India turning side - 4 in Hindi Poems by बेदराम प्रजापति "मनमस्त" books and stories PDF | करवट बदलता भारत - 4

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करवट बदलता भारत - 4

’’करवट बदलता भारत’’ 4

काव्‍य संकलन-

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त’’

समर्पण—

श्री सिद्ध गुरूदेव महाराज, जिनके आशीर्वाद से ही

कमजोर करों को ताकत मिली,

उन्‍हीं के श्री चरणों में

शत्-शत्‍ नमन के साथ-सादर

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त’’

काव्‍य यात्रा--

कविता कहानी या उपन्‍यास को चाहिए एक संवेदनशील चिंतन, जिसमें अभिव्‍यक्ति की अपनी निजता, जो जन-जीवन के बिल्‍कुल नजदीक हो, तथा देश, काल की परिधि को अपने में समाहित करते हुए जिन्‍दगी के आस-पास बिखरी परिस्थितियों एवं विसंगतियों को उजागर करते हुए, अपनी एक नई धारा प्रवाहित करें- इन्‍हीं साधना स्‍वरों को अपने अंक में लिए, प्रस्‍तुत है काव्‍य संकलन- ‘’करवट बदलता भारत ‘’ – जिसमें मानव जीवन मूल्‍यों की सृजन दृष्टि देने का प्रयास भर है जिसे उन्‍मुक्‍त कविता के केनवास पर उतारते हुए आपकी सहानुभूति की ओर सादर प्रस्‍तुत है।।

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त‘’

