साजिद के साथ पढ़ने वाली मनप्रीत कुछ बेचैन थी। न तो उन लड़कों ने उसे फ़ोन ही किया था और न ही उससे मिले। शायद उन्होंने लड़की की बात को गंभीरता से नहीं लिया। मनप्रीत को लगा कि उन लड़कों ने साजिद से कोई बात ही नहीं की होगी। उसे आर्यन पर थोड़ी झुंझलाहट भी हो रही थी कि वैसे तो साजिद का पक्का दोस्त बनता है और अब उसकी मुसीबत में उसकी सुध- बुध भी नहीं ली।ख़ैर, जाने दो। शायद लड़कों की दोस्ती ऐसी ही होती है। अच्छे दिनों में दोस्त, बुरे दिनों में अजनबी!
मनप्रीत ने अपनी एक फ्रेंड को फ़ोन किया और स्कूटी लेकर अकेली ही उसके घर की ओर चल पड़ी। मनप्रीत की फ्रेंड ने फ़ोन पर तो कह दिया कि आ जा, तेरे साथ चलूंगी, लेकिन वहां पहुंचने पर साथ चलने से इंकार कर दिया।मनप्रीत कुछ न बोली। वो जानती थी कि लड़कियों के वादे ऐसे ही होते हैं, क्योंकि उनके ख़ुद के हाथ में तो कुछ होता नहीं, दूसरों की मनमर्ज़ी से चलना पड़ता है। उसके पापा ने पूछने पर उसे कहीं आने- जाने को मना कर दिया था- लड़की पढ़ने जाए और घर वापस आए। बस, इसके अलावा और कहीं आने -जाने की क्या जरूरत है? वो भी अकेले, बिना किसी घर के मेंबर को साथ लिए?मनप्रीत उसकी मजबूरी समझ गई।
पर वो तो घर से ठान कर ही निकली थी कि आर्यन, आगोश, सिद्धांत या मनन साजिद के लिए कुछ करें या न करें, वो ज़रूर करेगी।वह अकेली ही साजिद के घर की ओर चल दी।अच्छा हुआ कि साजिद के अब्बू घर पर नहीं थे। फ़िर भी अब्बू जाने कब लौट आएं, क्या भरोसा? साजिद झटपट कपड़े बदल कर बाहर आया और मनप्रीत को अपने साथ लेकर बेकरी की ओर चल पड़ा। आगे- आगे स्कूटर से साजिद और पीछे स्कूटी से मनप्रीत।साजिद मन ही मन मनप्रीत को देख कर बहुत ख़ुश हुआ। वह पिछले बहुत समय से अपने साथियों में से किसी से भी मिला नहीं था। कम से कम दोस्तों की कुछ खोजखबर तो मिलेगी, कुछ अपनी बात भी कह सकेगा।
वैसे तो अब्बू अब बेकरी पर कम ही आते थे, पर क्या भरोसा, आज ही चले आएं! उसने बेकरी पहुंच कर स्कूटर तो वहीं रख दिया और मनप्रीत को लेकर कुछ दूर के एक पार्क की ओर चल दिया।मनप्रीत स्कूटी चला रही थी और साजिद पीछे बैठा था।
अब वो दिन नहीं रहे थे कि स्कूल में किसी लड़की को देख कर किताब या कोर्स के अलावा कुछ भी बोलने में ज़बान कांपती हो। और जब अकेली लड़की हिम्मत करके इतनी दूर मिलने चली आई हो तो साजिद को भी बदले में उसे कुछ तो चुकाना ही था। आख़िर भीगती मसों का नौजवान लड़का था।
साजिद तेज़ी से दौड़ती स्कूटी के किसी स्पीड ब्रेकर पर उछलते ही मनप्रीत के और करीब खिसक आता। एक बार तो बिल्कुल ही...
