आधुनिक समय में परिवारों का सामूहिक व एकत्रित चलन बिखरा है। संयुक्त परिवार टूटकर एकल परिवार में तब्दील हुआ है। पारिवारिक सामंजस्य स्थापित न हो सका है। इस कारण आज प्रायः हर घर में वृद्ध अकेला है और उनका बेटा अकेला है। ऐसा नहीं है कि घर के बुजुर्ग हमेशा अपने बच्चों पर हावी रहने की कोशिश करते हैं। बुजुर्ग बच्चों के सहयोगी ही बनने में लगे रहते हैं। हो सकता है कि कुछ माँ-बाप हावी होते हों । वे स्वयं को गर्वान्वित महसूस करते हों। ऐसा किसी के सामने वे करते भी होंगे। छोटी उम्र के बच्चों की बात शायद अलग हो सकती है पर बड़े बच्चों के साथ तो माता-पिता अपनी जान लुटा देने को तैयार रहते हैं।
वाणी देवी। ख़ुशी से जीवन अपने पतिदेव अभिमोहन जी के साथ बिता रही थी। वे झारखंड राज्य के छोटे से कस्बे में रहती थी। अभिमोहन जी अवकाश प्राप्त थे। पहले उन्होंने कोयले के खदान में कार्य किया था।
इन दोनों के तीन संतानें थीं। तीनों का अपना परिवार था। बड़ी बिटिया अपनी शानदार जिन्दगी जी रही थी। अपने बगीचे की देखभाल में लगी थीं। दूसरी बेटी कहीं पूर्वोतर के पहाड़ी राज्य में रहती थीं। पतिदेव शायद किसी निजी विद्यालय में शिक्षक थे। अपने परिवार के भरण-पोषण में उलझी रहती थीं। एकलौता पुत्र जो दिल्ली की किसी बहुराष्ट्रीय निगम में उच्च पद पर था।
माता-पिता की कोशिश रहती है कि वे अपने बच्चों को हर वो चीज मुहैया करवाएं, जो उन्हें हासिल नहीं हुई। चाहे वह अच्छे स्कूल में पढ़ाई हो, या वीडियो गेम्स, आलीशान बर्थडे पार्टी हो या विदेश की सैर। बच्चों को बिना मांगे बहुत कुछ मिलता है। बच्चे अंधाधुंध प्रतियोगिता, माता-पिता की बढ़ती अपेक्षाएं और अपने आप को साबित करने का दबाव झेलने में लगे।
इन दोनों ने अपनी संतानों के विकास पर काफी ध्यान दिया। तीनों की तालीम की मुकम्मल व्यवस्था की। रात-दिन जागकर परेशानी उठाकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन काफी समझदारी से किया। एक आशा उनके मन में लगी रही कि बुढापे में ये तीनों शायद सहारा बनेंगे।
अभिमोहन जी को शायद आशा न भी रही हो मगर माँ वाणी देवी को आशा अवश्य थी, क्योंकि माँ आखिर में माँ होती है। माँ का आंचल एक शाति देता है। इस प्रकार की शांति शायद मंदिर जाने में भी न मिलती हो। लोग मंदिर जैसा देखा है या सुना है – पैदल तीन-चार-सात दिनों तक चलकर जाते हैं। शायद सात दिन भी कम कह दिया, सुनने में आया है कि शबरीमला मंदिर एक महीने के उपवास के बाद जाते हैं। यदि संतान अपनी माँ से दूर जाने की बात करता है तो उस माँ के ऊपर क्या बीतती है , वह माँ ही जान सकता है।
इसी प्रकार की आशा को लेकर वाणी देवी जी अपना जीवन गुजार रही थीं। कोरोना काल चल रहा था। कोरोना अपनी विभीषिका को दिखा रहा था। लोगों का घरों से निकलना मुश्किल था। इस बीच एक भयानक हादसा हो गया। वे स्नानघर में फिसल गयीं। वे गिर पड़ीं। ऐसी गिरी कि चलना-फिरना मुश्किल हो गया। अभिमोहन जी घबरा गए। पास में ही रह रही अपनी बड़ी बिटिया को बुला लाए। बड़ी बिटिया ने देखा तथा प्राथमिक उपचार कर दिया।
