Review by Pawan Kumar-Film-The Wind Will Carry Us in Hindi Film Reviews by Pawan Kumar books and stories PDF | 'द विंड विल कैरी अस' - फ़िल्म समीक्षा

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'द विंड विल कैरी अस' - फ़िल्म समीक्षा


Review by Pawan Kumar~

The Wind will carry us.

{A film by Abbas Kiarostami}


Available at MUBI



पत्रकारों को लिये धूल के बवंडर उड़ाती गाड़ी जा रही है पहाड़ी की गोद में बसे उस गाँव को जहाँ कब्र पे पांव लटकाए एक उम्रदराज़ बुढ़िया रहती है।


सौ की उम्र को पार कर चुकी उस बुढ़िया की मौत उस गाँव में एक ऐसे अनोखे रिचुअल को अंजाम देगी जो वहाँ कभी कभी हीं होता है।उसी रिचुअल को ख़बर में ढ़ाल कर प्रोफेशनल सक्सेस पाने की ख़्वाइश गाड़ी में सवार पत्रकारों को दूर दराज़ के इस गांव तक खींच लाई है।पत्रकार इंजीनियर का नक़ाब ओढ़ कर वहाँ आये हैं ताकि उनके hidden agenda के आगे कोई रोड़ा न आए।


इंजीनियर की हैसियत से उनकी आमद का एक परिवार को पता है जिसने उनकी सहूलियत भरी आगवानी के लिये गाँव के मुहाने पर एक प्यारे से बच्चे फरज़ाद को भेज रखा है।निर्दोष मुस्कान से लबरेज़ फरज़ाद उस दिन भी उन्हें रस्ता दिखाता है और बाद के दिनों में भी।उस दिन का रस्ता उन्हें ठौर देने वाले एक घर का है और बाद का रस्ता ज़मीर का।


कहानी की आगे की मसाफ़त करने से पहले फ़िल्म के उस उन्वान को भी जान लीजिए जिसमें एक गहरा फ़लसफ़ा छिपा है।फ़िल्म का नाम है'द विंड विल कैरी अस।'इस नाम में छिपा फ़लसफ़ा यह है कि हमसब दरख़्त का एक पत्ता हैं जिसे कुदरत के हमल से उठी कोई हवा दूर बहा कर ले जाएगी,किसी नामालूम जगह।उस नामालूम मरहले पर भी हम हमेंशा के लिए नहीं रुकेंगे।क्योंकि बहना हीं हमारी नियति है,बहना हीं हमारा जीवन है।


पत्रकार बेहज़ाद अपने सहकर्मियों के साथ जिस गांव में आया है वह पहाड़ी पे पीठ टिकाया,सुस्ताया सा एक गांव है जहाँ हवा किसी नन्हे छौने सी फुदकती चलती है।जहाँ वक़्त निकम्मे के मानिंद पांव पसारे सोया रहता है।एक सुकूनकुन ख़ामोशी हरदम तारी रहती है वहाँ।ऐसा लगता है गांव और गाँव की हर शय किसी तपस्वी की तरह ध्यान में बैठें हों।गाँव के मर्द सीधे सादे हैं पर फिर भी उनकी अवचेतना में बसी पितृसत्ता औरतों का इम्तिहान लेती रहती है।घर की चारदीवारी में सिमटी औरतें कोल्हू के बैल की तरह लगातार खटती रहती हैं पर उनका खटना मेहनत नहीं समझा जाता।सब कुछ देख सुन रहा बेहज़ाद कुछ हीं दिनों में वहाँ की औरतों के हालात को बहुत हद तक समझने लगा है।


