कन्हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद 22
सन्त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्हर दास जी महाराज कृत
(शास्त्रीय रागों पर आधारित पद.)
हस्तलिखित पाण्डुलिपि सन् 1852 ई.
सर्वाधिकार सुरक्षित--
1 परमहंस मस्तराम गौरीशंकर सत्संग समिति
(डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)
2 श्री श्री 1008 श्री गुरू कन्हर दास जी सार्वजनिक
लोकन्यास विकास समिति तपोभूमि कालिन्द्री, पिछोर।
सम्पादक- रामगोपाल ‘भावुक’
सह सम्पादक- वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त’ राधेश्याम पटसारिया राजू
परामर्श- राजनारायण बोहरे
संपर्कः -कमलेश्वर कॉलोनी, (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर (म0प्र0)
पिन- 475110 मो0 9425715707 tiwariramgopal5@gmail.com
प्रकाशन तिथि- 1 चैत्र शुक्ल, श्री रामनवमी सम्वत् 2045
श्री खेमराज जी रसाल द्वारा‘’कन्हर सागर’’ (डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)
2 चैत्र शुक्ल, श्री रामनवमी सम्वत् 2054
सम्पादकीय--
परमहंस मस्तराम गौरी शंकर बाबा के सानिध्य में बैठने का यह प्रतिफल हमें आनन्द विभोर कर रहा है।
पंचमहल की माटी को सुवासित करने जन-जन की बोली पंचमहली को हिन्दी साहित्य में स्थान दिलाने, संस्कृत के महाकवि भवभूति की कर्मभूमि पर सन्त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्हर दास जी महाराज सम्वत् 1831 में ग्वालियर जिले की भाण्डेर तहसील के सेंथरी ग्राम के मुदगल परिवार में जन्मे।
सन्त श्री कन्हरदास जी के जीवन चरित्र के संबंध में जन-जन से मुखरित तथ्यों के आधार पर श्री खेमराज जी रसाल द्वारा ‘’कन्हर सागर’’ में पर्याप्त स्थान दिया गया है। श्री वजेश कुदरिया से प्राप्त संत श्री कन्हर दास जी के जीवन चरित्र के बारे में उनके शिष्य संत श्री मनहर दास जी द्वारा लिखित प्रति सबसे अधिक प्रामाणिक दस्तावेज है उसे ही पदमाल से पहले प्रस्तुत कर रहे हैं।
कन्हर पदमाल के पदों की संख्या 1052 दी गई है लेकिन उनके कुल पदों की संख्या का प्रमाण--
सवा सहस रच दई पदमाला।
कृपा करी दशरथ के लाला।।
के आधार पर 1250 है। हमें कुल 1052 पद ही प्राप्त हो पाये हैं। स्व. श्री दयाराम कानूनगो से प्राप्त प्रति से 145 पद श्री रसाल जी द्वारा एवं मुक्त मनीषा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समिति द्वारा श्री नरेन्द्र उत्सुक के सम्पादन में पंच महल की माटी के बारह पदों सहित शास्त्रीय संगीत की धरोहर
तीस रागनी राग छ:, रवि पदमाला ग्रन्थ।
गुरू कन्हर पर निज कृपा, करी जानकी कन्थ।।
विज्ञजनों को समर्पित करने एवं मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम के जीवन की झांकी की लीला पुरूषोत्तम श्री कृष्ण का जीवन झांकी से साम्य उपस्यित करने में बाबा कन्हर दास जी पूरी तरह सफल रहे हैं।
