकते हैं, किंतु समाधि में तर्क- शक्ति और बुद्धि पूरी तरह लुप्त हो जाती है । इसका अर्थ है कि समाधि में हुए अनुभव का स्मरण व्यक्ति नहीं रख पाता । जो ब्रह्म को जानता है, वह ब्रह्म जैसा ही हो जाता है । वह बोलता नहीं है, वैसे ही जैसे नमक की गुड़िया महासागर में घुल जाती है और वह महासागर की गहराई की जानकारी नहीं दे सकती।
जो परमात्मा के बारे में बातें करते हैं, उन्हें परमात्मा के विषय में कोई वास्तविक अनुभव नहीं होता । ब्रह्म की केवल अनुभूति ही हो सकती है, उन्हें केवल महसूस ही किया जा सकता है ।

अनुभव— फिर हम भगवान को कैसे जान सकते हैं , कैसे समझ सकते हैं ?

दादी जी— मन और बुद्धि से तुम भगवान को नहीं जान सकते । वे केवल आस्था और विश्वास से जाने जा सकते हैं । वे आत्म -ज्ञान के द्वारा भी जाने जा सकते हैं । एक ही और वही परमात्मा सब जीवों में आत्मा के रूप में रहते हैं और हमारा पोषण करते हैं । इस लिए हमें किसी को दुख नहीं पहुँचाना चाहिए और सबके साथ समान व्यवहार करना चाहिए ।

दूसरों को दुख पहुँचाना, अपनी ही आत्मा को दुखाना है ।
शरीर के भीतर आत्मा गवाह है, मार्गदर्शक है, सहायक है, भोक्ता है और सब घटनाओं का नियन्ता भी है ।

अनुभव— ब्रह्म (सृष्टा) और उसकी सृष्टि में क्या अंतर है,दादी जी?

दादी जी— अद्वैत दर्शन के अनुसार तो उन दोनों में कोई अंतर नहीं । सृष्टा और सृष्टि के बीच का अंतर वैसा ही है, जैसा कि सूर्य और उसकी किरणों के बीच का अंतर।
जिन्हें आत्मज्ञान है, वे सत्य रूप में सृष्टि और सृष्टा के बीच का अंतर समझ सकते हैं और वे ब्रह्मज्ञानी हो जाते हैं ।सारा विश्व भगवान का ही विस्तार है और सब कुछ वही है । उसके अतिरिक्त कुछ नहीं है । परमात्मा ही सृष्टा और सृष्टि है, पोषक और पोषित है, मारने और मरने वाला है । वह हममें है, हमारे बाहर है, पास है, दूर है और सब जगह तथा सबके अंदर रहता है ।

यदि भगवान का आशीर्वाद तुम्हें मिलता है, तो वे तुम्हें ज्ञान देंगे कि तुम वास्तव में कौन हो और तुम्हारी वास्तविक प्रकृति क्या है ।

एक कथा है जो बताती है कि परमात्मा या आत्मा कैसे जीव बन जाता है, अपनी वास्तविक प्रकृति भूल जाता है और अपनी वास्तविक प्रकृति को खोजने का प्रयत्न करता है ।

कहानी (17) शाकाहारी बाघ

एक बार एक बाघिन ने भेड़ों के झुंड पर आक्रमण किया। बाघिन गर्भवती थी और कमजोर थी । जैसे ही वह अपने शिकार पर झपटी, उसने एक शिशु बाघ को जन्म दिया । जन्म देने के दो घंटे के बाद ही वह मर गई।

शिशु बाघ मेमनों की संगति में बड़ा हुआ । मेमने घास खाते थे, इसलिए शिशु बाघ भी उनका अनुसरण करने लगा। जब मेमनों ने शोर किया, आवाज़ें निकालीं, तो शिशु बाघ भी भेड़ों की तरह ही आवाज़ करने लगा । धीरे-धीरे वह एक बड़ा बाघ हो गया ।

एक दिन एक दूसरे बाघ ने भेड़ों के उस झुंड पर आक्रमण किया । उस बाघ को भेड़ों के झुंड में घास खाने वाले एक बाघ को देख कर बड़ा ही आश्चर्य हुआ । जंगली बाघ उसके पीछे भागा और अंत में उस बाघ के बच्चे को पकड़ ही लिया और घास खाने वाले बाघ के बच्चे ने एक मेमने की तरह आवाज़ निकाली ।

जंगली बाघ उसे घसीटते हुए पानी के समीप ले गया और उससे बोला, “पानी में अपना चेहरा देखो। वह मेरे चेहरे जैसा है । यहाँ मॉंस का एक टुकड़ा है, इसे खाओ।”

ऐसा कहकर जंगली बाघ ने, शाकाहारी बाघ के मुँह में मॉंस का टुकड़ा रख दिया ।किंतु शाकाहारी बाघ उसे खा नहीं रहा था और फिर वह भेड़ की तरह की आवाज़ करने लगा । किंतु धीरे-धीरे उसे खून के स्वाद का चस्का लग गया और उसे मॉंस पसंद आने लगा ।

तब जंगली बाघ ने कहा, “अब तो तुम जान गये कि तुममें और मुझमें कोई भेद नहीं है । आओ मेरे साथ वन में चलो ।”

जन्म- जन्मांतर से हम सोचते रहे हैं कि हम शरीर है, जो देश काल की सीमा से बंधे हैं । किंतु हम यह शरीर नहीं हैं।
हम इस शरीर में रहने वाली सर्वशक्तिमान आत्मा का एक अंश हैं ।

अध्याय तेरह का सार— हमारा शरीर एक लघु विश्व की भाँति है । यह पॉंच मूल तत्वों से बना है और आत्मा से शक्ति पाता है । हर सृष्टि के पीछे एक सृष्टा या शक्ति का होना अनिवार्य है ।हम उस शक्ति को भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं,जैसे—
कृष्ण , शिव, माता, पिता, ईश्वर, अल्लाह, गोड आदि ।

परमात्मा का वर्णन मन और बुद्धि द्वारा नहीं किया जा सकता है, न मन और बुद्धि द्वारा परमात्मा को जाना या समझा जा सकता है । सृष्टा स्वयं सृष्टि बन गया है, वैसे ही जैसे— कपास —
धागा,कपड़ा, और वस्त्र बन गया है ।

आगे का अध्याय तुम्हें मैं कल सरल भाषा में सुनाऊंगी, अनुभव ।

क्रमशः ✍️


पावन ग्रंथ—भगवद्गीता की शिक्षा , शुरू से पढ़िए और बच्चों को भी सुनाइए ।
सभी पाठकों को नमस्कार 🙏