Karn Pishachini - last in Hindi Horror Stories by Rahul Haldhar books and stories PDF | कर्ण पिशाचिनी - अंतिम

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कर्ण पिशाचिनी - अंतिम


अंतिम भाग


" मुझे भूख लगी है । मुझे भूख चढ़ाओ । नर मांस दो मुझे... "
कर्णपिशाचिनी के आवाज से मानो यह शांत जंगल कांप उठा । रात के कुछ पंछी डरते हुए उड़ गए ।

हर्षराय विकट परिस्थिति में थे उन्होंने सोचा तो क्या अंत में इतने दिनों की साधना यूं ही व्यर्थ चली जाएगी । मन ही मन उन्होंने देवी गुह्यकाली को शरण किया ।
गुरु भैरवानंद की सावधान वाणी उन्हें याद आई ।
गुरु ने कहा था,
" जितनी भी विकट परिस्थिति आए अपने दिमाग को शांत रखकर सोचना । कर्णपिशाचिनी के मायाजाल में मत उलझना । "

हर्षराय बोले ,
" देवी नर मांस कहां से लाऊं ? यह तो रिक्त भूमि है । यहां पर जीवित मनुष्य केवल मैं ही हूं । मैं खुद को भोग के रूप में आपको दे सकता हूं लेकिन इससे क्या आपका धर्म रक्षा होगा । आप तो मेरे साधना से खुश होकर आई हैं अब आपकी बारी है । "

कर्णपिशाचिनी ने अपने भयानक रूप को त्यागकर एक सुंदर व अप्सरा जैसी युवती का रूप धारण कर बोली ,

" तुम्हारे साधना से मैं खुश हुआ था अब तुम्हारे चतुराई को भी देखकर मैं प्रसन्न हुई । लेकिन साधक को मेरी कामना पूर्ति करना ही होगा । "

हर्षराय ने एक छूरी को अपने सीने के चमड़े पर चलाया ।तुरंत ही खून की एक रेखा वहां से निकल पड़ी । खून देखते ही कर्णपिशाचिनी मानो और भी प्रसन्न हो गई । हर्षराय ने एक पत्ते पर उस खून का भोग लगाकर कर्णपिशाचिनी को संतुष्ट किया ।
संतुष्ट होकर कर्णपिशाचिनी हर्षराय की तरफ देखकर हंसी । उसके खून लगे दातों को देखकर कोई भी मनुष्य डर से कांप उठेगा ।

" मैं संतुष्ट व प्रसन्न हुई इसीलिए आज से तुम्हारे वश में रहूंगी । अब से मैं तुम्हारे कानों के पास भूत , भविष्य व वर्तमान की बातें बताकर जाऊंगी । तुम्हारा कोई शत्रु तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकता । इसके अलावा भी मैं तुम्हारे तीन इच्छाओं को पूर्ण करूंगी । लेकिन ... "

हर्षराय साष्टांग प्रणाम कर कर्णपिशाचिनी से बोले ,
" मैं धन्य हुआ देवी आपकी कृपा पाकर । मैं अपने तीन इच्छाओं को बताता हूं लेकिन उससे पहले आप अपनी बातों को पूर्ण कीजिए । लेकिन क्या देवी ? "

कर्णपिशाचिनी अपने मोहक अदाओं को दिखाते हुए हर्षराय के और पास आ गई ।
" कर्णपिशाचिनी अपने साधक की सभी मन्नते पूरी करती है लेकिन इसके बदले में तुम्हें अपना पूरा जीवन मुझे संतुष्ट करके बिताना होगा । मेरे अलावा किसी दूसरी नारी से तुम संबंध नहीं बनाओगे । तुम विवाह नहीं कर पाओगे व दूसरी किसी नारी से मित्रता नहीं कर सकते । तुम शरीर और मन से केवल मेरे लिए हो केवल मेरे लिए । "

सम्मानित स्वर में हर्षराय बोले ,
" मैं तैयार हूं देवी । "

कर्णपिशाचिनी फिर बोली,
" मेरे अलावा अगर तुम किसी नारी से संबंध या मित्रता बनाते हो तो उसके मौत की पटकथा मैं लिखूँगी । "

" ठीक है देवी जैसी आपकी आज्ञा । "

" अब तुम अपने तीन इच्छाओं को बताओ । सोचकर बोलना तुम जो कुछ भी मांगोगे मैं उसे पूर्ण करने के लिए बाध्य हूं । "

हर्षराय बोले ,
" देवी मेरी प्रथम इच्छा है कि आप मुझे भूत , भविष्य व वर्तमान की बातों से अवगत कराएंगी एवं जीवन में संपूर्ण सफलता के लिए हमेशा सहायता देंगी । मेरा द्वितीय इच्छा है कि मैं अपने मन से अपने जीवनसंगिनी को चुन सकता हूं व वृद्ध अवस्था तक उसके साथ सुखी व आनंदमय जीवन व्यतीत करूं । तृतीय इच्छा है कि मेरे स्त्री के अलावा दूसरा कोई नारी मुझे स्पर्श भी ना कर सके । "

