Paar - Mahesh Katare - 4 - Final Part in Hindi Adventure Stories by राज बोहरे books and stories PDF | पार - महेश कटारे - 4 - अंतिम भाग

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पार - महेश कटारे - 4 - अंतिम भाग

महेश कटारे - कहानी–पार 4

बादल छँट जाने से सप्तमी का चन्द्रमा उग आया था। पार के किनारे धुँधले–से दिखाई देने लगे थे। तीनों उघाड़े होकर पानी में ऊपर गए। कमर तक पानी में पहुँच रामा ने गंगा जी का स्मरण कर एक चुल्लू पानी मुँह में डाला, उसके बाद दूसरा सिर से घुमाते हुए धार की ओर उछाल दिया। दो कदम और आगे ब.ढ रामा ने बाई हथेली तली से चिपकाई व दाहिनी मुट्ठी मथना के किनारे पर कस दी–‘‘जै गंगा मैया !’’

‘‘जै गंगा मैया !’’

तीनों पैर–उछाल लेकर पानी की सतह पर औंधे हो गए। गुमका मारता हुआ रामा आगे और बहमा छाँटते दोनों पीछे। पानी का फैलाव अनुमान से अधिक निकला। दोनों बागी पार पहुँचते–पहुँचते पस्त हो गए थे।

पंडित, थक गए क्या ? लम्बी साँसे भरते हरिविलास ने पूछा।

‘‘थकान तो आती ही है।’’ मथना से सामान निकालते रामा ने उत्तर दिया।

‘‘तुम आराम से आना–जाना। जल्दबाजी की जरूरत नहीं है। उधर सुस्ता लेना कुछ। औरत वाली बात है। मथना थामने की क्रिया बता देना उसे।’’ हरिविलास ने समझाया।

‘‘बैफिकर रहो’’ कहा रामा पंडित मथना के साथ फिर पानी में आ गया। धार काटते हुए सोच रहा था कि बस आज की रात खेम–कुशल से गुजर जाए। कल इंजीनियर के सामने जाकर खड़ा हो जाऊँगा कि साब, तीन साल हो गए सूली की सेज पर सोते, अब तबादला कर दो। जान सदा जोखिम में, ऊपर से अपमान।

सोच में उतराता रामा किनारे आ गया। कंधे पर मथना रख चुुुचुआती देह लिये वह कमला की दिशा में चलने लगा। हल्की–हल्की हवा से देह ठण्ड पकड़ने लगी थी। चाँद कभी खुलता, कभी ढँक जाता। उस पार के आदमी धब्बे की झाँई मार रहे थे। नदी का फैलाव अस्सी–नब्बे हाथ तो रहा ही होगा।

‘‘आ गया ? कमला की आवाज आई।

रामा के मुँह से केवल ‘हूँ’’ निकल सका। आने–जाने में हुई देर पर खींझकर कहीं भड़क न बैठे, इसके डर से रामा सहमा–सा खड़ा हो गया–‘‘सामान दे दो, रख दूँ।’’

‘‘ले !’’ कमला ने अपने जूते ब.ढा दिए। रामा को लेने पड़े। वह ग्लानि से भर गया–साली नीच जाति की औरत। बड़उआ जाति का कोई ऐसा कभी न करता। उसेन जूते मथना की तरी में जमा दिए।

‘‘और ….?’’

इस बार कमला की पेंट थी। रामा सनाका खा गया। पेंट के साथ चड्डी थी। सिर नीचा किये उसने ये भी भर दिए।

‘‘तेरे घर कौन–कौन है ? ….घरवाली है ?’’

‘‘बस, एक बिटिया है पाँच बरस की। घरवाली तीन साल पहले रही नहीं।’’

‘‘अच्छा, मैं अगर तुझे रख लूँ तो ….? जैसे मर्द औरत को रखता है।’’

‘‘ ….’’

‘‘कुछ कहा नहीं तूने ?’’ कमला की आ.वाज कठोर हुई।

‘‘मैं ….क्या कहूँ ? तुम ठहरी जंगल की रानी और मैं नौकरपेशा। आज यहाँ, कल वहाँ।

‘‘यहाँ है तब तक रहेगा मेरा रखैला ?’’

‘‘अब मैं क्या बोलूँ ?’’

‘‘गूँगा है ? डर मत ! मैंने जिनकी कुगत की है वे दगाबाज थे। संग सोकर बदनामी करने वाले को मैं नहीं छोड़ती। तुझसे भी साफ कह रही हूँ–ले ये भी रख दें।’’

लेने के लिए हाथ ब.ढाते रामा ने देखा कि कमला कमीज उतारकर बढा रही है।

हल्के–से उजाले में कमला की देह किरणें छोड़ रही थी। रामा की आँखें भिंच गई। उसे मथना का मुँह नहीं मिल रहा था। हाथ कभी इधर पड़ता, कभी उधर। पसीना छलछलाकर रोएँ खड़े हो गए। नथुनों में कोई विकल गंध भर रही थी। पैर झनझना आए। कसमसाती देह फट पड़ने को हो गई।

‘‘और ये भी ….।’’ कमला की काँसे की खनकती हँसी के साथ रामा ने पाया कि वह रेत पर पटक लिया गया है।

‘‘ना ….ना ! छोड़ो ….।!’’ करता रामा रेत रौंदने में शामिल हो गया।

थोड़ी देर बाद उस पार से कूक आई। कमला ने कूक से उत्तर दिया कि– ‘‘सब ठीक है ….ला, पेंट निकाल।’’

रामा ने अपराधी की तरह पेंट निकाली।

‘‘कमीज ….?"

पेंट कमीज कसकर सिर से साफी बाँध कमला ने बंदूक उठा ली–‘‘चल, पार पहुँचा।’’

मथना में दुनाली रखते हुए लोहे के ठण्डे स्पर्श से रामा में कँपकँपी भर आई। वह कमर तक पानी में खड़ा हो कमला के कदम गिनने लगा। ….

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