दसवें बच्चे को जनने जा रही एक औरत से जब पत्रकार बेहज़ाद उसके पति के बाबत पूछता है तो वह औरत उसे बताती है कि उसका पति खेत पर गया हुआ है।वह बेहज़ाद को यह भी बताती है कि मर्द गर्मी में खेतों पर काम करते हैं और जाड़ा घर पर आराम करते हुए बिताते हैं।तब बेहज़ाद तंजिया हो कहता है कि नहीं मर्द जाड़े में भी काम करते हैं।वे जाड़े में औरतों की कोख में संतति का बीज बोते हैं।बेहज़ाद के कहे का मुराद समझ चुकी औरत बस दुख मिश्रित हंसी हंस कर रह जाती है।


वाक़ई कोल्हू का बैल बनना औरतों की नियति है वहाँ।बेहज़ाद तो इस गर्भवती औरत को अगले दिन उस की हमशक्ल बहन समझ बैठता है जब वह उसे बेबी बम्प के बग़ैर काम करता हुआ पाता है।वह यह जानकर बेहद हैरान हो जाता है कि जिसे वह गर्भवती औरत की बहन समझ रहा है वह बहन नहीं ख़ुद गर्भवती औरत है जो बच्चा जनने के महज़ कुछ घण्टों बाद अपने रोज़ाना के कामों में लग गयी है।बेहज़ाद समझ चुका है कि उस विलगित दुनिया में औरत मुसलसल नाचने वाले उस लट्टू की तरह है जिसका रकबा बस मर्द की हथेली भर है।


पत्रकार बेहज़ाद गाँव में रहने के दौरान ऐसी हीं एक और अनुभूती से गुज़रता है जब वह अपने हालिया दोस्त बने मज़दूर की बीबी से अपने वास्ते दूध लेने जाता है।मज़दूर की सोलह साल की बीबी जब बेहज़ाद के लिए दूध दुह रही होती है,बेहज़ाद गांव की बंदिशी निज़ामत में क़ैद उस लड़की को एक कविता सुनाता है। यह ख़ुद की खोज करवाने वाली कोलम्बसी कविता है।कविता के कुछ उल्लेखनीय अंश यूं हैं:


हवा पत्ते से मिल रही है,ऐसे जैसे कुँए में झांकने के दौरान तुम अपनेआप से मिलती हो।


क्या तुम सायों की बुदबुदाहट सुन पाती हो?


तुम प्यारी यादों से मुनक्कश अपने हाथ मेरे हाथ में धर देती हो।तुम ज़िन्दगी के गर्म तासीर वाले अपने होठ मेरे होठ पर धर देती हो।


हवा हमें बहा ले जाएगी कहीं दूर उन्मुक्तता वाले आसमान में'


इस कविता में लड़की को दी गयी उन्मुक्तता की हांक है।इस कविता में लड़की का कभी न घटित हुआ प्रेम है।पत्रकार द्वारा सुनाई गई कविता सुनकर स्याह कमरे में सिमटी उस लड़की की पीठ पर ख़्वाइशों की जो रोशन इबारतें उभरने लगीं हैं उसे कोई नादीदा भी आसानी से पढ़ सकता है।पल भर के लिये हीं सही,लड़की के मन की दबीज़ सतहों को तोड़कर हसरतों का एक सोता सा बह निकला है।लड़की अपने इस नये अनुभव से घबरायी हुई है।


दूध के पात्र के साथ आज उसका खाली निचाट मन भी भर गया है,कविता द्वारा उड़ेले उस ऐसे प्रेम से जिसका उसने कभी आस्वादन नहीं किया।पत्रकार अपने मज़दूर दोस्त की बीबी की शक्ल देखना चाहता है,पर लड़की अंधेरे का हिजाब ओढ़े रखती है।यह लड़की का अंधकार के सामने किया समर्पण है।उस बंदिशी ज़मीन पर न प्रेम की इजाज़त है,और न हीं प्रेमिल कविताओं को सुनने की।पत्रकार की सुनाई कविता ने लड़की के बंद स्याह कमरे में कहीं जो कोई दरीचा खोल दिया था,लड़की उस दरीचे को फ़ौरन बंद कर देती है।