हर्षराय की बात समाप्त होते ही कर्णपिशाचिनी गुस्से से चिल्लाते हुए बोली,
" धूर्त मनुष्य मेरे वरदान को मेरे विरुद्ध ही उपयोग किया । कर्णपिशाचिनी हूं मैं मुझे तृप्त व संतुष्ट किए बिना हर्षराय तुम्हें मुक्ति नहीं मिलेगा । "

किसी क्रोधित नागिन की तरह कर्णपिशाचिनी फुंफकारने
लगी । क्रोध , असफलता , प्रताड़ित होने की व्यथा सबकुछ मिलाकर कर्णपिशाचिनी सुंदर नारी से अब एक भयानक दानवी रूप में परिवर्तित होने लगी । हर्षराय को अब सही से ज्ञात हुआ कि क्यों देवी के नाम में पिशाचिनी जुड़ा है ।

पूरब के आसमान में सूर्य नए दिन को प्रस्तुत कर रहा है ।
हर्षराय ने उगते सूर्य को प्रणाम किया । इसके बाद उन्होंने देखा गुरु भैरवानंद लकीर के बाहर खड़े थे । उन्होंने आगे बढ़कर मंत्र पढ़ते हुए रक्षा लकीर खोल दिया । इसके बाद बोले कि हर्षराय अब मुक्त है ।
हर्षराय इतने दिन अकेले रहने के बाद आज गुरुदेव को देख जल्दी से दौड़ कर प्रणाम करना चाहा लेकिन अपने शरीर की कमजोरी के कारण खुद को संभाल लिया ।
गुरुदेव बोले ,
" जाओ बेटा पहले शिप्रा में स्नान कर लो । "

स्नान करने के बाद बहुत सारा पानी पीकर हर्षराय को शांति मिली । आकर देखा गुरुदेव ने भोजन , कपड़े , पानी आदि कि व्यवस्था कर रखा है । इसके अलावा उन्हें लेने के लिए कुछ कहार एक पालकी के साथ भी आए हुए थे । हर्षराय ने सोचा कि गुरुदेव का सभी चीजों में व्यवस्थित नजर है । आज उनके दिए ज्ञान की वजह से ही कर्णपिशाचिनी साधना व देवी को अपने बातों के जाल में बाँधने में सफल हुए ।
हर्षराय ने अपने गुरु का जय जयकार किया ।
गुरुदेव भैरवानंद ने हर्षराय को रोकते हुए कहा ,
" मेरा नहीं बेटा देवी माता की जय जयकार करो । "
दोनों एक साथ बोल पड़े,
" जय माता गुह्यकाली की जय "

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ममता के पिता जी गुस्से में गुरु महाराज की तरफ आगे आए ,
" उपाध्याय जी क्या आप कोई तमाशा कर रहे हैं । विवेक व उसके माता-पिता आपको क्या मानते हैं मुझे नहीं पता और मुझे जानना भी नहीं है । लेकिन मेरी लड़की को इन सभी क्रियाओं में प्लीज मत उलझाइये । बहुत हुआ अब मैं अपनी लड़की को लेकर लौट जाऊंगा । यह शादी अब नहीं होगा । "

गुरु महाराज गरजते हुए बोले ,
" भूल से भी उस रक्षा लकीर के भीतर व पिलर से बंधे लाल धागे को मत छूना । मुझे थोड़ा वक्त दीजिए कृपया अपना और ममता की विपत्ति मत बुलाइये । "

ममता की मां ने किसी तरफ उन्हें पीछे लेकर गईं ।
उनके बातों के बीच ही एक गाड़ी मंदिर के बाहर आँगन में आकर रुकी । उसमें से एक आदमी बाहर आया ।
उस आदमी को देख गुरु महाराज बोले ,
" आशीष अंदर जाओ विवेक वहीं पर है । उसे थोड़ा चेक करो । "
एक शिष्य उनके साथ घर के अंदर चले गए ।

