मैं तो ओढ चुनरिया
अध्याय पच्चीस
उन्हीं दिनों हमारे परिवार पर दुखों का पहाङ टूटा । बङे मामा जी डाक विभाग में बङें बाबू हो गये थे । तार का कोर्स करके आने के बाद उनकी प्रमोशन तार क्लर्क के तौर पर हो गयी । उसके बाद उन्हें उपडाकघर का चार्ज देकर एक छोटे डाकखाने का प्रभारी बना दिया गया । अब वे सुबह साढे आठ बजे घर से जाते और देर रात गये वापिस आते ।
इन्हीं दिनों उनका ट्रांसफर बेहट हो गया । यह एक छोटा सा कस्बा था । मुस्लिम बहुल इलाका । छोटा सा एक कमरे का डाकघर । उसके पीछे ही छोटा सा क्वार्टर । मामाजी मामी और बच्चों को साथ ले गये । महीने में एक बार माँ और मैं बेहट जाते । एक दो दिन रह कर लौट आते । आँगन में डाकघर वाले कमरे का दरवाजा खुलता था । जब मामाजी कहीं गये होते या भीतर सो रहे होते तो हम बच्चे डाकघर में घुस जाते । वहाँ हरिराम अपने स्टूल पर बैठा ऊँघ रहा होता । मामाजी की मेज पर एक बङा सा काले रंग का टेलीफोन रखा रहता । हम उत्सुकता से मेज पर चढ जाते और अपनी छोटी छोटी उँगलियाँ फँसाकर डायल घुमाने की कोशिश करते । अगर कहीं नम्बर लग जाता तो हमारी खुशी का ठिकाना न रहता । कभी कभी हरिराम भी इस काम में हमारी मदद कर देता । तार मशीन को हम दूर से ही देखा करते । उसे छूने की हमारी हिम्मत न होती । फिर हरिराम हम बच्चों को क्वार्टर के पिछवाङे ले जाता जहाँ आम , अमरूद , लीची और लोकाठ के फलों से लदे पेङ होते और वह हमारे लिए ढेर सारे फल तोङ देता । सुबह हरिराम आते ही डाकघर, अगला आँगन , पिछला आँगन सब में झाङू लगाता । फिर बाल्टी में पानी ले सब जगह पानी छिङकता । उसके बाद शहर से आये बोरे को खोलकर ढेर सारी चिट्ठियाँ और खत निकालता और एक कोने में बैठकर उन पर ठप्पे यानि मोहर लगाता रहता । तब तक कस्बे के लोग आना शुरु हो जाते तो वह खोज खोज कर उनके नाम की चिट्ठी पढ कर सुनाता । कभी मामाजी भी किसी का खत पढ कर सुना देते । जिसका खत मिल जाता , वह खुश होकर हरिराम को इकन्नी थमा देता । जिसका खत नहीं होता , वह उदास होकर लौट जाता कल दोबारा आने के लिए । ग्यारह साढे ग्यारह बजे तक डाकघर खाली हो जाता तो बची चिट्ठियों के बंडल बनाये जाते और हरिराम उन्हें अपने झोले में डालकर मामी को पुकार लगाता – बहुजी , मैं जा रहा हूँ । कुछ लाना हो तो बता दीजिए । करीब एक घंटा सारी चिट्ठियाँ बाँटने और घर का सामान लाने के बाद वह वापिस आता । मुँह हाथ धोकर रोटी खाने बैठता तो मामी भीतर से एक कटोरी सब्जी और लस्सी का गिलास भिजवा देती ।
यहाँ मामा एक साल रहे । मामी तो इस माहौल में खुश थी पर मामा अपने अखाङे और कुश्ती को बहुत याद करते थे । करीब तेरह महीने बाद मामा की बदली सहारनपुर शहर के शहीदगंज पोस्ट आफिस में हो गयी और वे घर लौट आये । बेटे के घर लौट आने से नानी बहुत खुश थी ।
