टेढी पगडंडियाँ
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स्कूल घर से थोङी दूरी पर था । बच्चे रास्ते में अटकते घूमते स्कूल पहुँचते । रास्ते में लगी बेरियाँ और अमरूद उनका रास्ता रोककर खङे हो जाते । अब फल तोङकर जेबों में भरे बिना कोई आगे कैसे जा सकता था तो सब पहले पेङों की जङों में बस्ते जमाए जाते फिर वे सब पेङ पर चढ कर फल तोङते । जब अपने खजाने से संतुष्ट हो जाते तब स्कूल जाते । वैसे भी स्कूल में पढाने वाले मास्साब और बहनजी तो शहर से आने हुए , बस आएगी तभी आएंगे । और बस का हार्न सुनते ही सब बच्चे भागकर स्कूल के मैदान में इकट्ठा हो जाते ।
बीरा खेलने में ज्यादा मस्त रहता था । वह स्कूल जाने के लिए तैयार ही न होता । बहला फुसलाकर , तरह तरह के लालच देकर उसे स्कूल भेजा जाता । वहाँ भी वह कक्षा में बैठा बैठा शरारतें करता रहता । पढाई में बिल्कुल ध्यान न देता । अक्सर बहनजी और मास्साब से डांट खाता । घर आते ही बस्ता पटककर खेलने निकल जाता । देर शाम तक इधर उधर भटकता रहता । दियाबत्ती होने पर ही घर लौटता । पाँचवी उसने जैसे तैसे पास की । उसके बाद पढाई से हाथ खङे कर गया । मंगर और भानी ने एक दो बार समझाने की कोशिश की पर चिकने घङे पर पानी की तरह हर डाँट और सलाह बेअसर ही रही तो मंगर ने उसे अपने साथ ठीहे पर बैठा लिया और वह बारह तेरह साल का होते होते ठीहे पर बैठकर जूते सुधारने लगा ।
सीरीं पढाई में ठीक ठाक थी । पर उस पर घर के कामों का बोझ था । सुबह उठकर चिकनी मिट्टी से चूल्हा पोचना , सबके लिए खाना बनाना , घर लीपना , झाङू बुहारी करना सब उसके हिस्से में था । वह हर काम वह सुघङता से निपटाती । फिर पढने जाती । दोपहर मे आकर स्कूल से मिला काम निपटाती । शाम के खाना बनाने में माँ की मदद करती । इस तरह वह घर के काम के साथ साथ अपनी पढाई करती । पंद्रह साल की उम्र में उसने दसवीं दूसरे दर्जे से पास कर ली । उसके बाद उसकी पढाई छुङवा दी गयी । और सोलह साल पूरा होते ही एक ठीक सा घर बार देख कर उसका लगन कर दिया गया । लङका पंजाबी जूतियाँ बनाने में माहिर था । शहर के आर्यसमाज चौंक में उनकी जूतियों की दुकान थी । तीन बहनें और दो भाई थे वे । शहर के सदर थाने के पास की गली में उनका पचास गज का घर था जिसमें वह अपने नौ जनों के परिवार के साथ रहते थे । गुजारा हो रहा था । एक साल की रोकना के बाद सींरीं का ब्याह हो गया और वह अपनी ससुराल चली गयी ।
जब सीरीं की शादी हुई , तब किरण नवीं कक्षा में पढ रही थी । किसी रिश्तेदार ने सुझाया कि समधी से बात करके छोटे बेटे से किरण की बात चलाकर देखो । देखी भाली रिश्तेदारी है । लङके ठीक हैं , काम कार वाले हैं और तुम्हें क्या चाहिए । न हो तो हम बात चलाएं । मंगर तो शायद मान जाता पर भानी अङ गयी – न जी , बिल्कुल नहीं । एक घर में दो बहनें नहीं देनी चाहिएं । दोनों में से एक को ही गृहस्थी का सुख मिलता है । दूसरी के भाग में रोना लिखा रहता है । वैसे भी अभी ग्यारह बारह साल की तो हुई है । इसके लिए रिश्तों का अकाल पङा है क्या जो अभी से खूंटा गाङने की तैयारी हो रही है ।
पता नहीं मंगर का खुद का मन रिश्ते को स्वीकार नहीं कर पाया या भानी का विरोध इतना जबरदस्त था कि बात वहीं की वहीं रह गयी ।
इतने साल बीत जाने पर भी किरण के होठों पर मुस्कुराहट आ गयी – अच्छा हुआ , वह बात वहीं खत्म हो गयी । वरना इस समय वह जीजी की देवरानी बनी घूँघट में लिपटी सारे घर की चाकरी कर रही होती और वह काला कलूटा सा बाबूलाल उसका मालिक बन कर उस पर हुक्म चला रहा होता ।
चलते चलते वह गाँव से बाहर आ गयी थी । सामने उनके खेत दीखने लगे थे । दूर खङा गुरनैब बेसब्री से उसका इंतजार कर रहा था । वह तेज कदम रखती हुई खेत में जा पहुँची । गुरनैब गाँव के जाने माने संधुओं सरदारों का बङा बेटा । सजीला कङियल जवान । गोरा रंग । लंबा ऊँचा छ फुट को छूता कद । चालीस साल से कम का तो क्या होगा , पर तीस साल का दीखता था । सफेद कुर्ता पायजामा और नीली पगङी पहने जँच रहा था ।
“ आ गयी तू ! कितनी देर लगा दी आने में - गुरनैब ने हाथ बढाकर उसे अपने साथ सटा लिया – ये देख मेरा दिल कितनी तेज तेज धङक रहा है “ ।
“ तो तूने पहले संदेशा भेज देना था न । मैं तो रोटियाँ बना रही थी । तेरा नाम सुनते ही सारा काम फेंक के दौङती हुई चली आई । ले तेरे लिए रोटी लाई हूँ , खा ले “ । किरण ने लाड से कहा ।
“ खाएंगे खाएंगे , रोटियाँ भी खाएँगे । पहले संतरे की फाँक और आम तो खा लें “ – गुरनैब की आँखों में शरारत थी ।
“ तेरी इन्हीं बातों पर तो मेरी जान निकल जाती है रे “ ।
एक दूसरे का हाथ पकङे पकङे वे दोनों ट्यूबवैल पर बने कमरे में आ गये । गरमी का मौसम था । धूप की तपश ने चेहरा झुलसा दिया था । शरीर तप रहा था । कुछ धूप से , कुछ उत्तेजना से । गुरनैब ने उसे अपनी बाहों में समेट लिया ।
तीन घंटे बाद वह घर लौटने को तैयार हुई पर गुरनैब छोङने को तैयार नहीं था । उसने घर के सामान की लिस्ट निकाली और गुरनैब को पकङा दी - शहर गया तो ये सब सामान ला देना । गुरनैब ने लिस्ट कुर्ते की जेब में डालते हुए बाईक निकाली – चल बैठ , तुझे गली के मोङ तक छोङ कर शहर निकल जाऊँगा । और वह गुरनैब के कंधे पर हाथ रख कर मोटरसाईकिल पर बैठ गयी । घर दीखने लगा तो वह बाईक से उतरकर गली में घुस गयी । अपनी गली में आते ही उसे गुरजप का ख्याल आया । गुरजप घर में अकेला बैठा होगा । पता नहीं रोटी भी खाई होगी या नहीं । वह तेजी से घर पहुँची । गुरजप दरवाजे के पास अकेला ही फुटबाल से उलझा पङा था ।
पुतर तूने रोटी खा ली ।
नहीं मम्मी , मैंने रोटी आपके साथ खानी थी ।
बाकी कहानी अगली कङी में ...