अब गुरु महाराज व ममता आमने-सामने हुए ।
ममता की आंखों से मानो आग बरस रही है । वह मन ही मन न जाने क्या बड़बड़ा रही है । अब वह गुरु महाराज के चारों तरफ घूमने लगी । गुरु महाराज आंख बंद करके ध्यानमग्न होकर कुछ जप रहे थे । गुरु महाराज के इस शांत रूप को देखकर ममता और भी क्रोधित हो रही थी ।
अब उन्होंने अपने आँख को खोला और इशारे से एक शिष्य को कुछ निर्देश दिया । तुरंत ही 3 शिष्य ने मंदिर के चौखट पर सिंदूर वह हल्दी से एक तारा की आकृति बनाकर उसके हर एक कोने पर जलता दीपक रखा । उसके सामने एक यज्ञ कुंड और पूजा की सामग्री रखा हुआ है ।
सब कुछ बनाकर दो शिष्य ने जल्दी से ममता के हाथ को पकड़ लिया । ममता छटपटाने लगी । गुरु महाराज द्वारा उसके माथे पर अंगूठा रखकर मंत्र पढ़ते ही वह शांत हो गई और फिर वह खुद ही चलकर उस तारे की आकृति के बीच में आकर बैठ गई ।
इसके बाद गुरु महाराज उसके सामने बैठकर देवी माता की आराधना को शुरू कर दिया । पूजा की प्रक्रिया जितना आगे बढ़ता गया ममता उतना ही सुस्त होती गई लेकिन उसकी दोनों आंखें आश्चर्यजनक रूप से चमक रही थी मानो या दोनों आंखें उसकी नहीं किसी और की है । गुरु महाराज के सामने यज्ञ कुंड की आग और ममता की आंखों में क्रोध की आग दोनों समान मात्रा में जल रही है । वह एकटक गुरु महाराज की आंखों में देख रही है ।
गुरु महाराज के माथे पर पसीना है उनको किसी अदृश्य शक्ति से पीड़ा हो रहा है लेकिन उन्होंने सब कुछ सहकर अंतिम आहुति को यज्ञकुंड में डाला ।.
तुरंत ही एक आंधी उस मंदिर को चारों तरफ से घेरने लगा जिससे चारों तरफ अंधेरा हो गया । मंदिर के अंदर उपस्थित सभी ने देखा कि ममता का शरीर जमीन से लगभग 2 फीट ऊपर हवा में तैर रहा है । उसके बाल हवा में लहरा रहे हैं । उसकी दृष्टि मानो किसी शिकार करती शेरनी जैसी तथा उसके नाखून आश्चर्य रूप से बड़े हो गए हैं ।
ममता हंसते हुए बोली,
" पुजारी देखती हूं तुम्हारे अंदर कितना शक्ति है , तुम कुछ भी नहीं कर सकते । "

गुरु महाराज बोले,
" ठीक है देखते हैं फिर लेकिन मैं नहीं तो मेरे माता रानी देवी कालचंडी अवश्य कुछ कर सकती हैं । "

इतना बोलकर गुरु महाराज ने एक छोटे आकृति का पुतला यज्ञकुंड में डाल दिया । तुरंत ही एक प्रकाश की छटा देवी मूर्ति से बाहर निकलकर ममता के शरीर में प्रवेश कर गया । ममता का पूरा शरीर मानव उस वक्त जल रहा है ।
ममता चिल्लाने लगी और बोली ,
" पुजारी तूने फिर मुझे धोखा दिया । मैं कई सालों से प्रतीक्षा कर रही थी । उस बार भी हर्षराय ने मुझे अपने बातों में फंसा लिया था इसीलिए इस बार मैं उससे विवाह करती । हर्षराय ने कहा था की उसके स्त्री के अलावा कोई दूसरी नारी उसे स्पर्श नहीं करे इसीलिए इस जन्म में मैं लेकिन तूने पुतले के रूप में उसके अस्तित्व का आहुति दे दिया जिससे पुनर्जन्म से इस जन्म का संबंध समाप्त हो जाए । पापी , धूर्त इस दंड तुझे अवश्य मिलेगा । "

इसके कुछ देर बाद ही सबकुछ शांत हो गया । ममता के शरीर में अब वह जलन नहीं है । देवी मूर्ति से निकलती प्रकाश की छटा भी अब समाप्त हो गई । अंधी , ममता , वातावरण सब कुछ सामान्य हो गया ।
गुरु महाराज ने देवी मूर्ति के सामने नतमस्तक होकर प्रणाम किया । फिर ममता के माता - पिता की तरह देखकर बोले ,
" अब आप लोग मंदिर के अंदर आ सकते हैं अब कोई डर नहीं है । "

इसके बाद की घटना बहुत ही संक्षिप्त है । सब कुछ खत्म होते-होते शाम हो गया । आशीष ने बताया कि विवेक अब एकदम ठीक है ।
गुरु महाराज बोले,
" मुझे पता है कि सभी के मन में कई सारे प्रश्न हैं । अगर अभी सबकुछ बताने लगूं तो रात बीत जाएगा । इसीलिए पहले गोधूलि लग्न में ममता और विवेक के शादी का कार्यक्रम सम्पूर्ण हो जाए फिर बैठकर इस बारे में चर्चा करेंगे । "

