Come on, let's go for a walk... 10 in Hindi Travel stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | चलो, कहीं सैर हो जाए... 10

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चलो, कहीं सैर हो जाए... 10



हम लोग सोने तो चले गए थे लेकिन बीच बीच में उठकर बाहर दालान में आकर चल रहे मौजूदा नंबर का जायजा लेते रहते । नंबर काफी धीमी गति से सरक रहा था । चिंता इसलिए भी ज्यादा थी क्योंकि हमें बताया गया था की अगर किसीभी वजह से आप अपने नंबर पर दर्शन नहीं कर पाए तो आपको दुबारा मौका नया नंबर लेने पर ही मिलेगा ।

सुबह के चार बज रहे थे और सूचनापट पर 425 नंबर प्रदर्शित हो रहा था । अचानक नंबर बड़ी तेजी से बढ़ा था । इसकी यह वजह रही होगी कि बहुत से यात्रियों ने
समयाभाव के कारण गर्भजुन के दर्शन का विचार त्याग दिया होगा ।

अपना नंबर नजदीक देख मैंने अपने सभी मित्रों को जगाया और हम सभी थोड़े ही समय में दैनिक दिनचर्या से निवृत्त होकर नहाधोकर दर्शन के लिए तैयार हो गए ।

एक आश्चर्य यहाँ यह था कि स्नानघर में पानी बहुत ठंडा होने की बजाय सामान्य ही था । गरम पानी उपलब्ध होने के बावजूद हम लोगों ने सामान्य पानी से ही स्नान किया था ।

तैयार होकर हम लोग निचे दर्शन के लिए प्रवेश द्वार पर पहुंचे ।

वहाँ प्रवेश द्वार पर लोगों की काफी भीड़ थी और वहाँ तैनात फौजी बार बार उन लोगों से अपनी बारी आने पर ही आने का आग्रह कर रहा था ।

कुछ ही देर में सूचनापट पर नंबर बदला और प्रवेश द्वार पर खड़े लोग अन्दर प्रवेश के लिए उद्यत हुए ।

नंबर 430 प्रदर्शित हो रहा था ।

हम लोग भी प्रवेश द्वार पर आ पहुंचे थे । द्वार पर स्थित फौजी पर्ची पर अंकित यात्रियों की संख्या के मुताबिक ही गिनकर यात्रियों को अन्दर प्रवेश दे रहा था । हम सभी मित्र पर्ची के मुताबिक प्रवेश द्वार से अन्दर कतार में दाखिल हुए ।

अन्दर कतार के लिए लोहे की जालियां लगायीं गयी थीं । कतार से आगे बढ़ते हुए एक जगह और सभी यात्रियों की सुरक्षा जांच की गयी ।

यहाँ भी बेल्ट पर्स बैग मोबाइल वगैरह ले जाना प्रतिबंधित है । हमने इसकी जानकारी पहले ही ले ली थी सो हमारे सभी सामान और मोबाइल वगैरह कमरे में ही स्थित लोकर में सुरक्षित रखे हुये थे ।

अन्य यात्रियों के लिए भी अलग से लोकर की व्यवस्था मंदिर प्रशासन की तरफ से की गयी है ।

बाहर रुके हुए लोगों के लिए मंदिर प्रशासन निशुल्क कम्बल की व्यवस्था भी करता है । कम्बल के लिए सौ रुपये प्रति कम्बल की दर से जमानत की रकम देनी होती है और वही रकम पूरी की पूरी कम्बल वापस करने पर वापस प्राप्त होती है ।

कतार में हम लोग धीरे धीरे अग्रसर थे । एक छोटी सी जगह में ही कई मोड़ घुमने के बाद हम अब अंतिम कतार में थे ।

बायीं तरफ की खिड़की से बाहर का दृश्य दिखाई पड़ रहा था । बाहर अँधेरे में भीमकाय चोटियाँ और थोडा आगे की तरफ देखने पर कटरा शहर का कुछ हिस्सा अपनी जुगनू की मानिंद चमकती रोशनियों के साथ दृष्टिगोचर हो रहा था ।

कतार में लोग उत्साह से माताजी के जयकारे लगा रहे थे । पूरा माहौल भक्तिमय हो चुका था । दायीं तरफ हनुमानजी का मंदिर दिखाई पड़ा । नजदीक नहीं जा सकते थे सो हमने कतार में से ही हनुमान जी के दर्शन किये और आगे बढे ।

सामने ही लगभग पंद्रह सीढियाँ उतर कर गुफा का प्रवेश द्वार दिख रहा था । उत्सुकता की वजह से हम लोग कतार में से ही आगे की तरफ झाँक आगे का जायजा ले रहे थे ।

