आस्था का धाम काशी बाबा 7
(श्री सिद्धगुरू-काशी बाबा महाराज स्थान)
( बेहट-ग्वालियर म.प्र)
वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त
समर्पण-
परम पूज्यः- श्री श्री 1008
श्री सिद्ध-सिद्द्येशवर महाराज जी
के
श्री चरण-कमलों में।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
दो शब्द
जीवन की सार्थकता के लिये,संत-भगवन्त के श्री चरणोंका आश्रय,परम आवष्यक मान
कर, श्री सिद्ध-सिद्द्येश्वर महाराज की तपो भूमि के आँगन मे यशोगान,जीवन तरण-तारण हेतु
अति आवश्यक मानकर पावन चरित नायक का आश्रय लिया गया है,जो मावन जीवन को
धन्य बनाता है। मानव जीवन की सार्थकता के लिए आप सभी की सहभागिता का मै सुभाकांक्षी
हूं।
आइए,हम सभी मिलकर इस पावन चरित गंगा में,भक्ति शक्ति के साक्षात स्वरूप
श्री-श्री 1008 श्री काषी बाबा महाराज बेहट(ग्वालियर) में
गोता लगाकर,अपने आप को
धन्य बनाये-इति सुभम्।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
तृतीय भाग-
आठ अंग में बटा है,राजयोग को जान।
यमः,नियम,आसन सहित,प्राणायामहि मान।।
नित प्रति प्रत्याहार कर,धारणा,ध्यान,समाधि।
निर्णायक सुचिता सदा,मिटै आधि और व्याधि।।
अहिंसा,सत्य,अस्तेय मिल,ब्रह्मचर्य,अपरिग्रह लेख।
पालन हो इन सबन का,यम के अंग विशेष।।
शौच,संतोष,तपस्या,स्वाध्याय प्राणिधान।
आत्म समर्पण ईश प्रति,नियम साधना मान।।
आसन,बैठन प्रणाली,संयम,प्राणायाम।
मन को अंर्तमुख करण,प्रत्याहारहि जान।।
मन का धारण इक जगह,यही धारणा लेख।
अति-चेतन की अवस्था,ध्यान समाधि देख।।
इनका विस्तृत क्षेत्र है,समझ करो दिन रात।
मन,देही हो शक्तिवर,कर अंतर्मन ज्ञात।।
सब कुछ होता ज्ञात है,यह अंदर विज्ञान।
जो इसको धारण करै,जानै वह, यह ज्ञान।।
प्राण संयमन जहाँ हो,वह है प्राणायाम।
अन्तः क्रिया जान ले,इसका नियमन मान।।
संसारी सब वस्तुऐं, होती है आधीन।
इसके नियमन से बनें, योगी-योग प्रवीण।।
योगी जन इस क्रिया से, होते शक्ति महान।
प्राण संकुचन विधि से, बशीभूत जग जान।।
जेहि विधि संचालित रहे,वाष्पीय का यंत्र।
प्राण-वाष्प का संयमन,राजयोग का तंत्र।।
कुण्डलि शक्ति जब जगे,मनस्तर खुल जाँय।
कई सोपानों पार कर,मस्तक चक्रहि पाय।।
तब योगी हो जात है,मन-शरीर से दूर।
मुक्त अवस्था होत यह,यही प्राण का नूर।।
मेरू-मज्जा गठन है,जिम हो अष्टम अंक।
दो शून्यों का संघटक,अष्टम भाव मयंक।।
बाँया पथ है इड़ा का,दाहिन पिंगला जाय।
शून्य नली है सुषुम्ना,अष्ट कमल दर्शाय।।
दो प्रवाह स्नायु के,बहिः अन्र्तमुख देख।
कर्मात्मक,ज्ञानात्मक,यही योग की रेख।।
केन्द्र प्रसारी एक है,केन्द्रःगामी एक।
इक अंगो में जात है, दूसरि मस्तक लेख।।
मेरू मज्जा मस्तिष्क जा,अण्डाकार में लीन।
मस्तक से संयुक्त नहिं, बल्व-मेढुला चीन।।
बल्ब मैढुला तैरता,मस्तक तरल पदार्थ।
सिर आघाती-घात को, बिखरा देत तदर्थ।।
सब परमाणु एक दिशि, होते जब गतिशील।
विद्युत गति उसको समझ, यही योग का व्हील।।