औरतों के पिछड़ेपन को पालते उस गाँव में फिर भी कुछ ख़ास है जो पत्रकार के मन में उतरने लगा है।शायद गांव के लोगों की सादा दिली, शायद गांव की राहत-अफ़ज़ा आबोहवा ,शायद गांव की शादाबी।


पत्रकार बेहज़ाद शहरी रवायत का नुमाइंदा है जहाँ सिर्फ़ एक बात मायने रखती है,तेज रफ़्तार तरक्की।पर यह गाँव शहर की आपाधापी का मुँह चिढ़ाता हुआ बेहज़ाद को एक निश्छल,निर्विकार ज़िन्दगी जीने का हुल्लास भरा न्योता दे रहा है….कह रहा है भागना बंद करो और देखो कैसे आहिस्तगी से फूल चटक रहे हैं,कैसे मद्धम आवाज़ में मंजीरें बजाती हवा मंद मंद दुलक रही है,कैसे मवेशियों के रेवड़ को चराते चरवाहों ने अपने मवेशियों के गले से घण्टी के साथ साथ वक़्त को भी बांध दिया है।


पत्रकार का मन शहर और गाँव के बीच दोलन कर रहा है।उसे गांव की सादगी भी खींच रही है और शहर की प्रगतिवादी यांत्रिकी भी अपनी ओर बुला रही है।पर उस वक़्त शहर गांव को पटखनी दे देता है।पत्रकार और उसके साथी जल्द से जल्द काम निपटाकर शहर वापस लौटना चाहते हैं।काम का जल्दी होना इस बात पर मुनहसिर है कि बूढ़ी औरत जल्दी मरे और इसलिए पत्रकार और उसके साथी उस औरत की मौत की ख़बर सुनने को व्याकुल हैं।


उन्हीं दिनों बेहज़ाद गाँव में कुत्तों की लड़ाई देखता है।कुत्तों की लड़ाई उसे शहर के 'डॉग ईट डॉग' वाले संसार की याद दिलाती है।मृगमरीचिका के पीछे भागते भागते थक चुका वह पत्रकार अब रुकना चाहता है।


पत्रकार बेहज़ाद इस कशमकश का ,अपने मन के द्वंद का साझा करता भी है तो किससे, एक मासूम बच्चे फरज़ाद से।क्योंकि बच्चा हीं वो पुराना निर्दोष पता है जिसमें वह कभी रहा करता था,जहाँ वह ज़िन्दगी को भरपूर जिया करता था।तब नियाज़ें छोटी छोटी हुआ करतीं थीं, फूल, तितली, बेरियों, बेमक़सद घुमक्कड़ी के इर्दगिर्द मंडराने वाली।


जब ख़बर की विषयवस्तु बूढ़ी औरत कई दिनों के इंतज़ार के बाद भी मर नहीं रही होती तो पत्रकार के दोस्त अधीर हो जाते हैं और वापस अपने शहर तेहरान लौटना चाहते हैं।उनकी अधीरता को उकसाया है बच्चे फरज़ाद की दी हुई इस जानकारी ने कि मरणासन्न बूढ़ी औरत अब खाने पीने लगी है।पत्रकार अपने साथियों को वापस लौटने का मंसूबा बनाते देख बच्चे को उस सोंच का जिम्मेदार समझ,उस पर बिफर पड़ता है।


जिस स्कूल का हवाला दे पत्रकार बच्चे फरज़ाद को डिप्लोमेटिक होने को कहता है,उसी स्कूल में दी गयी नसीहत का हवाला दे बच्चा कहता है कि वह झूठ नहीं बोल सकता।और तब पत्रकार बेहज़ाद को समझ में आता है कि शहरी स्कूल में डिप्लोमेसी तरक्कीयाफ़्ता ज़िन्दगी जीने की अपरिहार्यता है ,गांवों में सच जीवन जीने की शैली है।