वो दिन और थे, जब वो स्कूल में पढ़ा करते थे। स्कूल के बच्चे तो नर्सरी के पौधों की तरह ही होते हैं, एक से, दूर- दूर गमलों में सजे हुए। लेकिन इन्हीं पौधों में बाद में फूल भी लगते हैं और फल भी। इन्हीं पौधों की छांव भी होती है, जब ये पेड़ बन जाते हैं।दोपहर का समय होने से पार्क में ज्यादा लोग नहीं थे। जो थे, वो भी भीड़ - भाड़ से बचते, एकांत ढूंढते से। इनसे क्या घबराना! साजिद ने हाथ पकड़ लिया था मनप्रीत का।
मनप्रीत ने इस तरह पहले उससे कभी बात नहीं की थी। उसे मन ही मन गुदगुदी सी हो रही थी आज साजिद से सारी बात सुन कर।
पहले जब आर्यन ने बताया था तब तो मनप्रीत को विश्वास ही नहीं हुआ था, भला ऐसा भी कहीं होता है? साजिद के अब्बू भी अजीब हैं। उन्होंने बेकरी के नौकर के कहने भर से विश्वास कैसे कर लिया? क्या उन्हें साजिद के चेहरे की मासूमियत देख कर भी ऐसी बात पर यकीन हो गया?छी - छी... उन्होंने इस बात पर इतने बड़े, लंबे- चौड़े, जवान लड़के को मारा?
मनप्रीत मन ही मन मुस्कुराने लगी। उसे ये लग रहा था कि इस निर्दोष ने भी चुपचाप मार खा ली?अपने बचाव में उनसे कुछ कहा नहीं?
पर क्या कहता? अपने पिता को कैसे बताता कि उसने किसी लड़की को नहीं छुआ? और बात केवल छूने भर की कहां थी! इल्ज़ाम तो ये था कि ये किसी लड़की के प्रेम में है। प्रेम ही नहीं, बल्कि शरीर संबंध में है। शरीर संबंध ही नहीं, बल्कि इसने तो अपनी युवावस्था के औजारों से एक नई ज़िन्दगी का बीज ही बो दिया...वो भी एक अविवाहित लड़की के बदन में!
"ओह, ये उसके अब्बू भी!' मनप्रीत शरमा गई। वो हिम्मतवर लड़की जो अकेली ही शहर की सड़कों पर स्कूटी दौड़ाती हुई एक जवान लड़के को अपने पीछे बैठा कर एक सुनसान बगीचे में ले आई थी, ये सब सोच कर सुर्ख हो गई।
आज ज़माना कितना बदल चुका था, आज के लोग किसी के शिकायत करने पर खुद अपने बच्चों को सजा कहां देते हैं। वो तो उल्टे शिकायत करने वाले के ही पीछे पड़ जाते हैं। और अपने बच्चे को तो उसकी ग़लती होने पर भी कुछ नहीं कहते। ... और अगर मामला हिन्दू - मुस्लिम हो, तब तो सवाल ही नहीं कि दूसरे धर्म वाले के लिए अपने धर्म वाले का दोष देख लें। बात की बात में गुटबाज़ी हो जाती है, मोर्चाबंदी हो जाती है, पत्थरबाज़ी हो जाती है! इस तरह भला दूसरे की शिकायत पर अपने बच्चे को कौन मारता है?
तो क्या साजिद के अब्बू इस ज़माने के नहीं? यही सब सोचती हुई मनप्रीत घने पेड़ों की छांव में साजिद के साथ चल ज़रूर रही थी मगर उसका पूरा ध्यान उस ठंडी हवा पर था जो साजिद के माथे के बालों को लहरा कर छितरा देती थी। उस धूप पर था जो ऊंचे पेड़ों की फुनगियों से छन कर पेड़ों के पत्तों के बीच से जगह बना कर साजिद के चेहरे पर पड़ती और फिर ओझल हो जाती। साजिद की उस गर्म हथेली पर था जो मनप्रीत की कलाइयों पर हल्का गुलाबी दबाव बनाती हुई उसकी अंगुलियों को मरोड़ देने की हद तक छू देती थी।
जाने कौन सी भाषा बोल रहा था साजिद! जाने कौन सी उम्मीद- आकांक्षा में सुन रहे थे मनप्रीत के कान!