प्राणायाम की क्रिया को, इसी भाव से देख।
स्वाँस और प्रस्वाँस की, यही शक्ति है,लेख।।
एकमुखी हो मन जभी, दृढ़ इच्छा के साथ।
मूलाधार हो अवस्थित,कुण्डलि शक्ति दिखात।।
महाकाश का दृश्य जब,चिताकाश दिखलाय।
सब अनुभूति शून्यवत,चिदाकाश कहलाय।।
कुण्डलनी का जागरण,तत्व ज्ञान पा जाय।
चेतन अनुभूति यही,आत्म साक्षात्कार कहाय।।
आत्म साक्षातकार से जीव का,हो जाता कल्याण।
इसे करो प्रण-प्राण से, राजयोग -विज्ञान।।
चतुर्थ भाग-
निर्दिष्टी परिमाण में,स्वाँस क्रिया को साध।
ओम् शब्द उच्चार कर,मिटैं सभी,तन व्याधि।।
ग्रीवा,मस्तक,वक्ष,त्रय,बैठ एक ही सीध।
ध्यान करो स्वछंद हो,मेरूदण्ड कर सीध।।
मुँख काँति उद्दीप्त हो,मृदु वाणी हो जाय।
मन में शान्ती प्राप्त हो,बाहर शांति दिखाय।।
इड़ा स्वाँस दे फेफड़न,मन को कर एकाग्र।
कुण्डलिनी की शक्ति से,मूलाधार हो उग्र।।
करो पिंगला वापसी,दाहिन नथुने द्वार।
मूल-सुषुम्ना घात से,प्राणायाम व्यापार।।
इसी क्रिया से साधना,हो कुण्डलनी जाग।
ज्ञान द्वार खुल जाऐगे,हो विद्वान विभाग।।
अन्य जगत के जीव में,रहे सुषुम्ना बंद।
क्रिया अनुभव नहीं मिले,यही योग अनुबंध।।
द्वार सुषुम्ना जब खुले,शक्ति ऊध्र्व गति पाय।
मन अतीन्द्रय होय तब,अति चेतन हो जाय।।
मूलाधार का चक्र ही,पूर्ण शक्ति अधिष्ठान।
सहस्त्र सार तक जाएगा,बनैं मस्तिष्क महान।।
धर्म -वीर होते वही, ब्रह्मचर्य जो साध।
सर्वश्रैष्ठ इससे बने, योगी साधन साध।।
मन वश में हो जाय जब, सब इच्छा मिट जाय।
सब इन्द्रिन व्यापार का, कहीं नाम नहि पाय।।
प्रत्याहार की क्रिया ही, कष्ट निवारक होय।
मन से सारे दुःख है, मन से सब कुछ होय।।
मन चंचल जिम वानरा, बासना मदिरा पान।
ईष्र्या-बिच्छु डंक दे, अहृ- दानवा यान।।
बस में करना तब कठिन, करै बहुत उत्पात।
सधै साधना डोरि से, नाच सकै एहि भात।।
प्रत्याहार का अर्थ है, वर्हिगति मन की रोक।
मुक्त इन्द्रियन से करै, अंतर मन वे-टोक।।
अर्थ धारणा का सही, मन कही स्थिर होय।
ज्योति बिन्दु से जोड़ दो, कर पाते कोय-कोय।।
टिके धारणा बिन्दु पर, कई लक्षण से जान।
घंटा ध्वनियों में सुने, तरण प्रकाश विधान।।
इसी किरिया से धारणा, मन को शक्ति देंय।
मन की धारण शक्ति ही, वस योगी कर लेंय।।
योगी जन कहते यही, मन गति उच्च जो होय।
अति चेतन वह ठौर है, जहाँ तर्क नहीं कोय।।
मन जब अन्र्तदेहि में, स्थिर कही पर होय।
शक्ति वहाँ पर जो मिलै, ध्यान कहै सब कोय।।
उच्चोत्तम वह अवस्था, ध्यान नाम से जान।
तहाँ वासना नाम नहिं, आनंद अनुभूति मान।।
विशय-शून्य,निर्विकल्प मन, मन गति ध्यानालीन।
निज स्वरूप को जान ले, नाम समाधि दीन।।
कर्मबीज हो दग्ध तहाँ, सारे दुःख मिट जाँय।
आत्म मुक्त ही होय तब, योग समाधि पाँय।।
बीज जले तप अग्नि में, मिटै सकल व्यौपार।
अगमन-निगमन भी मिटै, यहीं जीव उद्धार।।
मन हो निर्मल और सत, कर अभ्यास,विचार।
बुद्धि विवेकी होय तब, वृत्ति निरोधक सार।।