पत्रकार के मन से अब बदलाव की कोंपले फूटने लगीं हैं।पर कुछ वक़्त पहले तक,तब जब पत्रकार अपने गरज़ के लिये औरत के मरने का इंतज़ार और दुआ दोनों कर रहा था,वह अपने इस कृत से मुझे बुरी तरह शर्मसार किये जा रहा था।


कुछ ऐसी हीं बेदिली की थी मैंने जब मैं एक डॉक्युफिल्म की शूटिंग के लिए बनारस गया था।हमारी फ़िल्म के नैरेटिव में किसी की मृत्यु का ज़िक्र है।उस नैरेटिव को सपोर्ट करने के लिये हमें दशाश्वमेध घाट पर जल रही चिताओं का दृश्य चाहिए था। मैं परेशान था क्योंकि काफ़ी देर से उस जगह पर कोई अंत्येष्टि नहीं हो रही थी जो हमारे कैमरे की ज़द में थी।जैसे हीं वहाँ कुछ लाशें आयीं,मैं ख़ुश हो गया यह सोचकर कि मनपसंद शॉट मिल जाएगा।पर जैसे हीं मुझे अपनी क्रूरता का अहसास हुआ,मैं शर्म से पानी पानी हो गया।


जो मैं कर रहा था वह वल्चर जर्नलिज्म था,जो आज बदक़िस्मती से पत्रकारिता की स्वीकृत रवायत बन चुका है।इस वल्चर जर्नलिज्म को दमदार तरीके से संज्ञानित करवाया था पत्रकार केविन कार्टर ने जब उसने सूडान की अकालग्रस्त ज़मीन पर भूख से दम तोड़ते एक बच्चे को कैमराबद्ध कर,उस तस्वीर को पुलित्जर पुरस्कार में भुनाया था।


कार्टर को बेशुमार शोहरत दिलाने वाली उसकी उस मशहूर तस्वीर में भूख से दम तोड़ता एक बच्चा था और था उसके मरने का इंतज़ार करता एक गिद्ध।महान पुलित्जर पुरस्कार को जीतने के बाद वह खबरनवीस ख़ुद ख़बर बन गया था।दुनिया भर से बधाइयां आ रही थी।चैनल,न्यूज़पेपर वाले उसका साक्षात्कार पर साक्षात्कार लिए जा रहे थे।ऐसे हीं एक साक्षात्कार के क्रम में एक रिपोर्टर उससे पूछ बैठा~


'सर उस भूख से मरते बच्चे के पास कितने गिद्ध थे?'


कार्टर ने जवाब दिया 'एक'


रिपोर्टर ने उसे याद दिलाया कि वहाँ दरअसल दो गिद्ध थे,एक पंख वाला और एक कार्टर।


रिपोर्टर की इस बात ने कार्टर के मन में आत्मग्लानि भर दी थी। कार्टर उस आत्मग्लानि के साथ ज़्यादा दिन तक ज़िंदा नहीं रह पाया।उसने एक दिन आत्महत्या कर ली।


कार्टर का ज़मीर ज़िंदा था इसलिए वह जिस्मी तौर पे मरा।वो लोग जो बेज़मीर होते हैं,ऐसी बेदिली करके भी उस बेदिली के साथ बगैर किसी सुगबुगाहट के रहते हैं।ऐसे लोगों की रूहें भी मर जाया करतीं हैं।इस फ़िल्म के नायक बेहज़ाद का ज़मीर ज़िंदा है।तभी तो बूढ़ी औरत की मौत की ख्वाईश रखने वाला बेहज़ाद एक दिन बूढ़ी औरत की सेहतयाबी के लिये डॉक्टर को बुला कर लाता है।