अब कार्य करने में दोनों वृद्ध जनों को काफी परेशानी हो रही थी। बड़ी बेटी काफी समझदार थी। क्या करती? थकहार अपने यहाँ से तीनों जून का भोजन बनाकर अपने माँ-पिताजी को भेजती। आखिर उनका भी संसार था। वे भी अपने बगीचे को सींचने में लगी हुई थी। इस प्रकार एक सप्ताह बीत गया।
आज के समय से बिलकुल अलग जिंदगी वे जीते थे। संयुक्त परिवार में रहे। कई बच्चों की भीड़ में वे दोनों पले-बढे थे। समय पर खाना मिल जाता था और डांट भी। उस जमाने में मां की भूमिका मूलत: घर संभालने की ही होती थी। बच्चों की परवरिश में उनका दखल न के बराबर रहता था। उस समय के अधिकांश पिता अपने बच्चों के साथ एक दूरी बना कर चलते थे। घर में एक अनुशासन बना रहता था। बच्चे अपनी रोजमर्रा की दिक्कतें या उलझनें अपने दोस्तों या अपने हमउम्र बच्चों से बांटते।
अभिमोहन जी के तीन भाई तथा चार बहनें थीं। सभी आपस में एक से बढ़कर एक। किसी को भी बोलने में हरा पाना अत्यंत दुरूह कार्य था। वे सातों भाई-बहन जहाँ भी आपस में मिलेंगे तो सभी को पता चल जाएगा कि कौन बोल रहा है? सबसे बड़ी बात यह थी कि वे सभी आपस में ही एक-दूसरे का टांग खींचने का कार्य करती थीं। इस बात का उन्हें पता नहीं चलता था। मगर थे तो आपस में भाई-बहन। मिलजुल कर रहते थे। अभिमोहन जी को आशा थी कि इतने बड़े परिवार में कोई न कोई सहारा अवश्य दे देगा। छोटे भाई गंगाप्रसाद ने दिया भी, मगर अन्य ने मुंह मोड़ लिया।
बड़ी बेटी ने एक सप्ताह तक सेवा-सुश्रुषा की तथा देखा कि अब सुधार नहीं हो रहा है तो बिहार के एक बड़े शहर में इलाज के लिए भेज दिया। वहां अभिमोहनजी के छोटे भाई रहते थे। छोटे भाई गंगाप्रसाद ने उन दोनों की बड़ी आवभगत की। काफी सम्मान से रखा। डॉक्टर से दिखाया तथा दवा आदि का प्रबंध किया।
गंगाप्रसाद जी ने सोचा था कि शायद दो – चार दिनों का ही मामला है। दिखाकर चले जायेंगे। मगर डॉक्टर ने तीन महीने के आराम की सलाह दे दी। यह सुनकर तो गंगाप्रसाद का दिल बैठ गया। मगर क्या करते? बड़े भाई वाली बात थी। कुछ बोलते नहीं बन रहा था। मन को कठिन कर दोनों को रहने के लिए कह दिया।
अब गंगाप्रसाद जी की अग्नि परीक्षा प्रारंभ हुई। उनकी धर्मपत्नी भी बीमार रहती थी। तीनों वक्त का भोजन बनाकर सभी बीमारों की मदद करने को उन्हें होता। फिर भी उन्होंने लक्ष्मण की तरह दोनों की खूब सेवा की। किसी प्रकार उन्होंने एक महीने तक रखा तथा सामूहिक जिम्मेदारी की बात कर अपना पल्ला छुड़ा लिया। वापस उन्हें झारखंड में भेज दिया। लक्ष्मण तो अपने बड़े भाई के साथ चौदह वर्ष तक जंगल में रहे थे। यहाँ भाई शहर में एक महीने तक रहा। उन्हें आशा थी कि बेटा या बेटी में से कोई न कोई तो आ जायेगा।
इस बीच में अभिमोहन जी की दोनों बेटियां तथा उनकी बहू आपस में टेलीफोन के माध्यम से जुडी रहीं। क्या चल रहा है? इस गतिविधि की हर जानकारी की खबर रखती थीं। बेचारे अभिमोहन जी का खर्च भी वाणी देवी के इलाज में हो रहा था। वे चिडचिडे हो चले थे।
बहू आने के लिए तैयार है। बस कोरोना ख़त्म होने का इन्तजार कर रही है। कोरोना की मारक-क्षमता सुरसा की तरह बढती चली जा रही है। बहू अपनी ननदों को दिखाने अथवा सांत्वना देने के लिए ही सही आने की बात करते रहती है। अन्यथा ननदों को बुरा लगेगा। ननद भी अपने भाइयों से बात नहीं करती। भाई को पता ही नहीं चलता है कि माँ की क्या अवस्था है?