डॉ0 नीलिमा शर्मा जी जीवाजी विश्व विद्यालय ग्वालियर से शास्त्रीय संगीत की धरोहर कन्हर पदमाल पर शोध कर चुकी हैं।
सन्त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्हर दास जी महाराज का निर्वाण एक सौ आठ वर्ष की वय में चैत्र शुक्ल, श्री रामनवमी रविवार सम्वत् 1939 को पिछोर में हुआ।
नगर निगम संग्रहालय ग्वालियर में श्री कन्हर दास पदमाल की पाण्डुलिपि सुरक्षित वसीयत स्वरूप रखी हुई है। श्री प्रवीण भारद्वाज, पंकज एडवोकेट ग्वालियर द्वारा पाण्डुलिपि की फोटो प्रति उपलबध कराने में तथा परम सन्तों के छाया चित्र उपलबध कराने में श्री महन्त चन्दन दास छोटी समाधि प्रेमपुरा पिछोर ने जो सहयोग दिया है इसके लिए हम उनका हृदय से आभार मानते हैं।।
पंचमहली बोली का मैं अपने आपको सबसे पहला कवि, कथाकार मानता था लेकिन कन्हर साहित्य ने मेरा यह मोह भंग कर दिया है।
इस सत् कार्य में मित्रों का भरपूर सहयोग मिला है उनका हम हृदय से आभार मानते हैं। प्रयास के बावजूद प्रकाशन में जो त्रुटियां रह गई हैं उसके लिए हम सुधी पाठकों से क्षमा चाहेंगे।
रामगोपाल भावुक
दिनांक 16-4-97 श्री राम नवमी सम्पादक
राग – भोपाली
ऐसौ तानौं तानौं, न होइ आनौं जानौं।।
राम नाम कौ सुमिरन करि लै, यही सीख मन मानौ।।
जग में और उपाइ न दूजौ, बहु तक कहौं कहानौं।
कन्हर तकौ सरन रघुवर, कौ, बरबस नहिं उरझानौं।।719।।
हरि सम और न दीसत कोई।।
जग स्वारथी गति नहिं दूजी, निसि बासन हित गोई।।
काम क्रोध बस जन्म गमायै, विषय वासना भोई।।
दीनानाथ दीन के बंधू, तिन्ह कह कबहूं न जोई।।
रहौ अचेत चेत नहिं आयौ, तन इत दुर्लभ खोई।।
कन्हर राखौ लाज कृपानिधि, वानै की अब सोई।।720।।
राम नाम बिन जीव मलीना।।
कहा भयौ तन भस्म रमायो, उजरे तस्तर कीना।।
कहा होत है तनखो खेते, किये कहा तन छीना।।
कन्हर भजन बिना रघुवर के, वृथा जनम जग जीना।।721।।
सुमरि हरि तन बारू की भीति।।
छिन एक भिन्न होत नहिं लागत, समझि लेउ अस नीति।।।
जग सपनौं अपनौ नहिं कोई, सुपनै कैसी रीति।।
कन्हर समझि – समझि कहत है, करौ प्रभु पद प्रीति।।722।।
राग – देस, ताल – त्रिताल
फूटे घट जौं पानी, आयुष गति जानी।।
छिन – छिन छीन होत निस बासर, परत नहीं पहिचानी।।
रंक होत सुपनै मैं दंपत्ति, झूमत गज मनमानी।।
जागत जात रहत कछु नाहीं, ऐसेई जग सुख सानी।।
झूठी तान तनी इह मन की, भ्रम बस बसि बौरानी।।
कन्हर नाम लेत रघुवर कौ, पार परत भव प्रानी।।723।।
सब जग ठगि – ठगि उदर भरै।।
करि परपंच लगावत घातैं, जातै द्रव्य हरै।।
नीति अनीति करत निसि बासर, मन मैं नहीं डरै।।
कन्हर सुमिरि राम पद पंकज, तासौं काज सरै।।724।।
येक निमिष मुख राम कहै ते।।
पार होत भव बार न लागति, सुंदर नाम लहै ते।।
निरभय रहत बहत वह मारग, नहीं जमदूत सहै ते।।
कन्हर राम कृपा करि हेरे, फेरे जात बहेते।।725।।