मदिरा जाम-

नहीं अमृत यही विष है, मदिरा जाम मत छूना।

लगाया औंठ गर इसको, तुम्‍हारा होय सब ऊना।।

खजाना लुट गया उसका, इसके पास जो आया-

मिल गयी खाक में जन्‍नत, खुद में हो गया सूना।।

दर-दर ठोकरें मिलती, गिरता झूम कर नाली-

काशी खो गई दिल से, भूलकर पहुंचता पूना।।

छोड़ इंसान की थाथी, पिए हैवान हो जाता-

नफरत ले जमाने से, तुझे अपराध, हो छूना।।

समझता तूं रहा खुद में, मैंने पी लयी हाला-

हाला पी गई तुझको, देखो जिस्‍म में खूं ना।।

जिंदा है नहीं तूं तो, मुर्दा से गया-बीता-

मिलती हर तरफ नफरत, जला पर भी,धू-धू-ना।।

किया जिन प्‍यार हाला से, कोई मनमस्‍त नहिं देखा।

बूढ़ा है जवानी में, यही अंजाम है पी-ना।।

निगाहैं--

गौर कर देखो, निगाहैं बोलती हैं।

बोलतीं केवल नहिं, वे तौलती हैं।।

चैन पाता नहीं, निगाहैं जिसे मारैं-

हृदय के सारे गमों को खोलती है।।

हाथ सौ-सौ पै, निगाहैं गाढ़ देतीं-

समध के मानिंद, खुद में खौलती हैं।।

याद में आते जभी, बीते हुए पल-पल।

जीर्ण नौका-सी, उदधि-उर डोलती हैं।।

ओझिल हो, भला कोई, इसके दायरे से।

किन्‍तु सारे पर्त ये निगाहैं खोलती हैं।।

भूल मत मनमस्‍त निगाहैं कब्र देखैं।

को छिपा इनसे, ये मधुरस घोलती हैं।।

मानवी पथ –

गर परीक्षा जिंदगी, तो अवश्‍य ही परिणाम होगा।

सुख-दुख के साज होंगे, कर्मफल ही बीज होगा।।

नहिं अधूरे रह सकेंगे, बख्‍त के ये हौंसले-

माप है व्‍यक्तित्‍व तेरा, जागरित होकर भी सोगा।।

अनुभवों के पाठ पढ़, संसाधनों के साथ में-

जिंदगी का ये सफर, पूर्णता संग, खरा होगा।।

मानवी की माप पाएगा, कदों के साथ में-

एक दिन, ऊंचा हिमालय भी, तेरे कदमों में होगा।।

दूरियां घट जाएंगी, तेरे पगों की नाप से-

गर लगे कोई दाग चुनरि जिंदगी भर तूं ही धोगा।।

मृत्‍यु ही है रूकना मनमस्‍त चलना सीख तो।

नहीं तो ऐसी दशा में, जिंदगी भर, आप रोगा।।

नया दौर- षड्यंत्र

षडयंत्रकारों का यहां पर, जाल इतना बढ़ गया। karavat badalta bharat

आज के इस ब्‍यूह में अभिमन्‍यु जैसा फंस गया।।

छोड़ चल, बीती कहानी, आज के इस दौर में-

भीम कोई है नहीं, चहुं ओर से तूं घिर गया।।

गर तेरे भुजदण्‍ड में, ताकत अभी भी शेष है-

हो खड़ा, हुंकार भर, जीवन समर यह मिल गया।।

है नहीं, धर्म युद्ध अब तो, भ्रष्‍ट वादी तंत्र है-

भूल है तेरी यहां शकुनि का युग आ गया।।

भीष्‍म का प्रण तोडने, यहां शिखण्‍डी भीड़ है-

द्रोण शर चलते नहीं, चाणक्‍य का युग भी गया।।

विवेकी संधान करले, संक्रमण के दौर में-

विश्‍वास संबल ले खड़ग, मनमस्‍त आगे बढ़ गया।।

युवा पीढ़ी--

संकल्‍प लेकर चल पड़ो, ज्‍वार जब आए जिगर।

हर कदम पर जीत हो, आसान होगी हर डगर।।

नयी कहानी होयेगी, नयी जवानी जब उठे-

भाग जाएंगे कहीं, अंजाम के ये, सौदागर।।

मातृ भू की लाज हित, शक्ति को साधो जभी-

राह बनती जाएगी, शत्रु के नीचे हो शिर।।

गाढ़ दो परिचम निराला, खींच दो रेखा जमीं-

चल पड़ो, अंगद कदम ले शंखनादी नांद कर।।

दांत कर मजबूत इतने, चने लोहे चब सके।

हो खड़ा शैलाब के संग, दुश्‍मनों की ले खबर।।

रथी हो, अतिरथी हो महारथी हो, मेरे युवा-

मुश्किलें आसान कर दो, रण कोट को अब पहन कर।।

छांव खोजेंगी कहीं, ये आपदाएं-दूर हों।

विजय हो मनमस्‍त तेरी- सुबह- शामें हर प्रहर।।

सर्वोच्‍च न्‍यायालय--

भरोसा है मगर फिर भी, उधकती आस घबराए।

न्‍याय की उच्‍चतम पीढ़ी कौन के गीत गा जाए।।

न्‍याय के मूल में, बैठा, घमोई- वंश का कीड़ा-

सभी कुछ है जहां बौना, उसकी जड़ ही खा जाएं।।

घिनौनी चाल भी चलता, कभी गुमराह हो करके-

कभी शाहों औ-सत्‍ता की, मीठी खीर खा जाए।।

लालची हो गया इतना, बिके जो पीली पन्‍नी पर-

हुआ कमजोर भी भारी, भय से भीत हो जाए।।

किसी ने पांव यदि रोपे, तोड़े भी गए देखे-

सच्‍चाई रो गई हद पै, मुंशिफ सजा जब पाए।।

जमाना कह रहा क्‍या-क्‍या, जमाने को समझ अब भी-

नेश्‍त नाबूत होता है, जमाने से जो टकराऐ।।

फिर भी आस के कौपल, पतझड़ बाद फुटते ही-

न्‍याय तो न्‍याय होता है, नही मनमस्‍त घबराए।।

काठ की हण्‍डी--

रही जो काठ की हण्‍डी, चूल्‍हे कब तलक चढ़ती।

जमाना जब भी बदलोगे कढ़े अन्‍याय की अर्थी।।

देखी पार होते भी, कभी ये कागजी नौका-

चलती कुछ ही दूरी तक, गलकर, तली में सड़ती।।

बजे नहिं ढोल वे दम से, मढ़े जो कागजी साए।

फूटते मध्‍य तालों में, उनकी शाख भी झड़ती।।

चलैं नहिं भवकियां गीदड़, सिंह तो सिंह होते हैं-

गधे नहिं सिंह हो सकते ओढ़कर सिंह की गुदड़ी।।

तुम्‍हारी काठ की असि भी, चल गई, बहुत कुछ चल गई-

इसको म्‍यान अब करलो, म्‍यान रंगीन जो मढ़ती।।

तुम्‍हारे कारनामों का, जनाजा निकलता दिखता-

मंशा साथियों की भी, तुम्‍हारे साथ नहीं चलती।।

कोरी भीड़ भारी है अकेले लग रहे लेकिन-

दरख्‍त सूखते जब हैं, उनकी साख भी झड़ती।।

समय के बदलते साए, साथी साथ नहीं रहते-

चलो मनमस्‍त मिलकर, नहिं समय की अर्थियां कढ़ती।।

नादा बस्तियां--

रोशन बस्तियों को, बे-चिरागे, मत करो कोई।

नादा बस्तियों में, जान है इंसान की गोई।।

हमारी हस्थियों का, एक नक्‍शा इन्‍हीं से बनता-

जिस पर जुल्‍म की बरसात करता, आ रहा कोई।।

झेली फाख्‍ता इतनी, यहीं, गुजरे जमाने की-

बनी जो दास्‍तां अब भी, जिसे जाना सभी कोई।।

कब से चला यह मंजर वही आदम कहानी है-

हुआ होगा कहां जुमला, रही हब्‍बा जहां कोई।।

इसका, आज तक का, रास्‍ता, कितना कठिन होगा।

कितने मिट गए इस पर, नही जाना जिसे कोई।।

इसकी इस सलामत पर तुमको गर्व होना हो-

रंगत और कुछ दे दो, बनो इंशा वही- सोई।।

मगर तुम चल पड़े उल्‍टे, मिटाने हस्थियां उनकी।

नहीं मनमस्‍त यह अच्‍छा, न अच्‍छा कहेगा कोई।।

समय की धार--

जान नहिं पाए अभी तक, समय की इस धार को।

तुम मनुज होकर, अभी तक भूंजते क्‍यों भार को।।

जिंदगी को ढो रहे क्‍यों, शर उठाकर के जिओ-

किस लिए पहने खड़े हो, बुजदिली के हार को।।

धर्म की संकीर्णता में, फंस गए ऐसा लगा-

उलझने पैदां करै जो, काट दो उस झाड़ को।।

आज जो छलमय व्‍यवस्‍था खड़ी है बाजार बन।

कोढ़ को फैला सके नहिं, मोड़ दो उस धार को।।

बहुत बौना हुआ जो दिल, नफरतों की भीड़ में-

दर्द दिल मरहम लगा कर, सबल कर दो प्‍यार को।।

टूटते दिल की कहानी, को नया आधार दो-

पाप से पोषित घड़े को, फोड़ दो- निस्‍सार को।।

रूढि़ के झण्‍डे गढ़े जो, लो उखाड़ो फेंक दो-

टूटते दिल को संभालो, नेह का उपहार दो।।

तुम्‍हें बढ़ना ही है आगे, निर्बलों को साथ ले-

होयेंगी मनमस्‍त-दुनियां, बदल लो व्‍यवहार को।।