भूमण्डलीकरण का संदर्भ और शिक्षा
सामाजिक विकास के लिए शिक्षा का महत्व जग जाहिर है। समाज में बेहतर बदलाव तब आता है, जब जन (सामान्यजन) उत्पीड़न चीन्हनें लगे। उत्पीड़ितजन अंधेरों में धंधकने वाली ताकतों को पहचानने लगे। ’तमसो मां ज्योतिर्गमय’’ प्रकाश पुंज, यानी बेहतर समाज, क्योंकि जब हम चीजों को समझने लगते हैं, तब उन्हें बेहतर बनाने की कल्पना शुरू की जाती है। समझने के लिए सीखना पड़ता है और सीखने के लिए पढ़ना पडता है।
परम्परागत रूप से विद्यालय पूर्व शिक्षा को छोड़ दे, तो हम लगभग हर शिक्षा-व्यवस्था में तीन स्तरीय ढांचा पाते है- (अ) प्राथमिक बुनियादी शिक्षा, जो तीन बुनियादी कुशलताओं और विभिन्न विषयों का कलाचलाऊ आरंभिक ज्ञान प्रदान करने के लिए होती है, (ब़) माध्यमिक शिक्षा, जो विभिन्न विषयों के ज्ञान को विस्तार और गहराई देती है, इसमें व्यवसायिक शिक्षा और प्रशिक्षण भी शामिल हैं। (स) उच्च शिक्षा, जो राष्ट्र के लिए काडर (अभियंता, प्रबंधक, चिकित्सक और शोधकर्ता) तैयार करती है।
उन्नत हो या पिछड़ी, सभी समाजों में किसी भी समय-विशेष में अनेक प्रकार की शिक्षा व्यवस्थाएं होती हैं। जैसे विद्यालयों की अच्छी या बुरी दशाएं, प्रदाय की परम्परागत या हाईटैक व्यवस्थाएं, रट्टा मारने से लेकर सक्रिय बाल केन्द्रित शिक्षा तक पठन-पाठन की विभिन्न रणनीतियां आदि भूमण्डलीकरण से सम्पर्क होता है। आम तौर पर शिक्षा में परिवर्तन धीरे धीरे रूप लेते हैं, जबकि भूमण्डलीकरण की प्रवृत्ति बहुत तेजी से आगे ब़ढ़ रही है।
यूनेस्को के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के विकास के साथ शुरू हुई। फिर भी अभी कुछ वर्षो में इस प्रवृत्ति से भारी तेजी देखते हैं, जिसकी तन बुनियादी विशेषताएं हैं। पहली विशेषता, पूरी दुनिया से अधिक स्वतंत्रता का विस्तार है। दूसरी प्रौद्योगिकी प्रवर्तनों से बृद्धि, खस कर संचार के क्षेत्र से और तीसरी विशेषता इन विभिन्न आयासों की आपसी निर्भरता है।
हमने जिन प्रवृत्तियों की चर्चा की है वे विश्वव्यापी है, अर्थात पूरी धरती उसेस प्रभावित हो रही है और होगी। पर इसका मतलब यह नहीं है कि सभी देशों की प्रतिक्रिया एक जैसी होगी। भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया तीन प्रकार के कर्ताओं का उदय करती है। (1) जो भूमण्डलीकरण करते हैं (2) जिनका भूमण्डलीकरण होता है (3) जो भूमण्डलीकरण में पीछे रह जाते हैं।
भूमण्डलीकरण करने वालों का ध्यान पूंजी, संसाधनों, ज्ञान और सूचना के नियंत्रण पर केन्द्रित होता है। जिनका भूमण्डलीकरण होता है, वे सूचना के कमजोर और ज्ञान के कमजोर उपभोक्ता हैं। जो इनमें पीछे छूट जाते हैं, उनकी सूचना और ज्ञान तक कोई पहुंच नहीं है या बहुत कम पहुंच है। उपभोक्ता के रूप में उनमें ग्रहण की क्षमता नहीं है और उत्पादन के लिए उनकी कोई पहुंच नही है या बहुत कम पहुंच है। उपभोक्ता के रूप में उनमें ग्रहण की क्षमता नहीं है और उत्पादन के लिए उनकी कोई प्रासंगिकता नहीं है। हर देश में तीनों प्रकार के व्यक्ति और समूह मौजूद हैं। भूमण्डलीकरण करने वाले अल्पमत मे है और संभवतः रहेगे।
