Taapuon par picnic - 45 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | टापुओं पर पिकनिक - 45

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टापुओं पर पिकनिक - 45

आज आगोश अजीब सा ही बर्ताव कर रहा था। वह सूरत से भी बेहद भोला- मासूम सा दिख रहा था।
जैसे कोई बेबस कबूतर हो, जिसका घोंसला तोड़- फोड़ कर फेंक दिया गया हो। तिनका- तिनका गायब!
तीन- चार दिन में आर्यन के लौट आने के बाद आज वो सब दोस्त फ़िर से एक सूने कैफे में एक काली उदास मेज के इर्द - गिर्द इकट्ठे थे।
जब आगोश ने आर्यन को कमरे पर हुई चोरी के बारे में बताया तो आर्यन का मुंह लटक गया।
आगोश हंसा और आर्यन को चिढ़ाने लगा- ले साले, मेरा तो जो हुआ सो हुआ, अब तू मधुरिमा से मिलने का बहाना कहां से लाएगा?
आर्यन एकदम से मूड बदल कर बोला- ख़ुद गुरुजी की धोती खुल गई, उसकी तो चिंता नहीं है, मेरा रुमाल गिरा उसके लिए हंस रहा है साले। कमरा छोड़ दिया फ़िर?
आर्यन की बात पर मनन, सिद्धांत और साजिद, तीनों हंस पड़े।
आगोश खिसिया कर रह गया।
साजिद बोला- यार, ये हीरो ठीक कह रहा है, ये तो मधुरिमा को किसी भी बहाने भगा लाएगा, पर तू तो ये पता कर कि तेरा हज़ारों का सामान वहां से कौन ले के भाग गया? रिपोर्ट क्यों नहीं लिखाई?
सिद्धांत बोला- हज़ारों नहीं, लाखों बोल। साठ हज़ार का तो इस बेचारे का लैपटॉप ही था।
जैसे ही वेटर ने आकर मेज पर खाने - पीने की चीज़ें सजानी शुरू कीं, आगोश ने अपने ट्राउज़र की घुटने तक लंबी जेब से एक काली सी बोतल निकाल ली।
- लो, इसका तो इरिगेशन प्रोजेक्ट चालू... पी पी पीले बेटा पी, ये काली ज़हरीली शराब! अपने लीवर की मां... सिद्धांत बोलते - बोलते रुक गया।
आगोश फीकी सी हंसी हंस कर बोला- रिलैक्स यार, तुम लोग एन्जॉय करो, चिंता मत कर, मेरे लीवर को कुछ नहीं होगा, हो भी गया तो गम नहीं, आजकल तो बाज़ार में मिलता है लीवर, किडनी सब। जल्लाद घर में ही बैठा है!
आगोश के ऐसा कहते ही सब एकदम गंभीर होकर चुप हो गए। सन्नाटा सा छा गया।
आर्यन को बहुत बुरा लगा। क्योंकि वह सोचता था कि आगोश के पिता के क्लीनिक पर चल रही संदिग्ध गतिविधियों के बारे में केवल उसे ही पता है, पर आगोश की बात से उसे शंका सी हुई कि कहीं आगोश ने इन सब को भी खुल कर सब कुछ बता न दिया हो।
उसके घर का मामला था, इसलिए स्वाभाविक था कि उसका दिमाग़ परेशान रहता हो।
साजिद ने बात बदल दी। एकदम बोला- यार आगोश का कमरा तो अब बंद पड़ा है, उसमें कुछ तोड़- फोड़ शुरू हो गई।
- क्या हुआ? क्या चोरों ने तोड़फोड़ भी की? मनन ने आश्चर्य से पूछा।
- तुझे किसने बताया कि उस कमरे में तोड़- फोड़ शुरू हो गई ? सिद्धांत बोला।
- इसे मनप्रीत ने बताया होगा, वो तो मधुरिमा की सहेली है। मनन मुस्कुराते हुए बोला।
- सच में, मधुरिमा के पापा को तो शक हो गया है कि उस कमरे में कोई न कोई चक्कर है, उनका पहला किरायेदार भी ऐसे ही भागा, दूसरे का भी हश्र ऐसा ही हुआ। साजिद ने कहा।
- पर पहली किरायेदार तो कोई नर्स थी न...
- हां, पर उसने भी किसी लफड़े के बाद ही कमरा ख़ाली किया था।
- मैंने तो सुना है कि मधुरिमा के पापा किसी वास्तुकार को पकड़ लाए तो उसने कमरे में कोई वास्तुदोष बताया है। जब तक उसका निवारण नहीं होगा तब तक वहां ऐसे ही लटके- झटके चलेंगे।
- इसे ये सब मनप्रीत ने बताया होगा।
- पर मनप्रीत इसे मिली कब?
