ADHUNIKTA AUR HAMARA SAMAJ in Hindi Moral Stories by Anand M Mishra books and stories PDF | आधुनिकता और हमारा समाज

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आधुनिकता और हमारा समाज

हम भारतीयों ने अपनी जीवन-शैली को त्याग कर पश्चिमी देशों की नकल की। कहने को ये पश्चिमी देश विकसित हैं। हमारे देश को अविकसित या विकासशील कहते हैं। मगर विकास का पैमाना सभी के लिए अलग-अलग होता है। हमारे लिए विकास में सभी अपने हैं, पूरी धरती ही परिवार है। यह भावना मुख्य रूप से रहती है। आज पश्चिमी देशों का विकास पूर्णतया झूठ पर ही टिका है। झूठ के सहारे ही वे दुनिया पर अपना शासन कायम रख पाने में कामयाब होते हैं। हमारे और उनके देश में आज शिक्षा पद्धति, उद्देश्य, ग्राहक आदि सभी समान हैं। वहां की संस्कृति समस्या को बनाकर फिर निदान निकालने की है। तथाकथित विकसित देश आपस में दो देशों को लड़वाते हैं तथा बाद में अपने हथियारों की बिक्री कर अपनी आमदनी बढाते हैं। विकासशील देश उनके झांसे में आ जाते हैं। वहां की स्वास्थ्य व्यवस्था भी सस्ती नहीं है। हर चीज के लिए कीमत चुकानी पडती है। इलाज करवाने में पूरी की पूरी जीवन भर की कमाई अस्पताल को चढ़ावा देने में चला जाएगा। इसके बाद भी जीवन बचेगा या नहीं – कोई गारंटी नहीं है। महामारी काल में हमने काफी नजदीक से देखा तो पाया कि हमारे देश में भी कमोवेश यही स्थिति है। यहाँ की चिकित्सा व्यवस्था भी भगवान के भरोसे है। चिकित्सा के क्षेत्र में कोई ख़ास उन्नति हुई नहीं। प्राचीन काल में चरक, सुश्रुत आदि महान चिकित्सक अपने देश में थे। उस वक्त का चिकित्सा विज्ञान मरीज को देखकर ही उसके मर्ज को पकड़ लेता था। आज की चिकित्सा प्रणाली पूरी तरह से यंत्र चालित है। सभी प्रकार के बीमारी को पकड़ने के लिए यंत्र है। यदि यंत्र गलती करता है तो चिकित्सक भी गलती करेगा। कोरोना काल में तो इस प्रकार के विशेष वस्त्र चिकित्सकों के होते हैं कि देखते ही मरीज की आधी जान निकल जाती है। चिकित्सक की मुस्कान भी अब दुर्लभ हो गयी।

न्याय प्रक्रिया तो और भी दुरूह है। न्याय पाने की आशा यहाँ अपने देश में एक आम नागरिक कर ही नहीं सकता है। इतने दांव-पेंच यहाँ पर न्याय पाने के लिए लगाना पड़ता है कि आम नागरिक को सोच कर ही पसीना आ जाता है। क्या आज के समय में एक आम नागरिक न्याय के लिए न्यायलय के चक्कर लगा सकता है? यह ज्वलंत प्रश्न है। वह परेशान हो जाएगा। न्याय यहाँ पर सर्वसुलभ नहीं है।

रही सही कसार बीमा कम्पनियों के प्रवेश से पूरी हो गयी है। आजकल बीमा वाले घाटा देखकर दावा में कुछ न कुछ पेंच लगा देते हैं। पॉलिसी बन्द कर देने की घोषणा कर देते देते हैं। पहले से दुखी लोग और इलाज के मारे अधमरे हो जाते हैं। शासन-तंत्र को राजनीति करने से ही अवकाश नहीं मिलता है। साथ ही व्यापारी वर्ग को किस प्रकार फायदा पहुंचाया जाए। सरकार के लिए वही सही है। क्योंकि चुनाव लड़ने के लिए धन तो उद्योगपतियों के यहाँ से ही आएगा। आम जनता तो चुनाव के लिए सहयोग-राशि देगी नहीं। सरकार केवल आश्वासनों से जनता का इलाज कर देती है। जनता ठगी खडी रह जाती है। सरकार सहारा नहीं बन सकती है। राजनीति के खेल में जोड़-तोड़ से सरकार बनाना-गिराना यही खेल सभी राजनीतिक दल खेलते रहते हैं। वाकई राजनीतिक संतुलन बनाना एक कठिन कार्य है। जन सरोकार से कोई मतलब नहीं है। जनता अपने प्रतिनिधि चुनती है पर जरूरत के समय में स्वयं भक्षक होते दिखाई पड़ते हैं। इन प्रतिनिधियों ने यह तो सिद्ध कर दिया कि अवसर का समुचित उपयोग किया जाए। कहीं – कहीं पर तो प्रतिनिधि वसूली प्रक्रिया में लगे रहते हैं। चिकित्सालय नहीं हैं, डॉक्टर-नर्से, दवाइयां, मरीजों के लाने-ले जाने के साधन आदि की चिंता उन्हें नहीं रहती है। किसी-किसी राज्य में एम्बुलेंस वर्षों से ऐसे ही पड़ी रह जाती है और मरीज दम तोड़ देते हैं। मरीज कालाबाजारी से अपने मौत के लिए दवाइयों का इंतजाम करती है। यह आत्मनिर्भर भारत है।

बीमा वाले कमाने के लिए बीमा कंपनी खोलते हैं। वे मुकर जाते हैं। घाटा आखिर में वे क्यों उठाए? बीमा वाले लगता है कि अपने प्रशिक्षण में लाभांश में कमी नहीं हो – ऐसी ही शिक्षा देते हैं।

अतः अभी का समय सभी काम छोड़कर केवल भगवान पर ध्यान रखने का है। आत्मविश्वास को बनाए रखना है। हमारी जिन्दगी एकमात्र ऊपरवाले के रहमोकरम पर चल रही है। हम सभी कठपुतली हैं।