मई 1990 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 की समीक्षा हेतु आचार्य सममूर्त की अध्यक्षता में सत्रह सदस्यीय समिति का गठन किया गया था। इस समिति के सदस्य डाॅ0 अनिल सदगोपाल को अनुभव हो है कि शिक्षा नीति के विश्लेषण की कोई वैज्ञानिक पद्धति विकसित नही हुई है। समिति का प्रत्येक सदस्य नीति के सम्बन्ध में अपनी निष्ठाओं विचारों एवं अहसासों को व्यक्त करता है और इसी को विश्लेषण मान लिया जाता है। जब विभिन्न सदस्यों के मतों में अन्तर होता है तो बात उसकी मानी जाती है, जिसका अन्यान्य कारणों से ऊंचा दर्जा हो या राजनीतिक प्रभाव अधिक हो।’’ जब भी कोई नीति बनती है और उसे बनाने वाले जो लोग सत्ता में होते हैं उनकी समझ और मान्यताएं उस नीति में प्रतिबिंबित होती हैं।
विश्व बैंक जो इस समय भारत की प्राथमिक शिक्षा के लिए नीति निर्माण में प्रमुख भूमिका निभा रहा है, उसकी मान्यताएं निहित स्वार्थ, दीर्घकालीन उद्देश्य क्या है- यह एक स्वभावित सवाल है। सन् 1997 में जिला प्राथमिक शिक्षा सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में भारत की प्राथमिक शिक्षा के बारे में विश्व बैंक द्वारा लिखी हुई एक पुस्तक भारत सरकार ने सबको बांटी। देश की शिक्षा के हालात पर भारत सरकार ने अपना कोई दस्तावेज नहीं बांटा, या यूं कहिए कि भारत सरकार ने शिक्षा के हालात का आंकलन करने और भावी कदम तय करने की जिम्मेदारी विश्व बैंक को सौंप दी।
इस पुस्तक से कुल मिलाकर दो उद्देश्यों को रेखांकित किया गया है। पहला, वैश्वीकरण और बाजारीकरण की जरूरतों के संदर्भ से शिक्षा के जरिए लोगों को प्रोद्योगिकी में तेजी से हो रहे परिवर्तनों के लिए तैयार किया जा सकेगा। शिक्षा मजदूरों की उत्पादन क्षमता और कमाई को बढाएगी। नई प्रोद्योगिकी के लिए तैयारी, उत्पादन क्षमता और कमाई को बढ़ाएगी। नई प्रोद्योगिकी के लिए तैयारी, उत्पादन क्षमता और कमाई का बढन ऐसे उद्देश्य हैं जो उपभोक्तावाद और भूमण्डलीकरण के लिए जरूरी है। शिक्षा का दूसरा उद्देश्य विश्वबैंक की जनसंख्या विस्फोट के बारे में चिंता से जुड़ा हुआ है। एक लम्बे अरसे से यह स्थापित करने की कोशिश हो रही है कि गरीबी का मुख्य कारण जनसंख्या विस्फोट है, न कि समाज में व्याप्त गैर-बराबरी एवं प्राकृतिक संसाधनों तथा पूंजी का विषमतामूलक वितरण या व्यवस्था का अभाव। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन का मन्तव्य इने लिए बेमानी है।
अतः विश्व बैंक और उसके समर्थकों के लिए जरूरी हो गया कि शिक्षा के जरिए यह दो लक्ष्य हासिल कर लिए जाए ताकि एक ओर तो बच्चों के दिमाग में यह धारणा घर न कर जाय कि गरीबी का मुख्य कारण आबादी का बढ़ना है, जिससे वे बड़े होकर संसाधनों और पूंजी के विषमतापूर्वक वितरण का सवाल कभी न उठाए, दूसरी ओर लड़कियों को शिक्षित करने का उद्देश्य उनका समग्री विकास करना नहीं, बल्कि उनके जरिए प्रजनन दर को नियंत्रित करने वाले साधनों का उपयोग बढ़ाने का होगा। विश्व बैंक की स्पष्ट समझ है कि महिलाओं पर नियंत्रण करके पूरे परिवार को उपभोक्तावाद से जोड़ा जा सकेगा।