सीतापति गुन गावै, सकल सुख पावै।।
देस सुदेस वेस वह सुंदर, मन कह मोद बढ़ावै।।
और आस विसवास वास तजि, अह निसि बासन धावै।।
कन्हर राम नाम के सुमरै, जग ठग निकट न आवै।।726।।
राग – झंझौटी।।
करै हित अब तब सीता राम।।
दुर्लभ मुक्ति कृपा करि दीनौ, लीनौ कह पथ बाम।।
यक दिन गमन होइगौ मन रे, ता दिन परिहैं काम।।
कन्हर राम कहत तन गढ़ की, तजि भाजै अघ लाम।।727।।
जग में जीवन वारि बतासा।।
सुत दारा के हेत भुलानौं, मानि रहौ विस्वासा।।
उपजत विनसत देर न लागत, सोई नर निमिष निवासा।।
कन्हर सुमिरि राम पद पंकज, झूठौ ख्याल तमासा।।728।।
जातन जातन जौंनी सुमरि हरि प्रानी।।
दिन दस गये धूरि मिलि जैहें, संगत जे पहचानी।।
वा दिन कौ कोऊ नहिं साथी, बांधि लेई जम तानी।।
कन्हर समझि कहत मैं तो सों, कर करि लेउ निसानी।।729।।
राग – सोरठा
सुमरि हरि मानि लै एक बात।।
बारू कैसी भीति छिनक में, विनसि जाइहै गात।।
औसर बीतै फिरि पछतैहै, संग न कोई जात।।
कन्हर रघुवर नाम काम तरू, झूठौ जग कौ नात।।730।।
हरि सुमिरे तोई हित तोरा।।
काम क्रोध मद लोभ हनै, अरू सिमिटि भये इक ठौरा।।
अपनी – अपनी बात सोच में, करि दैहैं मन बौरा।।
कन्हर वा दिन दीसत नाहीं, ये पापी सब चोरा।।731।।
राग – सारंग
हरि करि हेतु सुदामा हेरौ।।
लाघव मिले कृपा करूनानिधि, दुख दरिद्र सब फेरौ।।
कुसल पूछ बहु विधि पूजन करि, आनंद हरष घनेरौ।।
कन्हर छिन मैं सकल संपदा, दई करौ नहिं देरौ।।732।।
हरि गुन हरि के दास कहैते।।
दुख सुख अपमान बड़ाई, सम करि सदा लहैते।।
सीतल अंग बंग मारग तजि, ऐसी गहनि गहैते।।
कन्हर ऐसे संत मिलन ते, नहीं जम दंड सहैते।।733।।
राग – भैरवी
न होइगौ और किसूसे काम।।
सुंदर देह नेह बस खोवे, निस दिन आठौ जाम।।
जे कोऊ संग सहाइ न करिहैं, सुत वित चित हित बाम।।
कन्हर समझिकह जात जक्त सों, सुमिरौ सिय वर राम।।734।।
राग – सारंग
रघुवर चित्रकूट चितरायौ।।
गोबरधन द्रोणाचल सुंदर महिमा, सुचि श्रुति गायौ।।
ऋष्यमूक श्री कपिल देव गिरि, मलप्रच्छ सुहायौ।।
कूटक रिषभ त्रकूटक कुंभवर सत्य को लक गुरूवायौ।।
पारिपात्र रैंचत विंद्याचल, गोका मुख तै ठायौ।।
नील रिष्य गिरि इन्द्रकील कर, मैनांक हरषायौ।।
कन्हर सुमिरि और वर सुंदर, पुन्य होइ अधिकायौ।।735।।
हरि के दरसन कौं दृग तरसौ।।
निसि – बासर पल कल न परति है, बिना चरन रज परसै।।
हमरी सुधि बिसराइ दई री, निबही तहां कर करसै।।
कन्हर हरि छवि बिसर गई, वे बातें उर अरसैं।।736।।
राग – झंझौटी
मेरी जनक तनक सुधि लीजो।।
अपनौं जानि कृपा कर हेरौ, मुक्त भरम है रीजो।।
बार – बार अब अरज यही है, भक्ति दान मोहिं दीजो।।
कन्हर युगल बरन रति मांगत, निज किंकर सम कीजो।।737।।
राम नाम गुन गानौ दिन ता दिन जानौं।।
निकसि जात फिरि आवत नाहीं, कैसी भूल भुलानौं।।
सुंदर देह नेह बस खोवै, जोवत जन्म सिरानौं।।
कन्हर राम नाम के सुमरै, छूटत है तन तानौ।।738।।
