Taapuon par picnic - 37 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | टापुओं पर पिकनिक - 37

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टापुओं पर पिकनिक - 37

आर्यन ने अपनी टीशर्ट उतारी। कमरे की लाइट ऑफ़ की। फ़िर ख़ाली शॉर्ट्स पहने हुए ही बिस्तर के पास लगा लैंप जलाकर पिलो के सहारे अधलेटा होकर कहानी पढ़ने लगा...
"वह झुका हुआ नदी के ऊबड़- खाबड़ किनारे पर मुंह डाल कर पानी पी रहा था। दूर से नंगी आंखों से देखने से वह चमकीले - मटमैले रंग का कोई चौपाया जानवर सा दिख रहा था। शायद सियार या भेड़िया।यहां डरने की कोई बात नहीं थी। क्योंकि वह दूसरे मुहाने पर था। वैसे भी घने जंगल में जानवर जब पानी पीने आते हैं तो उनके तेवर ज़्यादा आक्रामक नहीं होते। क्योंकि एक तो प्यास बुझ चुकी होती है और दूसरे वह समझते हैं कि हम किसी अनजान इलाके में हैं, अतः यहां से जल्दी निकल जाना चाहिए।
लेकिन जैसे ही उसने पानी पीकर भीगा थूथन उठाया राजवीर चौंक गया। भय से नहीं, बल्कि कौतुक से।
चौंकने की बात ही थी। वह जीव पानी पीते ही पलट कर अपने दोनों पैरों पर खड़ा हो गया था। और अब मंथर गति से चलता हुआ घने जंगल में दिख रही उस छोटी पहाड़ी की ओर जा रहा था।
राजवीर पानी में कूद गया और उस नदी को ज़रा आगे से, जहां वो कुछ कम चौड़ी थी, तैर कर पार कर गया।
उसे कुछ दौड़ते हुए वहां तक पहुंचने में ज़्यादा वक्त नहीं लगा जहां अभी - अभी पानी पीकर लौटा वह मानव मंथर गति से चलते हुए अब किसी के दौड़ने की आहट पाकर रुक कर खड़ा हो गया था।
- मुझे क्षमा करें महात्मा। राजवीर ने कहा।
बूढ़े साधु के चेहरे पर एक मंद स्मित उभरी और वह गंतव्य की ओर चल पड़ा। राजवीर उसके साथ- साथ चलने लगा।
दोनों के ही पास एक दूसरे के बारे में जानने की जिज्ञासा भी थी और अपने बारे में बताने की उत्कंठा भी।
राजवीर एक उम्रदराज पूर्व सैनिक था जो पैरा- ग्लाइडिंग करते हुए भटक गया था। उसका यान टूट कर एक मलबे की शक्ल में नदी के दूसरे किनारे के पास पड़ा था और दैवयोग से वह एक पेड़ में उलझ जाने के कारण बच गया था।
वह जंगल में भटक ही रहा था कि नदी पर उसे ये साधु बाबा दिखाई दे गए जिन्हें पहली नज़र में तो वह कोई जंगली जानवर ही समझ बैठा था।
बिल्कुल निर्वस्त्र होने और झुक कर मुंह से पानी पीने की वज़ह से यह भ्रांति हुई।
साधु की कंदरा आ गई थी और पहाड़ की तलहटी में गढ़े एक त्रिशूल के क़रीब उसका द्वार दिख रहा था। कुछ देर बाद शाम के झुटपुटे में एक जंगली खरगोश और कुछ भुनी हुई गिलहरियां खाकर साधु ने पांव फ़ैला दिए।
राजवीर को भी यही परोसा गया।
तारों की छांव में लेट कर अब शुरू हुई संन्यासी की कहानी।
वह लगभग साठ वर्ष से यहां था।
- संन्यास क्यों ले लिया? राजवीर ने सीधे पूछ लिया।
- जीवन में कुछ भूलें ऐसी हैं जिनकी कोई अन्य सजा है ही नहीं, एकांत में उम्र भर प्रायश्चित में जलने के सिवा। वही कर रहा हूं।
- बाबा जी, माफ़ करना, कुदरत की दी हुई ज़मीन पर ही गांव- शहर भी बसे हुए हैं। जो सजा यहां रह कर काटी जा सकती है वही वहां रह कर भी। जब भूल लोगों के बीच हुई तो सजा भी लोगों के बीच रह कर ही काटते।
राजवीर की बात पर साधु निशब्द रह गया।
राजवीर ही फ़िर बोला- वैसे भूल थी क्या?
- अब वो सब दोहराने से क्या लाभ? वो रास्ता पीछे छूट गया।
- बता देने से नुकसान भी क्या? रास्ते तो एक दिन सारे ही पीछे छूट जाने हैं।
राजवीर ने साधु को फिर निरुत्तर कर छोड़ा। आखिर उसकी कहानी जबान पर आ ही गई... साधु ने कहना शुरू किया..