विश्व बैंक की नीति के कारण शिक्षकों का भविष्य भी खतरे में है। बैंक का एक दस्तावेज कहता है कि शिक्षक की नोकरी कभी भी स्थायी न हो और वे ठेके (कान्ट्रेक्ट) पर लिये जाएं। ठेका इस प्रकार से होना चाहिए कि स्कूल मैनेजमेंट जब चाहे उनको खारिज कर दें तथा उनका वेतन भी कम रहें। इसकेक बावजूद भारत सरकार के अफसर कहते हैं कि डी0पी0ई0 तो हमारे पूरे शैक्षिक बजट का मात्र 4.2 प्रतिशत देता है। फिर सवाल उठता है कि 100 पैसों में से सिर्फ 4 पैसे पाने के लिए विश्व बैंक के सामने भारत की इतनी लाचारी क्यों, जिससे हम उनकी हर शर्त सिर झुका कर मानने को विवश है।
हमारे देश में 1946-48 के राधाकृष्णन कमीशन से लेकर आज तक (1986 और 1992 की शिक्षा नीति तक) जितने भी दस्तावेज बने, वो सब इस तरह की भाषा और शब्दावली में लिखे हुए हैं, कि आम आदमी न तो पढ़ सकता है और न पढ़ कर समझ सकता है। फिर भी उनमें कोठारी आयोग में एक सकारात्मक पक्ष ’’कामन स्कूल सिस्टम’’ या ’’समान शिक्षा व्यवस्था’’ का था, जिस पर भारत सरकार और संसद ने तीन बार (1968, 1989 और 1992 में) स्वीकारते हुए क्रियान्वित करने का संकल्प लिया। पर इसके विपरीत सरकारी निर्णय की ही बदौलत केन्द्रीय स्कूल प्रणाली स्थापित हुई, सैनिक स्कूल बने, नवोदय विद्यालय खुले।
शिक्षा के लिए प्रसिद्ध नोबेल पुरस्कार सम्मानित अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन का कहना है कि ’’भले ही दो प्रतिशत राष्ट्रीय बचत का हिस्सा शिक्षा पर खर्च हुआ, मगर दो प्रतिशत के बराबर परिणाम नहीं आए और परिणाम यह है कि चाहे अनौपचारिक शिक्षा हो या औपचारिक, हमने शिक्षा पर तो कम मगर व्यवस्था पर अधिक खर्च किया और व्यवस्था ने भी व्यवस्था के लिए तो कम निजी लाभ के लिए पैसा ज्यादा स्तेमाल किया, इसलिए शिक्षा के अफसर तो अमीर हो गये, लेकिन स्कूल और अध्यापक गरीब रह गये।’’
भूमण्डलीयकरण या वैश्वीकरण नाम पर अब हम उपलब्धियां ग्रहण रहे हैं, वे हैंः-
(अ) शिक्षा को मंहगा बना दिया।
(ब) गुणवत्ता का अर्थ केवल अंग्रेजी माध्यम को बना दिया।
(इ) स्कूलों के जरिये या शिक्षा संस्थाओं के जरिये दिमाग का भूमंडलीयकरण किया ओर शिक्षा को विदेशी तक्नालाजी या इन्फोटेक की सबसे बड़ी मण्डी बना दिया।
(ई) देश में प्रतिभावान, तेजस्वी और विद्वान लोगों के लिए काम के अवसर समाप्त कर दिये।
(उ) प्रतिभा पलायन की एक नई आर्थिक संस्कृति रच दी।
(ऊ) दो वक्त का ठीक से खाना न मिलने वाले देश की शिक्षा पर पांच सितारा होटलों में चर्चा होने लगी।
(स) नेताओं और नौकरशाहों के लिए विदेश यात्राओं के दरवाजे खुल गये।