दूसरी बेटी भी आने के लिए तैयार है। तीन बार अपना आरक्षण करवा कर रद्द करवा लिया है। लॉकडाउन चल रहा है। हर बार तैयारी करती है। मगर लॉकडाउन के फेर में ऐसे उलझी है कि आना संभव नहीं हो पा रहा है। केवल एक दिनचर्या सुबह-शाम हाल पूछने के लिए फोन करती रहती है।
बेटे – बहू उनसे केवल मिलने कभी नहीं आते। यदि बहू के मायके में कोई उत्सव या आयोजन है तभी आती है। इस प्रकार आती हैं कि कोई समझ नहीं सके। पहले ससुराल ही आती हैं तथा धीरे से अपनी मायके उत्सव में भाग लेने के लिए चली जाती हैं। बस फर्ज के नाम पर उन्हें पैसे भेजते रहते हैं। दोनों बूढ़े दंपति अकेलेपन से ग्रस्त हैं। घर में जब भी कोई फोन बजता है तो अपना अकेलापन दूर करने के लिए घटों तक बात करते हैं। यहां तक की नंबर लगने पर भी देर तक बतियाते हैं। घर में एक दाई काम करने के लिए रख दिया गया है। दंपति के पास करने को भी कोई काम नहीं है।
समय बिताने के लिए किसी भी अंजान व्यक्ति को घर में बैठाकर उससे गप्पे लड़ाते हैं। एक दिन एक अनजान व्यक्ति विनय किसी का पता पूछने उनके घर पहुंचता है। दोनों उसे देखकर बहुत खुश होते हैं। अभिमोहन जी अतिथि- सत्कार में काफी आगे हैं। अतिथि सत्कार के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार भी दिया जा सकता है।
नौकरी में क्या बाधायें हैं? वर्तमान समय में खर्च की क्या स्थिति है? बाहर बड़े शहर का जीवन एक गांव के जीवन से कितना भिन्न है? किस प्रकार की कठिनाईयां है? बेटा कैसे गुजारा कर रहा है? जैसी बातें माता पिता के लिए बहुत मायने रखती हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए वे दोनों अपने बेटे को कुछ भी नहीं कहते।
बहू को किसी भी ननद का भय नहीं है। कारण कि ननदों की भी अपनी सास है। वे भी अपने सास को साथ में नहीं रखती हैं। अतः यदि ननदें उन्हें सास को साथ में रखने के लिए कहेंगी तो वे पलटवार कर सकती हैं। इस अवस्था को बहू अच्छे से जानती हैं। दोनों ननद की सास भी अकेले ही जीवन यापन करती है।
छोटे भाई द्वारा वापस झारखंड में भेजे जाने के बाद भार पुनः बड़ी बेटी पर आ गया। बड़ी बेटी ने दुबारे उसी दिनचर्या को प्रारंभ किया। एक महीने तक जैसे-तैसे इस कार्यक्रम को जारी रखा तथा जब उन्हें लग गया कि अब यह चलनेवाला नहीं है तो फिर बाहर निकलने का उपाय सोचने लगी।
इस बात को माँ ने भांप लिया। एक माँ का दिल तथा अनुभव बहुत बड़ी बात है। वाणी देवी जी ने अभिमोहन जी को घर का राशन लाने के लिए कहा। अभिमोहन जी अवाक खड़े थे। उन्हें भी आशा थी कि बेटी या बेटा में कोई न कोई तो आएगा। हमेशा बात-बात में झल्लाने वाले अभिमोहन जी लडखडाते क़दमों के साथ थैला लटकाए बाजार राशन लाने के लिए जा रहे थे।