मैं चौदह- पंद्रह साल का था, तब पास के शहर के करीब एक छात्रावास में रह कर पढ़ने के लिए भेजा गया।
वहीं एक थोड़ी मोटी सी गोरी लड़की मुझे अच्छी लगने लगी। सोचा, जीवन भर इसी के साथ रहेंगे।
एक साल बाद लड़की को पढ़ने के लिए कहीं और भेजा जाने लगा।
मेरी दुनिया हिल गई। सोचा, चार- पांच साल में तो ये लड़की मुझे भूल जाएगी।
बाद में किसी और लड़के के रंग में रंगी मुझे मिली भी तो क्या!
मेरे एक दोस्त दलपत ने बताया कि गांव में तो जल्दी ब्याह कर देते हैं, फ़िर पांच- सात बरस बाद गौना करके लड़की को घर लाते हैं।
लेकिन इस बीच बहुत से लड़के- लड़कियों का मन बदल भी तो जाता है, ब्याह मिट्टी हो जाता है। उम्र भर मां- बाप को कोसते हैं!
दलपत ने उपाय बताया- शरीर में अमृत की बूंदें होती हैं, अगर उन्हें पान में डाल कर किसी लड़की को बिना बताए खिला दो तो वो लड़के को कभी नहीं भूलती। कहीं भी रहे, उसी के लिए तड़पती है। गांव में तो लड़के ये आजमाते हैं।
- पर लड़की पान न खाती हो तो?
- उपाय है, उसे किसी भी चीज़ में डाल कर अमृत की वो बूंदें पिला दो!
दलपत तो समझदार था। उसने उपाय भी बताया और ये भी बताया कि अमृत कहां रहता है, उसे कैसे निकालते हैं।
...एक दिन.. अपनी कसम देकर मैंने लड़की को कमरे पर बुला लिया, उससे कहा कि शाम को मैदान में खेलने आए, तब आ जाना।
उस दिन कमरे में साथ रहने वाला लड़का भी अपने घर गया हुआ था।
लड़की मुझे कमरे पर अकेला पाकर घबराए नहीं, ये सोच कर दलपत से भी शाम को आने के लिए कह दिया। दलपत को भी तो देखना था कि उसका मंत्र कैसे काम करता है।
दोपहर बाद मैं छात्रावास के मैस में गया तो नाश्ते में मिली लस्सी एक बड़े गिलास में भर कर रख ली।
लस्सी को मंत्र - सिद्ध करके दो गिलासों में डाल कर ढक कर मेज पर रख लिया।
फिर?
फिर क्या, पाप का घड़ा तो धीरे - धीरे भरना शुरू हो ही रहा था... पर लड़की नहीं आई, आ गए, गांव से मेरे अम्मा- पिता जी!
मैं दौड़ कर नीचे बैठे चौकीदार से कह आया कि कोई अगर मुझसे मिलने आए तो ऊपर मत आने देना। कहना मैं बाद में मिलूंगा।
ये कह कर मैं अपने कमरे में वापस आया तो सामने मेज पर ख़ाली गिलास देख कर मेरा माथा ठनका।
अम्मा पिताजी तो शाम को ही वापस चले गए पर मुझे सारी रात नींद नहीं आई।
मैं सोचता रहा- ये क्या किया मैंने? जिन्होंने मुझे जीवन दिया, उन पर ही जादू टोना कर दिया। उन्हें ही अमृत पिला दिया मैंने? मेरे भगवानों के पेट में जाकर ये अमृत कहीं जहर न बन जाए। मेरी मौत आ जाए...
मुझे तेज़ बुखार आ गया। मैं जलने लगा। एक दिन मैं घर से भाग गया... कभी न लौटने के लिए!
आसमान के तारों को एकटक निहारते साधु ने जब कुछ दूरी पर लेटे राजवीर को देखने के लिए मुंह घुमाया तो राजवीर लेटा हुआ नहीं था, बल्कि चौंक कर उठ बैठा था.. वो अपनी आंखें पौंछ रहा था।
साधु हंसा।
- ये कहानी तो मुझे पता है। राजवीर ने कहा।
... कैसे? कहां से? अब साधु भी उठ बैठा।
राजवीर ने बताया- बाद में दलपत जब सेना में भर्ती हुआ तो उसके पिता ने न जाने क्यों उसका नाम बदल कर राजवीर रख दिया था..
साधु स्तब्ध!
अब राजवीर हंसा।
साधु मुंह फाड़े उसे देख रहा था।
देखता क्या है? अपने भगवान को बता दे कि लस्सी तो दलपत ने नाली में फेंक दी थी। अम्मा- पिताजी तो वहां पानी भी पीकर नहीं गए थे। वो तो तेरा नाश्ते का थैला पकड़ा कर निकल गए थे।
दोनों मित्र बिजली की गति से उठ कर आपस में गले लग गए।
साधु की जटाएं छितरा कर राजवीर के कंधों पर फ़ैल गईं, राजवीर ये भी भूल गया कि उसका मित्र बिल्कुल नंगा है... वह उससे लिपट गया।
पेड़ पर बैठे परिंदे रात के अंधेरे में भी फड़फड़ा कर चहचहाने लगे क्योंकि उन्हें पता नहीं चला कि ज़मीन पर बैठे ये दो बूढ़े हंस रहे हैं या रो रहे हैं।"