तभी बीच वाले मामा के लिए रिश्ता आया । और उनकी सगाई कर दी गयी । उस जमाने में रिश्ता ठुकराया नहीं जाता था । माना जाता था कि लक्ष्मी का अनादर नहीं करना चाहिए । लङकी देखने का चलन नहीं था । सिर्फ खानदान और परिवार का रुतबा देखा जाता । दहेज लेने देने का चलन भी न के बराबर था । मामी दसवींपास साँवली सलोनी बेहद प्यारी लङकी थी । उनके पिताजी और चाचा सेना मे सूबेदार थे । एक दिन माँ और नानी उनके घर गयी और लङकी की गोद भर आई । और फिर एक दिन यह लङकी मामी बन कर हमारे घर आ गयी । मामा के छ फिट कद के सामने मामी का कद पाँच फुट से भी कम था । पर फबत्त सुंदर थी । कुछ भी पहन लेती , बहुत खूबसूरत लगती । बाल एकदम काले और चार फुट लंबे थे । हर रविवार को जब वे अपने बाल खोलती , तो उन्हें धोने के लिए दो लोगों की जरुरत पङती । बैठ कर तो उन्हें धोना नामुमकिन ही था । वे हैंडपंप पर खङी हो जाती । एक जन नल चलाता । दूसरा उनके बालों में साबुन लगाता और वे अपने नाजुक हाथों से उन्हें धीरे धीरे मसलती । इस तरह आधे घंटे में उनका स्नान पर्व पूरा होता । फिर उन्हें सुखाने का काम होता । कंघा फेरते समय अक्सर कंघा बालों में खो जाता । फिर वे शर्मीला टैगोर , विम्मी या सायराबानो के स्टाइल में उनका जूङा बनाकर उन्हें छिपा लेती ।
इन मामी की एक बहन मेरे जितनी थी और दूसरी दो साल छोटी । भाई अभी गोद में ही था तो मुझसे उनका विशेष लगाव था ।
परिवार में हर तरफ खुशियाँ थी कि एक दिन अचानक खबर मिली कि बङे मामा डाकघर से गायब हो गये हैं । दोनों मामा और पिताजी तुरंत डाकघर पहुँचे । पता चला कि मामाजी सारा दिन ठीक थे । बढिया से काम कर रहे थे । पाँच बजे सब लोग घङी देख रहे थे कि कब बङे साहब उठें तो वे अपने घर जाएँ कि साढे पाँच बजे मामा ने रहमत को पुकारा । रहमत दौङा दौङा भीतर गया । थोङी देर बाद ही रहमत के गिङगिङाने और बाबू जी के दहाङने की आवाजें आने लगी तो सब लोग वापिस अपनी अपनी सीटों से चिपक गये । पर सबके कान भीतर की बातचीत पर लगे थे । उस दिन के कैश में से उनहत्तर रुपये कम हो रहे थे । आज के समय में बेशक इतनी रकम बहुत छोटी लगे पर उस समय में जबकि डाकिए की पगार नब्बे रुपये और क्लर्क की तनख्वाह डेढ सौ रुपये होती थी , यह रकम वास्तव में बहुत बङी रकम थी । बार बार पूछने पर भी जब रहमत कोई संतोषजनक उत्तर न दे पाया तो मामाजी का गुस्सा अपनी हद पार कर गया । उन्होंने खींच कर एक चांटा रहमत को रसीद कर दिया । एक मजबूत पहलवानी हाथ का लगना था कि रहमत तो हो गया बेहोश । मामाजी समझे कि यह मर गया । उन्होंने कैश और मोहरों वाला संदूक भरे बाजार में सङक पर फैंक दिया । खुद पैदल ही आफिस से निकल भागे । सहकर्मियों ने सङक के बीच से सारे पैसे और मोहरे इकटठे किये ।
मामाजी का मानसिक संतुलन बिगङ गया था । पिताजी ने रहमत की नब्ज देखी । वह जिंदा था सिर्फ बेहोश हुआ था ।उसके मुँह पर पानी के छींटे मारे गये तो उसे होश आ गया । दोनों-मामा उन्हें ढूढने निकले । अखाङे में गुरु जी को पूछा गया । वे वहाँ तो गये ही नहीं थे । गुरु जी ने अपने सारे चेले साथ कर दिये । दो घंटे की ढूढाई के बाद मामा वल्केश्वर महादेव के मंदिर के कुँए में तैरते मिले । उन्होंने आत्महत्या करने की कोशिश की थी । जैसे तैसे उन्हें निकाला गया । बङी मुश्किल से उन्हें घर लाया जा सका । रात को नींद का इंजैक्शन देकर सुला दिया गया ।
बाकी अगली कङी में ...