- अबे, ये क्या पूछता है, ऐसे पूछ कि मनप्रीत इसे मिली क्यों?
सब हंसने लगे।
सिद्धांत बोला- मनप्रीत तो इसे रोज ही मिलती है।
आर्यन बोला- क्यों साजिद? सच कह रहा है क्या सिद्धांत?
सिद्धांत ने कहा- मैं झूठ नहीं बोल रहा, रोज दिखते हैं ये दोनों आते या जाते हुए।
- तूने कब देखा? साजिद हंसता हुआ बोला।
- अबे मैं तो रोज़ ही देखता हूं तुम्हें पार्क रोड पर। कभी वो स्कूटी चला रही होती है और लाइटें थाम कर तू पीछे बैठा होता है.. कभी स्कूटर तू चला रहा होता है और वो पीछे बैठी हुई होती है हैंडल पकड़ कर।
- लाइटें? हैंडल? ये सब क्या बोल रहा है। कोई नया काम शुरू किया है क्या? मनन ने किसी बच्चे की तरह मासूमियत से पूछा।
सब हंस पड़े।
- बच्चे लोगो, तुम्हारा खाना ठंडा हो रहा है, थोड़ा ध्यान इधर भी दे लो। आर्यन बोला, तो सब अपनी- अपनी प्लेटों पर सक्रिय हुए।
आर्यन ही फ़िर बोला- बच्चो, नो फॉर्मेलिटी, ये इंतजार मत करो कि तुम्हें मेज़बान खाना शुरू करने के लिए कहेगा। हेल्प यॉर सेल्फ़। मेज़बान तो ख़ुद अपनी बोतल में बंद है!
- चीयर्स! मनन ने कहा।
कुछ ही दिनों बाद आर्यन को अपना शूटिंग शेड्यूल मिल गया। वह बहुत उत्साहित था। अब एक लंबे समय के लिए उसे शहर से बाहर रहना था।
उसके जाने की बात सोच कर सबसे ज्यादा विचलित बेचारा आगोश ही था। उसकी हालत दिनोंदिन और भी अजीब सी होती जा रही थी।
एक तो वो शराब बहुत ज़्यादा पीने लगा था, दूसरे अब उसका मन किसी के साथ ज़्यादा देर तक नहीं लगता था। वह अधिकांश समय अकेला ही रहना पसंद करने लगा था।
उसे न तो अपने कमरे पर हुई चोरी का कोई सुराग हाथ लग पाया और न ही अताउल्ला या सुल्तान के बारे में कोई जानकारी मिली कि वो अब कहां हैं और उसके पिता ने उन दोनों को कहां और किस काम में लगा कर रखा है। खुद आगोश के पिता भी कई - कई दिनों तक घर नहीं आते थे और मम्मी से उनके अक्सर शहर से बाहर ही होने की सूचना मिलती थी।
जिस दिन से आगोश की मम्मी ने गुस्से में आकर उसे थप्पड़ मार दिया था उस दिन से ख़ुद मम्मी भी आगोश से मन ही मन डरने लगी थीं और उसके सामने पड़ने पर सहज नहीं रह पाती थीं।
आगोश की मम्मी अच्छी तरह जानती थीं कि चाहे उन्होंने आगोश के उनकी नौकरानी के लिए उल्टा- सीधा बोलने पर तैश में आकर थप्पड़ मार दिया हो पर वास्तव में तो आगोश की मानसिक स्थिति के लिए ख़ुद आगोश कतई दोषी नहीं था।
उन्हें डर लगता था कि लड़का कहीं कुछ कर न बैठे।
वो अपने पति के पैसों के लालच के पीछे दौड़ने को ही सबसे बड़ा अपराध मानती थीं, और इसके लिए भीतर ही भीतर घुटन महसूस करती थीं।
लेकिन पति अब इतने- इतने दिनों बाद घर में आते तो उनके सामने कोई कलेश खड़ा करना भी उन्हें अच्छा नहीं लगता था।
जब आगोश रात को देर- देर तक नहीं सोता था तो वो भी बेचैन होकर करवटें बदलती थीं और रात- बिरात मौक़ा देख उसके कमरे में ताक - झांक करने से भी नहीं चूकती थीं।
आज भी जब नींद से जाग कर बाथरूम के लिए उठीं तो आगोश के कमरे की लाइट जली देख पर्दे के पीछे आ खड़ी हुईं।
आगोश रात के सवा दो बजे साजिद से बात कर रहा था फ़ोन पर।