आख़िरकार बूढ़ी औरत मर जाती है पर तब तक मर चुका होता है पत्रकार का लालच भी।पेशेवर फ़ायदे कराने वाली ख़बरों को इकट्ठा करने की पत्रकार की कुलाचें मारती ख्वाईश चाहती थी बूढ़ी औरत को मरते देखना।वही ख्वाईश पत्रकार से कब्र में लेटे एक मृत की हड्डी भी लिववा आयी थी।आज पत्रकार ने उस खुदगर्ज़ ख्वाईश को ख़ुद से परे झटक दिया है।उसने एक नाले में फेंक दी है वह हड्डी जो कुदरत की पिन्हा शय की नाजायज़ उधड़न थी।


फ़िल्म की कहानी तो लाजवाब हैं हीं,कहानी का पर्दे पर उकेरन भी बड़ा तास्सुरी है।अब्बास कियरोसतामी दूर से शॉट लेकर इलाके की नीरवता को और भी मुखर कर देते हैं।कैमरे के फ्रेम में एक भी अनावश्यक आदमी या वस्तु नहीं होती।इस फ़िल्म में भी पत्रकार के साथियों को एक बार भी नहीं दिखाया गया है पर आपको उनकी कमी कहीं नहीं खलेगी।


अब्बास कियरोसतामी के रचे क़िरदार ख़ास नहीं,बल्कि हम आप जैसे आम होते हैं।अगर कुछ ख़ास होती हैं तो वह है उन क़िरदारों की परिस्थितियां।


अब्बास फिल्में नहीं बनाते,बल्कि ख़्यालों के कूचे से ख़ूबसूरत मुसव्वीरी (painting) करते हैं या शायद नाज़ुक नाज़ुक कविताएं लिखते हैं।पहाड़ी पर बने कच्चे पक्के घर,उन घरों से जुड़े पेचीदे रास्ते,बेफ़िक्री के दाने चुगते मुर्गे,भेड़ बकरियों के रेवड़,खेत खलिहान,धूल उड़ाता गन्दुमी रास्ता ऐसा लगता है मानों फ़िल्म फ़िल्म नहीं लाह लास्य से भरी कोई कविता हो।


फ़िल्म का लगभग हर दृश्य देखनेवालों को बेदार करके जाता है। मिसालन पत्रकार के मोबाइल वाले दृश्यों पर गौर फरमाएं।गाँव में मोबाइल काम नहीं करता पर शहरी पत्रकार जिसकी पीठ पर काम बेताल की तरह लदा है,वह काम उसे मोबाइल से निजात दे भला!मोबाइल के नेटवर्क की खोज पत्रकार बेहज़ाद को बार बार ऊंची पहाड़ी पर एक ख़ास छोटी सी जगह ले जाती है।क्या मतलब है इसका???


यह दृश्य इशारों में यह कह जाता है कि कैसे तकनीक ने हमें कूप मण्डूक(कुँए का मेढ़क) बना दिया है...कैसे हमारी दुनिया मोबाइल ,लैपटॉप ,फेसबुक के तंग घेरे में महदूद हो गई है।


अब्बास कियरोसतामी अपनी फ़िल्मों में रूपक(Metaphor) का बड़ा प्रभावशाली प्रयोग करते हैं।फ़िल्म 'द विंड विल कैरी अस'भी अब्वास के मेटाफरिकल प्रयोग से अछूती नहीं है।इस फ़िल्म में उनके जादुई metaphorical treatment का एक उदाहरण देखिये….पत्रकार को एक कछुआ दिखता है जो कब्र को रेंग कर पार करता हुआ चला जा रहा है।उसे ख़्याल आता है कि बूढ़ी औरत भी तो इस कछुए जैसी दीर्घजीवी जीव है जो कब्रों को लांघती जिये जा रही है।पत्रकार कछुए को पलट कर उसकी लम्बी यात्रा रोकना चाहता है।वह बूढ़ी की जीवन यात्रा का भी अंत चाहता है क्योंकि उस जीवन यात्रा के अंत में हीं उसकी पेशेवर क़ामयाबी निर्भर है।


