Sate bank of India socialem(the socialization) - 23 in Hindi Fiction Stories by Nirav Vanshavalya books and stories PDF | स्टेट बंक ऑफ़ इंडिया socialem (the socialization) - 23

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स्टेट बंक ऑफ़ इंडिया socialem (the socialization) - 23

अदैन्य ने कहा जो पैसा अंडरवर्ल्ड को या ब्लैक मनी में पास होना था और नहीं हुआ वह हम विदेशों में निवेश कर सकते हैं. और उसके मुनाफे देश के कुछ सेक्टरों को सब्सिडाइज करने में लगा सकते हैं.

मानिक जी ने सुकटाक्ष में हंसकर पूछा और इससे क्या होगा!!

अदैन्य भी समझ गए और उन्होंने कहा, इससे लोकतंत्र पर जनता का विश्वास बढ़ेगा और वह मजबूत होगा.

मानिक जी ठहाके से हंस पड़े.

माणिकजी ने अदैन्य से पूछा अरे हां, मिस्टर रोए आप की प्रेस कॉन्फ्रेंस कब अरेंज हुई है?


अदैन्य ने कहा, जी वह गौतम जी मुझे बता देंगे कि कब प्रेस कॉन्फ्रेंस को फेस करना है.


डिनर खत्म होता है और अदैन्य मानिक जी और उनके परिवार से अनुमति लेते हैं.

अब बारी आती है सत्य प्रकाश द्विवेदी जी की, तो द्विवेदी जी ने फोन करके अदैन्य से पूछ लिया कि आप कितने बजे तक आ जाओगे.

अदैन्य ने कहा जी मैं रात के 9:00 तक अवश्य पहुंच जाऊंगा.
आखिरकार, 9:00 बजे का आखिरी घंटा और द्विवेदी जी का डोर बेल दोनों एक साथ बजते हैं. और स्वयं द्विवेदी जी ने ही दरवाजा खोल कर अदैन्य का मान बढ़ाया.

सत्य प्रकाश द्विवेदी जी ने अदैन्य के समय का दासत्व समझ लिया और भारतवर्ष का भविष्य भी.

और इसी भावना और गर्व के साथ द्विवेदी जी ने अदैन्य का स्वागत किया.

मित्रों, यदि हमारे पास कुशलता के नाम पर केवल शुन्य हैं मगर फिर भी यदि हम समय के अनुशासन के अनुयाई है तो भी हमारे सफलता की बहुत बड़ी भविष्यवाणी की जा सकती है.

जिसने समय को अपना देवता मान लिया है उसके सारे योग क्षेम स्वयं महाकाल उठाते हैं.

और वैसे भी जब हम वक्त से बहुत पीछे चल रहे हो तब पसीना बहाने का कोई मतलब नहीं रहता, ऐसी स्थिति में केवल एक मात्र समय का अनुशासन ही हमें इस दौड़ में दुनिया से आगे निकाल ले जाता है.

अदैन्य भी उसी वृद्धता से द्विवेदी जी के गले मिले और द्विवेदी जी संतुष्ट हुवे.

सत्य प्रकाश द्विवेदी भारतवर्ष के बहुत उच्च कोटि के अर्थज्ञ है.

और यह वही दौर था 80 के आसपास का दशक जिसमें केवल एकमात्र भारत का ही नहीं बल्कि लगभग पूरे विश्व का अर्थ तंत्र गुमराह गुमराह सा चल रहा था.

मगर फिर भी द्विवेदी जी ने ईन परिस्थितियों में भी संतुलन बना कर रखा था.

दोस्तों, पेपर करेंसी के पुूर्व लगभग पूरी दुनिया में सोने चांदी के सिक्के प्रवर्तमान थे. और वह भी करीब दो 3000 साल से. और अचानक ही पेपर करेंसी आ गई और पूरी दुनिया की इकोनामी हेरिडेटरी बदल गई. अब ऐसे में अर्थ तंत्र का गुमराह होना लाज़मी बनता था.
मुद्राओं के दौर में ज्यादा से ज्यादा सिक्के या तो डकैतों के हाथ लगते थे या तो जमीन के नीचे गाड़े जाते थे. मगर, पेपर करेंसी ने तो भूगर्भ को अपना दूसरा घर ही मान लिया. और शुरू हो गया एक सिस्टमैटिक ऑर्गेनाइज्ड क्राईम.

इन सभी एंगल्स का विचार करें तो केवल एक ही बात सामने आती थी की पेपर करेंसी के इस अर्थतंत्र को स्थिर होने में अभी 100 साल लगने हैं.