निबलनि के बल राम हरी।।
जा दरबार देर नहिं लागति, राखत कर पकरी।।
ऐसौ और कृपाल न दूजौ, अब तौं समझि परी।।
कन्हर नाम लेत इक छिन में, सुधरति है बिगरी।।739।।
राग – झंझौटी
कहि – कहि राम पार हो जाना।।
निसि बासर विषयनि के संग में मति तूं फिरै भुलाना।।
कछू कहत फिरि कछू करत है, आयौ प्रभु तजि माना।।
कन्हर राम नाम की महिमा, निगम अगम गुन गाना।।740।।
पावै सुख राम पद हेरे।।
अन तन ही विश्राम लहैगो, कहत ताइ मेटे रे।।
काम क्रोध मद लोभ मोह सब, आवत नहिं फिरि नेरे।।
कन्हर भजौ सिया रघुवर कौं, समझि परै तौ तेरे।।741।।
अधम जग और कौन मोंसौ।।
दीन जानि अपनाइ लियौ, हरि स्वामी को तोसौ।।
आदि अंत कोऊ दीसत नाहीं, ता दिन तुम्ह पोसौ।।
कन्हर सुमिरि सिया वर सुंदर, दूजौ नहीं भरोसौ।।742।।
सिया वर सुरति वेगि कीजौ।।
मैं तो बार – बार विनयौ हरि, अपनौ करि लीजौ।।
भक्ति विराग येक नहिं मेरे, तापर तुम्ह रीझौ।।
कन्हर दीनदयाल नाम सुनि, तुम्ह सौं हठि कीझौ।।743।।
राग – सारंग
छवि रघुवीर की बसी हो।।
कुंडल लोल कपोलनि झलकत, मुक्तनि माल लसी हो।।
अधर अरून लोचन रतनारे, चितवत चितहिं कसी हो।।।
कन्हर फंद वंद बार तू बंद, मन मृग मनहु फसी हो।।744।।
सुन्दर सीतापति पद हेरौ।।
भव सागर आगर को उतरत, लागै गो नहिं देरौ।।
जाते अधिक नीक कुछ नाहीं, कहा मानि लै मेरौ।।
मंद बंध फिरि आवत नाहीं, आनंद होत घनेरौ।।
ध्यान धरत जन हेत होत है, लागै नहिं भट भेरौ।।
कन्हर नाम लेत रघुवर कौ, जमपुर तजै बसेरौ।।745।।
हेरौ रघुवीर जनक किसोरी।।
और आस विसवास छाडि़ कै, लगि जा रे वा ओरी।।
काम क्रोध लोभादि मोह मद, नहिं करिहैं बरजोरी।।
कन्हर कहौ कहौ नहिं करिहैं, सो बंधिहैं जम डोरी।।।746।।
राग – तार तिताल
सुमिरौ कौसिल्या सुत रामै।।
अबकौ कहा करै मति ऐसे, त्यागि – त्यागि मद कामै।।
अहौ सुख मानि लेउ अब सुंदर, प्रीति तू भ्रम नसामै।।
कन्हर निरखि राम पद पंकज, छोडि़ – छोडि़ पथ बामै।।747।।
मन तैं सीयराम जपि सुमरे।।
दिनि जिनि जपौ पार ते उतरे, अजामेल गनिका गज रे।।
सदना सुपच नाम जिनि लीनौं, व्याध भील मृग से उबरे।।
कन्हर प्रभु अनेक भक्तन कौं, राखे सरन अभय सबरे।।748।।
राग – देस, ताल – जत
मन तैं धावत वाही ओर।।
प्रभु के चरन हृदै नहिं ल्यावत, नीच कर्म लागी मति तोर।।
ग्यान धर्म तोकौं नहिं भावत, अधमनि निस दिन पागी घोर।।
कन्हर मन विश्राम न पावत, बिना भये सियवर की ओर।।749।।
मन नहिं लागत प्रभु की ओरा।।
काम क्रोध लोभादि मोह मद, कठिन करैं बरजोरा।।
एक विनय करतु दिन राती, मानत नहीं कठोरा।।
कन्हर प्रभु के सरन भये ते, भागिहिं भव चोरा।।750।।
भल मन मेरे मानि सिख मोरी।।
तूं प्रभु कौ गुन बिसारि गयो है, काल ग्रसति मति तोरी।।
जब जमदूत फांस बांध लिहैं, बांधि पकरि बरजोरी।।
कन्हर आई चेति सबेरौ, राखै चरन सरन गहि छोरी।।751।।
फिरि मन मूढ़ पंक लिपिटानौं।।