अब्बास के metaphorical treatment का एक अन्य उदाहरण है वह दृश्य जिसमें पत्रकार एक कीड़े को अपनी बिल के मुहाने से ज्यादा बड़ी चीज़ को मुहाने से अंदर ले जाने की असफ़ल कोशिश करते देखता है।कहीं न कहीं उसके मन में एक ख़्याल चटकता है कि ज़िन्दगी को गुलज़ार होने के लिये ज़्यादा कुछ नहीं चाहिये।बेहज़ाद को शुबहा होता है कि कहीं वह भी तो कीड़े की तरह ज़िन्दगी के मुहाने से गैरज़रूरी बड़ी चीज़ों को अंदर ले जाने की कोशिश में तो नहीं लगा है।


अब्बास की फ़िल्मों की ख़ासियत यह है कि उनके कैमरे के फ्रेम में आयी हर एक चीज़ मन को आंदोलित करती रहती है,फिर चाहे वह क़िरदार हो या परिदृश्य। साधारण की प्रतीति कराने वाले उनके दिखाये छोटे से छोटे दृश्यों में भी जीवन का मर्म,ज़िन्दगी से मन्सूब गहरा सबक छिपा होता है।मिसालन इस दृश्य पर ग़ौर फ़रमाएं….


बेहज़ाद जब बूढ़ी औरत की मौत के जल्द घटित होने की ख्वाईश लिये रास्ते पर कहीं बैठा होता है,एक बूढ़ी उसे लंबी उम्र की दुआ देती गुज़रती है।वह दुआ नहीं है,बेहज़ाद के मन की ठहरी झील पर फेंका कंकड़ है।


एक अन्य दृश्य में स्थानीय बच्चे फरज़ाद को इम्तिहान में पूछे गये इस सवाल का जवाब नहीं आ रहा कि क़यामत वाले दिन अच्छों और बुरों के साथ क्या हुआ था।पत्रकार बेहज़ाद जल्दबाजी में फरज़ाद को उल्टा कह जाता है कि बुरे जन्नत गए,अच्छे जहन्नुम ।जब तक पत्रकार अपने ग़लत कहे को सही नहीं करता,बच्चे के चेहरे पे आयद बेचैनी देखिये।


ये तमाम दृश्य फ़िल्ममेकर अब्बास कियरोसतामी की महानता का अहसास तो कराते हीं हैं ,साथ हीं ये यह भी अहसास कराते हैं कि ईरान की विप्लवकारी(turbulent) ज़मीन पर कुछ है ख़ूबसूरत सा,जिसे सहेजे जाने की ज़रूरत है।


अच्छी फ़िल्मों की यह खासियत होती है कि यह हमसे,तंत्र से ढ़ेर सारे वाजिब सवाल पूछती है।यह फ़िल्म ऐसी बाकमाल फ़िल्म है जिसमें फ़िल्म और फ़िल्म का परिदृश्य दोनों सवाल पूछते हैं….सवाल कि अगर इस ज़मीन पर ऐसी बेतकसीरी(innocence) पलती है तो वो कौन लोग हैं जो शैतान का मुखौटा बने हुए हैं???


कैसे पैदा हो जाते हैं फूल जैसी ईरानी औरतों की कोख से विषैले काँटे(thorny trees)???


कच्चे-पक्के निर्दोष घरों,निश्छल पहाड़ों के बीच कैसे और कहाँ से उग आता है उग्रवाद???


यह फ़िल्म यह सवाल भी पूछती है कि कहीं गाँव हीं तो वो आदिम गुफ़ा नहीं,जिसमें मानवता ने पनाह ले रखी है!


कहीं शहर के लकदक ने लालच का ऐसा घुन तो नहीं पैदा कर दिया है जो इंसानियत को धीरे धीरे खाये जा रहा है!


~PAWAN KUMAR