प्रेम और वासना इंसानी जीवन के वो दो पहलू है, जिनके बिना जिंदगी को लय मिलना मुश्किल होता है। प्रेम को अगर वासना से अलग कर दिया जाय, तो प्रेम की परिभाषा को समझना, जरा मुश्किल ही होता है।जहां शुद्ध प्रेम का केंद्र बिंदु आत्मा को ही माना गया, वहां वासना युक्त प्रेम का केंद्र बिंदु, दिमाग और ह्रदय बताया जाता है। आत्मिक प्रेम निस्वार्थ और निराकार बताया गया, वहां वासना को कई आकार से पहचाना जा सकता है।शुरुआती जिंदगी में दोनों का ही समावेश होता हैं। कुछ विशिष्ट आदमी ही वासना की भूमिका को जीवन से अलग कर पाते है, परन्तु काफी कठिनता से। साधु, महात्माओं ने इस दशा में बहुत प्रयास किये और बहुतों ने काफी कुछ सफलता हासिल भी की।
प्रेम बिना जीवन नहीं चल सकता, पर बिना वासना के जीवन को संयम से चलाया जा सकता है। पूरी यथा- स्थिति को समझने के लिये हमें पहले प्रेम की सादगी पूर्ण परिभाषा को समझना होगा।
ओशो के अनुसार प्रेम एक "आधात्मिक घटना है, वासना भौतिक, अंहकार मनोवर्ज्ञानिक है"
प्रेम की शाब्दिक परिभाषा जानने से पहले यह महसूस करना जरूरी होगा, की प्रेम ज्यादातर आभासीत होकर ही अभिव्यक्ति करता है, और अपनी चरम अनुभूति में स्पर्शमय भी हो सकता है। शुद्ध प्रेम त्यागदायी होता है,उसमे स्वार्थ का निम्नतम अंश ही पाया जाता है। स्वार्थ और वासना की बढ़ती मात्रा प्रेम के स्वास्थ्य के लिए घातक माना जाती है।
प्रेम की उत्तम परिभाषा यही है, इसमे कहीं "मैं" का समावेश नहीं रहता, इसके लिए "हम" ही उत्तम माना गया है। दूसरी बात प्रेम में पवित्रता का आभास होता है, परन्तु वासना के बारे में ऐसा कहने से संकोच का अनुभव होता है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है, कि प्रेम सत्यता के आसपास ज्यादा रहना चाहता है।
ख़ैर, हम पहले प्रेम का शाब्दिक अर्थ की तरफ ध्यान करते है। प्रेम को कभी कभी प्यार शब्द से भी सम्बोधित किया जाता है। हिंदी शब्दकोश के अनुसार, प्रेम का मतलब प्रीति, माया, लोभ, और लगाव भी होता है। परन्तु, प्रेम को शब्दों से नहीं, अहसास और भाव से ज्यादा अनुभव किया जाता है। प्रेम और प्यार दो शब्दों की एक ही व्याख्या है, दोनों ही अढ़ाई अक्षर से संस्कारित है। दोनों को जोड़ने वाला आधा शब्द सदा अधूरा रहेगा, क्योंकि सच्चा प्यार कभी समाप्त नहीं होता। इतिहास की बात करे तो इसका प्रमाण बहुत सारे प्रेम किस्सों में मिलेगा जहां प्रेम के लिए प्रेमियों ने शुद्ध प्रेम के कारण मौत को गले लगा लिया। आज के दौर में भी ऐसी कई घटनाये, हमारे सामने आती है,परन्तु ऐसे प्यार को नासमझ प्रेम की श्रेणी में ही समझा जाता है।
प्रेम शब्द, जीवन का आधार, सिर्फ मानव के लिए ही नहीं अपितु सभी हर सजीव प्राणी मात्र के लिए है। हालांकि इसके लिए कोई निश्चित आधार स्थापित नहीं किया जा सकता कि प्रेम का सिद्धांत क्या है ? जो इस विषय पर शोध कर रहे है, उनका कहना की इसके बारे में एकमत होना असंभव है। कुछ लोग इसे भगवान की कृपा, कुछ रहस्मय, कुछ आत्मिक, मानते है, पर स्पष्टता कहीं भी नहीं है। मनोवैज्ञानिक जीक रुबिन के अनुसार शुद्ध प्रेम में तीन तत्वों का होना, अति आवश्यक है, वो है,