चित्त में उठै तरंग जब, कुछ क्षण होवैं शान्त।
कुछ बनते संस्कार तब, वह आदत का काँत।।
वही आदत सुख दुःख बने, करो सुखद से प्रीति।
इस सुधार से ही बनैं, सत चरित्र की रीति।।
वसीभूत हो प्रकृति तहाँ, वह शक्ति ऐहि माहि।
कहते है विज्ञान जन, सम्प्रज्ञाति ही ताहि।।
एहि चिंतन में जब रमे, इक विदेह का रूप।
देही से रहता अलग, चरम लक्ष्य अनुभूति।।
मन में उठता भाव जो, उसका भी प्रतिरूप।
शब्द निहित जो भाव है, वह उसके अनुरूप।।
वाचक ध्वनि है ओम यह, सब ध्वनियों का मूल।
इससे हटकर कुछ नहीं, इसे कभी मत भूल।।
लहरै जब तक रहैगीं, चित्त सरोवर माहि।
आत्मा का सत रूप वह, कभी देख न पाहि।।
ऐसा एक लहरा बना, निगल जाय सब लहर।
यह निर्वीज समाधि है, जहाँ न अन्यक लहर।।
इन्द्रिन घोड़े,देहि रथ, बुद्धि सारथि,मन डोरि।
आत्म रथी हो जब चले, सब संयत हो तोरि।।
पाँचमा भाग-
संयत हो जब इन्द्रियाँ, तब योगी जय पाय।
सब कुछ हो आधीन तहाँ, परमानंद हो जाय।।
मन एकाग्री जहाँ बने, बाहर भीतर देख।
क्षण अथवा वहुयाम तक, यही धारणा लेख।।
मन की हो जहाँ धारणा, वहीं व्यवस्थ्ति होय।
यही अवस्था कई क्षणों,ध्यान कहावै सोय।।
जहाँ वस्तु निःरूप हो, अरू परित्यक्त दिखाय।
यही ध्यान संग धारणा, सत समाधि हो जाय।।
होय विवेकी ज्ञान जब, सभी अवस्था बीच।
सत्य पुरूष सम भाव हो, तब कैवल्यहि खींच।।
चतुर्विधा से प्राप्त हो, सभी सिद्धियाँ जान।
जन्मोषधि तप मंत्र भी, साथ समाधि मान।।
निज सरूप में लय जभी, दृष्टा ही हो जाय।
उसे कहे प्रतिलोम क्रम, या कैवल्य कहाय।।
जहाँ आत्मा नियति संग, नाचे नाना भेष।
उसे त्याग खुद में खुदी,वह कैवल्य विशेष।।
निज सरूप् जहाँ प्राप्त हो, रूप पाथेय कहाय।
जहाँ से आया वहाँ गया, यह कैवल्य बताय।।
विलग बूँद ,जब जा मिले, निज सागर में जाय।
त्याग थपेड़े नियति के, तहाँ कैवल्य सुहाय।।
इसे कहैं सत जन सदाँ, जीवन का सत मूल।
आत्म मोक्ष का रूप यह, कैवल्य पद मत भूल।।
आओ इस पथ चल पडें, त्याग सकल जंजाल।
खोजो अपने आप में, है मनमस्ती ख्याल।।
एकीभूत हो जाय जब, भूत भविष्य वर्तमान।
वही अवस्था जानिए, मन एकाग्र सुजान।।
अनंत शक्ति भण्डार है, मानव कर यह रूप।
योगी बन खोजन करो, होता सब तद रूप।।
योग मार्ग में सिद्धियाँ, आतीं अपने आप।
पाँय उच्चतम ज्ञान तब, इन्हें त्याग कर जाय।।
आत्मा प्रकृति भिन्न है, चित संयत कर देख।
प्रतिभ ज्ञान पाता तभी, राजयोग आलेख।।
योगी संयम नियम से, सिद्ध होय तब जान।
मृत-जीवित में प्रविष्ट हो, करैं कार्य यह मान।।
निज स्नायुविक प्रवाह से, योगी हो जब मुक्त।
तभी अन्य तन प्रविश हो, कार्य करै निज युक्ति।।
कैवल्य लक्ष्य पर पहुँच कर, एकल आत्मा होय।
यही- पुर्णता- रूप है, निर्गुण- होवत सोय।।
आत्मा का संबंध जब, होय गुणों से दूर।
प्रतिलोमी क्रम तहाँ चले, यह कैवल्य है नूर।।
राजयोग में निहित है, सभी योग विज्ञान।
साध साधना इसी क्रम, होगा तूँ भी महान।।
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