मेरौ कहौ तोय नहिं भावत, फिरि – फिरि कै रूचि मानौं।।
सुभ करमनि कौ पीठि देतु है, नीचनि संग भुलानौं।।
कन्हर प्रभु सुधि भूल गई है, काल आय नियरानौ।।752।।
रे मन मूंढ़ विनय नहिं मानौं।।
कर्मन दिन में बहत रहत है, भर्म भौंर उरझानौं।।।
लहरि मनोरथ फिरति रहति है, काम कमठ गहि तानौं।।
कन्हर राम नाम नौका गहु, जौ तोहि पार उतरिबै जानौ।।753।।
राग – झंझौटी
मूढ़ मन मति लादै बहु भार।।
विनय के कर कहौ न पश्चद, सद हृदयै सिव बार।।
नाव पुरानी लोहा लादी, अगम बहत भव धार।।
कन्हर राम मलाह उबारौ, खेइ लगावौ पार ।।754।।
राम सुमिरन मन क्यौं न किया रे।।
सुंदर देह पाय या जग में, कहा लाभि तैं भरम लिया रे।।
खरचि चलौ कछु हाथ न राखौ जन्म वृथा तै खोइ दिया रे।।
कन्हर बिना भजन रघुवर के, कारन किहि तूं लागि जिया रे।।755।।
प्रभु की ओर मन क्यों नहिं लगिया।।
फिरतु रहतु करमनि कौं पैरौ, राम रंग नाहिं रंगिया।।
वा दिन की तोहि खबरि नहीं है, लोभ मोह मद पगिया।।
कन्हर बिना कृपा सियवर की, भव की भय नहिं भगिया।।756।।
मन मेरे हरि कौं जपना रे।।
जब ते लगन लगी या मन में, फिरि पीछे जब क्यों तकना रे।।
सकल देखि मति भूलै अब तूं, समझि सियावर जपना रे।।
कन्हर छोडि़ – छोडि़ जग के भ्रम, राम भजन में तू पगना रे।।757।।
मन मानौं हरि ओर तकौ रे।।
भव सागर की लोभ लहरि में, सब जग जातु बहौ रे।।
पूरौ नाम प्रभाव जगत में, कहि – कहि पार लगौ रे।।
कन्हर जाइ वादि दिन बीते, रसना राम कहौ रे।।758।।
सुनियै अरज रघुवीर पियारे।।
यह मन मूढ़ कहौ नहिं मानत, देत सिखावन निस दिन हारे।।
भ्रमत रहत यह हारि न भानत, हर पल विषयन पग डारे।।
कन्हर जग की लोभ लहरि महं, पल – पल उलझि परा रे।।759।।
रे मन हरि कौ है बल सांचौ।।
और आस बिसवास छोडि़ करि, राम चरन उर राचौ।
जिन ने ध्यान धरौ निसि बासर, सो जग की भय बाचौ।।
कन्हर जाते जपौ निरन्तर, झूठौ नाच न नाचौ।।760।।
मन मेरे मानौं सिख मोरी।।
तेरो को काकौ अब तूं, लखि तकौ सियावर ओरी।।
बीधौ फंदनि सुरझत नाहीं, बंधौ मोह बरजोरी।।
कन्हर भूलौ फिरत रैनि दिन, कृपा बिना प्रभु तोरी।।761।।
मन तूं राम नाम नहिं राचौ।।
जो राचौ सो पार उतरि गयौ, फिरि – फिरि नाच न नाचौ।।
ध्रुव प्रहलाद विभीषन राचै, जिनि जस वेद करौ अस साचौ।।
कन्हर कह प्रभु भव कौ तरना, बिन तुव शरन न जाचौ।।762।।
मन रघुवर को क्यों बिसरायौ।।
भूलि गयौ सठ नीच मीच कौं, नाहक काल गमायौ।।
सुत वित नारि चलैं काके संग, झूठौ बन्धन लयायौ।।
जिनि भूपति सुर राज बांधि करि, अपनी बांह बसायौ।।
ते सब बंधि गये जम फांसिनि, कठिन काल सो खायौ।।
कन्हर भजौ सियावर सुन्दर जे, है मन मंदिर में छायौ।।763।।
तब मन श्री हरि पद रति राहो।।
जब तजि विषय विकार सार भजि, राम चरन उर लयाहौ।।
और आस बिसवास छाडि़ सब, सुंदर गुन गन गाहौ।।
कन्हर सुगम सदा यह मारग, चलत अंत सुख पाहौ।।764।।