शुभ लग्न में देवी माता के मंदिर में ही ममता और विवेक की शादी सम्पन्न हुई । इसके बाद सभी पूरी बात जानने के लिए कौतुहल लेकर एक जगह आकर बैठ गए ।
गुरु महाराज ने बताना शुरू किया ,
" मैंने विवेक के जन्मकुंडली को पहले भी देखा था । मैं जानता था कि उसके विवाह काल में कुछ बाधा है । लेकिन विवाह तारीख तय होने के बाद उसके कुंडली में कुछ अद्भुत बदलाव देखने को मिला । मैं तुरंत समझ गया कि उसके ऊपर किसी ऊपरी शक्ति ने अपना प्रभाव डाला है । ठीक से सबकुछ गणना करके इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि अगर इस दोष को खत्म न किए बिना विवाह हुआ तो बहुत बड़ा अनर्थ होगा इसीलिए उन दोनों को मैं यहां पर ले आया । क्योंकि देवी माता के सामने डाकिनी , योगिनी , यक्षिणी सभी की शक्तियां समाप्त हो जाती है । अचानक उसके कुंडली में ऐसा क्यों हुआ इस प्रश्न का उत्तर मुझे नहीं मिल रहा था । अचानक मुझे याद आया कि कहीं पूर्व जन्म का कोई प्रभाव तो नहीं । और इसी बात को जानने के लिए मेरे दोस्त के लड़के फेमस साइकियाट्रिस्ट आशीष शर्मा को बुलाया । लो आशीष अब तुम ही बताओ । "

आशीष बोले ,
" विवेक को हिप्नोटाइज करके पता चला कि उसका सचमुच पूर्व जन्म हुआ है । पूर्व जन्म में उसका नाम हर्षराय था वो इंदौर के पास शिप्रा नदी के किनारे के एक बड़े से भू - भाग के जमींदार थे । उन्हें कर्णपिशाचिनी यक्षिणी विद्या में भी सिद्धि प्राप्त था । आप सभी की सभी वीडियो को देखिए । और हाँ मैंने विवेक के इस पूर्वजन्म के मेमोरी को सप्रेशन कर दिया है जिससे उसके भविष्य में इसका प्रभाव नहीं पड़ेगा । उसे अपने पूर्व जन्म का कुछ भी याद नहीं रहेगा । "

आशीष ने सभी के सामने लैपटॉप में वीडियो को चला दिया । सबकुछ देखने के बाद विवेक बोला ,
" गुरु महाराज मुझे तो कुछ भी याद नहीं आ रहा कि ममता को आखिर क्या हुआ था । "

आशीष फिर बोले ,
" हर्षराय कर्ण पिशाचिनी विद्या में सिद्ध हुए लेकिन कर्ण पिशाचिनी को उन्होंने अपनी बातों की जाल में फंसा लिया । जिससे कर्णपिशाचिनी बहुत क्रोधित हुई और कई सौ सालों तक वह अपने बदले की आग में जलती रही । विवेक के साथ ममता का विवाह तय होते ही उसने ममता पर अपना प्रभाव डाला । ममता के शरीर में वह खुद रहने लगी और ममता के अस्तित्व को सुला दिया था । अगर उस वक्त ममता के साथ शादी होता तो कर्ण पिशाचिनी विवेक की पत्नी बन सकती थी । और अगर एक बार वह ममता की आत्मा को समाप्त कर देती तो शायद विवेक को भी मार डालती । "

विवेक बोला ,
" शायद इसीलिए शादी की तारीख तय होते ही मेरे साथ बहुत सारे अद्भुत घटनाएं हो रहे थे । और एक बात मुझे आज समझ आया । "
" क्या बात ? "
" अरे कोई विशेष बात नहीं । "

विवेक मन ही मन समझ गया था कि कोमल से उस दिन बहुत नजदीक के लम्हों में उसके साथ ऐसा भयानक घटना क्यों हुआ था । विवेक के पास कोई लड़की आए कर्णपिशाचिनी यह बर्दास्त नहीं कर सकती थी ।

गुरु महाराज बोले ,
" यक्षिणी जानती थी की ममता ही तुम्हारी पत्नी बनेगी । वह प्रतीक्षा करती रही इसीलिए कोई दूसरी लड़की तुम्हारे जीवन में नहीं आई । लेकिन कहते हैं न अंत भला तो सब भला । आप चिंता करने की कोई बात नहीं है । यक्षिणी कर्णपिशाचिनी देवी माता की ही अंश उपदेवी है आज देवी माता ने ही उसे अपने पास बुला लिया । "
इसके बाद गुरु महाराज ममता के माथे पर हाथ रखकर बोले ,
" बेटी सदा सौभाग्यवती रहो । समझना की आज से तुम ही विवेक की रक्षा कवच हो और इसके अलावा मेरी माता रानी तो हैं ही वो तुम दोनों की रक्षा हमेशा करेंगी । "..

.... समाप्त....


@rahul