अभी हम लोग कतार में ऊपर ही थे की एक वृद्धा गुफा के मुख पर पहुँच कर रोने लगी । गुफा का मुख बहुत छोटा दिखाई पड़ रहा था और वहीँ बैठकर और फिर हाथों के बल होकर लोग आगे बढ़ रहे थे । कुछ समय लगा और उन माताजी को सबने समझा बुझाकर और माताजी के जोशीले जयकारे द्वारा उनको हौसला दिलाकर गुफा में प्रवेश कराया गया । माताजी के जयकारे ने उस वृद्धा के मन में उत्साह का नव संचार कर दिया था शायद क्योंकि उनके प्रवेश करने के बाद कतार रुकी नहीं । एक एक कर लोग गुफा में प्रवेश करते रहे और हम आगे बढ़ते रहे ।

गुफा के मुख के करीब ही एक सूचनापट लिखा हुआ है जिसमें उस गुफा के महत्व के बारे में जानकारी लिखी हुयी है । यह भी लिखा है की गुफा में प्रवेश करते ही दायीं तरफ जो शिला है माताजी ने वहीँ बैठकर नौ महीने तपस्या की थी और वहीँ से बाहर निकलकर भैरव का वध किया था ।

जब तक गुफा में प्रवेश करने का हमारा नंबर आता हम उपर्युक्त सारी जानकारी पढ़ चुके थे । मन ही मन माताजी का स्मरण करते हुए हम गुफा के प्रवेश द्वार के सम्मुख उकडूं बैठ गए और दोनों हाथों पर शरीर का भार डाल कर रेंगते हुए गुफा में प्रवेश कर गए ।

गुफा में प्रवेश करते ही दायीं तरफ एक छोटी सी शिला नजर आई जहां कुछ हार फुल वगैरह चढाकर पूजन किया हुआ प्रतीत हो रहा था । उस जगह गुफा की उंचाई बैठने लायक थी सो हमने दोनों हाथों से उस पवित्र शिला का स्पर्श कर उसे नमन किया और फिर हाथों पर रेंगते हुए आगे बढे ।

आगे गुफा का दृश्य बड़ा ही अनुपम था । यहाँ पहुँच कर पता चला कि इस गुफा को गर्भजुन क्यों कहते हैं । गुफा के अन्दर प्राकृतिक सफ़ेद चिकने पत्थरों से निर्मित बिलकुल गर्भ जैसा ही दृश्य था । अन्दर रोशनी की पर्याप्त व्यवस्था की गयी थी । इसी रोशनी में गुफा की कुदरती कारीगरी का अवलोकन करते हुए एक संकरे पत्थर जो की बिलकुल नार सदृश्य था के निचे से रेंगते हुए हम बायीं तरफ आगे बढे ।

अब आगे गुफा का दूसरा छोर शायद नजदीक था । अब रेंगते हुए ही हम ऊपर की तरफ बढे और कुछ ही पल में हम गुफा में सीधे खड़े होकर ऊपर चढ़ने का प्रयत्न क़र रहे थे । ऐसा लग रहा था मानो हमें किसी खड्डे से बाहर निकलना हो ।

गुफा में सहायता के लिए लगायी गयी जंजीर की मदद से पत्थरों पर पैर जमाते हुए हम लोग बाहर निकले और वहीँ गुफा के मुख पर खड़े होकर एक एक कर अपने सभी मित्रों की बाहर निकलने में मदद करने लगे ।

हमारे सभी मित्र गुफा से बाहर आ चुके थे फिर भी अन्य सभी मित्रों को अपने कमरे में जाने का निर्देश देकर हम दो लोग वहीँ गुफा के मुख पर रूककर गुफा से निकलनेवाले अन्य यात्रियों की मदद करने लगे ।

लगभग एक घंटे तक हम दोनों यात्रियों की मदद करते रहे । लाचार वृद्ध और कमजोर यात्रियों की मदद करके हमें अनुपम आनंद की अनभूति हो रही थी और हमारा मन यात्रियों की सेवा करके अभी भरा नहीं था । लेकिन समय और रुकने की इजाजत नहीं दे रहा था सो हम लोग भी बाहर आकर अपने कमरे में पहुंचे । सभी मित्र तैयार होकर हमारा ही इंतजार कर रहे थे ।

हम लोग भी स्नानघर में जाकर एक बार फिर हाथ मुंह धोकर अपना अपना सामान संभाले कमरे से बाहर निकले ।

बाहर निकलकर हम सभी ने चाय के साथ कुछ बिस्किट वगैरह खाया और मन ही मन पुनः अपने दर्शन का सौभाग्य देने की माताजी से विनती करते हुए अर्धक्वारी से नीचे की तरफ प्रस्थान किये ।

क्रमशः