लेखक का नाम- डॉ मोहम्मद सादिक
मैं सागर से आष्टा की ओर जाने के लिए अपने घर से निकला.....
और स्टेशन की ओर बढ़ा!
मुझे सागर रेलवे स्टेशन से शाम वाली पैसेंजर ट्रेन से भोपाल की ओर जाना था। 5:00 बजे सागर से बीना की ओर जाने वाली ट्रेन निर्धारित समय पर आ गई और में उस पर सवार होकर बीना की ओर बढ़ा। मेरे मन में अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचने की उत्सुकता थी, लेकिन रेलगाड़ी सभी छोटे-छोटे स्टेशनों पर रुकती हुई जा रही थी ?
और क्यों ना रुके ...
आखिर उन छोटे-छोटे गांव देहातों के लोग भी तो इसमें बैठे हैं । लगभग 7:00 बजे शाम को मैं बीना स्टेशन पर उतर गया।
यहां से मुझे भोपाल की ओर जाने वाली ट्रेन में सफर करना था , लेकिन कोई ट्रेन उस वक्त नहीं थी तो मैं चहल कदमी करते हुए प्लेटफार्म पर लोगों को देखने लगा कि कुछ काले काले रंग के मजदूर अपने परिवार सहित वहां है। मेरे मन में एक दम उन्हें देखकर ख्याल आया कि यह मजदूर जिनके अपने खुद के पक्के मकान नहीं हैं, लेकिन लोगों के लिए यह पक्के मकान बनाते हैं । रात गहराती जा रही थी और ट्रेन का कहीं कोई अता पता न था। मैंने अपने घनिष्ठ मित्र को अपने मोबाइल से फोन लगाया और बातें करते हुए प्लेटफार्म पर चहल कदमी करते हुए पुल पर चढ़ गया। मैंने देखा कि एक नव युगल सुंदर जोड़ा मेरे पास से होकर गुजरा , जो अपनी मुस्कान और आकर्षण में मग्न था और प्रेम में शराबोर था।जो मुझे देखता हुआ गुजरा। एक पल के लिए मेरी नजर भी उन तक गई और उनकी सुंदरता की मैन दिल से तारीफ की, लेकिन में अपने दोस्त से बातें करने में मग्न था। मैं और मेरा दोस्त स्नातक से पीएचडी तक साथ रहे। हम दोनों एक दुसरे पर पूरा भरोसा करते थे। हम दोनों दुख सुख हमेशा साथ रहते है।
यह उस समय की बात है जब महाराष्ट्र में हिंदी भाषियों पर अत्याचार हो रहा था।
यार क्या हो रहा है ?
मैं यहां बीना स्टेशन पर हूं आष्टा जा रहा हूं लेकिन ट्रैन है की आने का नाम ही नही ले रही है। इतने में एक ट्रेन बड़ी तेज रफ्तार से गुजर गई । मैंने सोचा कि शायद लोगों की तरह इस ट्रेन पर भी हिंदी भाषी विरोध का असर हो गया। जिस तरह मायानगरी में शिवसेना के लोगों द्वारा हिंदी बोलने वालों को मारा जा रहा है और हिंदी का बहिष्कार किया जा रहा है शायद !!!
यह ट्रेन भी हिंदी भाषी प्रदेश का बहिष्कार करते हुए बगैर रुके चली गई।
हां यार आज सियासत कैसी है। भ्रष्टाचार अपनी ऊंचाई पर है। हर जगह रिश्वतखोरी आम हो गई है और तो और लोगों के मताधिकार पर भी चुने हुए विधायक, सांसद दल बदल लेते हैं आज जो भी हो जनता उन्हें किस दल के रूप में चुना है और किस प्रकार अपने हितों को देखते हुए बदल गए । यह भ्रष्टाचार नहीं तो और क्या है?
हम क्या कर सकते हैं हम भी इसमें शामिल हो जाएं!
वह कैसे ?
आज के दौर में हर आदमी बिक रहा है बस खरीदने वाला होना चाहिए। जैसे कि सियासी पार्टीया खरीद रही है ।
हम किसे बेचेंगे?
विभाग के मुखिया को और किसे ।
जब चांदनी रात में पूस के लहलाहते तालाब को बनाया जाकर सुबह गायब कर सकते हैं तो मुखिया को क्यो नही। चलो तो लगाओ बोली।
पहले किसे बेचे?
मुखिया को ...फिर बिल्डिंग को... फिर छात्रों को....