शिक्षा के उन्नयन के तमाम वायदों के बावजूद वर्तमान सरकार शिक्षा के निजीकरण एवं व्यवसायीकरण को बढ़ावा दे रही है। कहना न होगा कि निजी विश्वविद्यालय विधेयक, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के स्थान पर भारतीय विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग अधिनियम आगे चलकर खतरनाक साबित होंगे। विश्व बैंक के निर्देशों के अनुसार उच्च शिक्षा के बजट में कटौती कर उत्तोेत्तर निजीकरण की दिशा में भारत सरकार चल रही है।
गहरे पानी पेठ’ नामक किताब के लेखक व्यास मिश्रा ने भूमंडलीकरण जैसे गरिमामय नाम के सहारे इस दोर की शिक्षा, उसके ऊपर मंडराते खतरों और अन्य मसलों पर बारीकी से रोशनी डाली है। पुस्तक के लेखक व्यास मिश्र भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी हैं और कई वर्ष उन्होंने शिक्षा से जुड़ी सरकारी महकमें में बिताए हैं। ’’पोटोमैक का किनारा’’ ’’विश्व बैंक और प्राथमिक शिक्षा’’ शीर्षक से लिखे पहले अध्याय में व्यास मिश्र ने शिक्षा विभाग के काम से आयोजित अपनी वांशिग्टन यात्रा और वहां विश्वबैंक के हुक्मरानों के साथ हुई अपनी वैचारिक मुठभेंड का दिलचस्प वर्णन किया है। सरकारी अधिनियम होने के कारण लेखक उक्त बैठक के सारे पहलुओं का उल्लेख नहीं कर सका है, पर उसका निचोड़ लेखक ने जिस तरह पेश किया है, उससे बहुत सारी अनकही बातों का साफ संकेत मिलता है-’’(समझौते केक) प्रारूप में कुछ बातें स्वामी-भाव से रखी गई थी, जैसे याचक के साथ दाता का भाव होता है, कुछ-कुछ उसी तरह का। वार्ताक्रम में विश्व बैंक की शर्त थी- अनुसूचित जनजातियांे एवं बालिकाओं की प्राथमिक शिक्षा की वही रणनीति हो, जो विश्व बैंक को मान्य हो।’’
पुस्तक में व्यास मिश्र ने शिक्षा के निजीकरण के खतरों को भी रेखांकित किया है कि कैसे यह आम लोगों को अशिक्षित बनाए रखने की साजिश केक अलावा कुछ नहीं है, आयु पर्यन्त शिक्षा के संदर्भ में शिक्षा का हर चरण तैयारी मूलक होना चाहिए, पर आज के इस भूमंडलीकरण और बाजारवाद के सैलाब में हर कदम शंका उत्पन्न कर रहा है। इसमें कोई शक नहीं शिक्षा की नाव ही भूमंडलीयकरण से उत्पन्न समस्याओं के भंवर में डुबोने से बचायेगी, बशर्ते इस नाव के मल्लाह और करिया, जिसके हाथ में नाव का दिशा-निर्धारक रहता है, सशक्त सचेत और सावधान हों, मौसम पर निगाह रखने वाले मीडिया के संवाहक और देश के प्रबुद्ध जन चेतावनी देते रहे।
सामाजिक पुनरेकीकरण के तत्व के रूप में शिक्षा को एक नया और विविधता से सम्पन्न रूप ग्रहण करना होगा और वह प्रमुखतत्व बनी रहेगी, जो व्यक्तियों को अपने भाग्य के नियंत्रण में समर्थ बनाएगी। निश्चित ही इस सब का दारोमदार शिक्षा के लिए आवश्यक संसाधनों की उपलब्धि सुविचारित और सुरक्षित हो तभी ’’तमसो मा ज्योर्तिगमय’’ और ’’वसुधैव कुटुम्ब्कम्’’ के श्रेष्ठ उददेश्य की पूर्ति होगी। हमें समझना होगा कि शिक्षा पर कुछ भी तय करने के लिए जनता के प्रति जबाब देही जरूरी है, जिनका भविष्य उससे जुड़ा है ओर बहुत हद तक निर्भर है।
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