भाई छात्रों को क्यो?
ये तो हमारे देश का भविष्य है। ये युवा है जो देश की आधी आबादी कहलाती है!!!
तो यह ज्ञान लेकर क्या करेंगे।
हमारी तरह बनेगे?
नहीं तो और क्या बनेंगे।
हमारी भी कोई जिंदगी है ।
सरकार बैसे ही कम पैसे देती है। सरकार उस बनिये की तरह है जिसके बाट पहले ही खोटे है। नजर हटते ही दंडी भी मार लेते है। हम दोनों बातें कर रहे थे कि एक ट्रेन भोपाल की ओर जाने वाली आ गई। मैं उसमें सवार हो गया रात्रि लगभग 2:00 बजे भोपाल रेलवे स्टेशन प्लेटफार्म पर उतरा इंदौर के लिए एक बस कंडेक्टर आवाज लगा रहा था ।
मैंने उससे पूछा कि आष्टा चलोगे? उसने कहा हाँ।
बस स्टैंड से या बायपास ?
उसने बस स्टैंड से चलने का कहा और में बस में बैठ गया।
बस तेज रफ्तार से आगे बढी रही थी भोर के 4:00 बजे रात को मुझे बस कंडक्टर ने बाईपास पर उतार दिया ! मैंने कहा आपने तो बस स्टैंड जाने का कहा था तो उसने कहा कि बस वहा नहीं जा रही है।
मैं बाईपास पर उतर गया । रात अपनी पूरी आगोश में थी। एक दो रोड लाइट जल रही थी। शहर से लगभग 3 किलोमीटर का रास्ता मुझे तय करना था, लेकिन रास्ता इतना सुनसान था कि कोई आवाज नहीं थी।चारो तरफ खामोशी थी। मैं तेज कदम बढ़ाता चला जा रहा था। दूर से मुझे कुछ बड़े जानवर दिखाई दिए । सोचा देखते है। मेरे कदम आगे बढ़ते और मेेरे दिल की धड़कन भी कदम के साथ बढ़ती जा रही थी। पास आकर देखा तो वह गधे थे। उन्हें देख कर मन में ख्याल आया कि उनका मालिक उन से दिन में कितना काम लेता और अपना मतलब निकलता है और रात को एक साथ छोड़ देता है । मैं यही सोचता आगे बढ़ा । देखा की कुछ कुत्ते अपना मुंह ज़मीन से लगाये बैठे हैं। जब मैं उनके पास से गुजरा तो उनकी नीली नीली आंखों से अपने मालिक के मकान की रखवाली करते हुए मुझे देख रहे थे ???...
मेरे कदम आगे बढ़ते गए हैं। नदी का किनारा मिला मैंने देखा कि बीच पुल पर एक आदमी खड़ा है। मैंने सोचा कि इतनी रात को एक आदमी नदी में कूदने आया ? मै अपने कदम बढ़ाता गया और सोच रहा था कि क्या करेगा? क्या नदी में कूद कर अपनी जान देगा!!
क्यों ?
क्यों की नदी में तो पानी नही है ? मैं उसके करीब पहुंचा तो देखा कि एक पागल इंसान है जिसे दिन और रात मैं फर्क नहीं नजर आता और वह सही होता तो इतनी रात को यहां नहीं होता इनकी जिंदगी भी क्या है ?
एक सुखी नदी की तरह ?
जो ना लोगों की प्यास बुझा सकती है और ना उसमें कोई डूब कर मर सकता है।
यह सोचते हुए मैं अपने कमरे में पहुंचा । मेंरे जेहन में इस पूरी रात के बो सभी पल बार बार आ रहे थे। वह काले काले प्लेटफॉर्म के मजदूरों के उघरे बदन की उरयानी उनकी ज़िंदगी का हाल बता रही थी।बस कंडक्टर का वादा तोड़ना,लोगो का बोझ उठाकर काम करना,लोगो के घरों की चौकीदारी करना ये सब उन वे जवान और अनपढ़ लोगो का काम नही था बल्कि आज जिंदगी की कश्मकश में बहुत से पढ़े लिखे युवा उस बनिये के यहाँ बंधुआ मजदूर की तरह गिरवी रखे है जो सदा ही लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ कर रहा है। मैंने कभी नही सोचा था कि ये सफर इतना यादगार------ सफर होगा। मैंने अपने कमरे का ताला खोला और घड़ी घड़ी की तरफ नजर की तो सुबह के 5:00 बज रहे थे।