1• लगाव (attachment)
2• ख्याल (caring)
3• अंतरंगता (intimacy)
उनका मानना है, इन तीनके के कारण ही, एक आदमी दूसरे से प्रेम चाहता है।
जब की भारतीय दर्शन शास्त्र कुछ और ही बात करता है, उसके अनुसार प्रेम हर एक की आत्मा में रहता है। उसे अहसास कराया नहीं जाता, उसे समझना पड़ता है, उसमे शरीर की उन क्रियाओं को गौण महत्व दिया है, जिनमे स्पर्श की जरुरत होती है। उनके लिए देखने भर से प्रेम प्रकाशित हो जाता है। हमारे यहां कुछ रिश्तों में प्रेम को अवश्यंभावी माना गया है, जिसका नहीं होना, लोगो में कुछ अचरज पैदा करता है, जैसे की माता, पिता, बेटा, बेटी और पत्नी, ये कुछ ख़ास रिश्ते है, जिनका प्रेम को शुद्धता के रुप में ही मिलने को, स्वीकार किया गया है। हालांकि सच्चाई यही है, ये ही रिश्ते ज्यादा तकलीफ में होते है।
प्रेम की सबसे बड़ी कमजोरी चाहत होती है, जब किसी से कोई अपेक्षा की आशा करे, और किन्ही कारणों से वैसा न हो, तो जिंदगी निराशमय हो सकती है। विश्वास और सत्य प्रेम के दो बुनियादी तत्व है, जिससे प्रेम सहज ही अपनी शक्ति का संदेश मन में प्रकाशित कर सकता है।
आइये, इस शृंखला में आगे बढ़ने से पहले कुछ जन्मातिक पारिवारिक सम्बन्धों की संक्षिप्त परिभाषा का अनुसंधान करने की चेष्टा करते है। परिभाषाओं के विश्लेषण में जरुरी नहीं कि लेखक की परिभाषा, आपके अनुसार हो, क्योंकि प्रेम का महत्व सबके लिए अपने अनुभव के आधार पर होता है, परन्तु तय यहीं है, सब रिश्तों में प्रेम की उपस्थिति से इंकार करना मुश्किल है।
पति और पत्नी के रिश्ते को काफी संवेदनशील माना गया है, जिसमे आसक्ति और प्रेम दोनों की जगह तय की गई है, चूँकि यह रिश्ता संस्कारो के निर्माण में सहयोग करता है, अतः इस रिश्ते में वासना का उचित गरिमामय प्रवेश की अनुमति स्वीकार की गईं है। सामाजिक दर्शन ऐसे सम्बंधों में हिंसा को छोड़ कर इसे अवैध करार नहीं करता।
सबसे आदर्श रिश्ता माँ का होता है, जिसमे एक ही तरह का शुभता भरा प्रेम अविरल बहता ही रहता है।
इस प्रेम की विशेषता यह होती है, कि इस प्रेम की पहचान से ही इंसान की जिंदगी शुरु होती है, और उत्तरोत्तर आदमी इसके प्रेम के अलग अलग रंगों की पहचान रिश्तों के सन्दर्भ से करने लगता है। माँ का प्रेम जीवन स्पंदन से शुरु होकर अंत तक बिना किसी शर्त अपना दायित्व निभाता रहता है। इस प्रेम में वात्सल्य और स्नेह का अद्भुत समावेश देखा जा सकता है।
पिता का रिश्ता जीवन को सम्बलता और दृढ़ता प्रदान करता है, यह रिश्ता कुछ दायित्यों से मजबूर होने के कारण स्पष्ट प्रेम नहीं प्रकाशित कर पाता, परन्तु आंतरिक होते हुए भी अनिष्ट से बचाता है। इस रिश्तें के प्रति सन्तान की समझ ज्यादातर कमजोर और भ्रामक होती है। सब प्रेम की किस्मों में उत्तम होते हुए भी पिता के प्रति प्रेम सहमा सा रहता है। माता पिता दोनों के प्रेम को समझने वाला आदमी सही जीवन दर्शन का ज्ञान कर सकता है। माता का प्रेम जहां शांत और शीतल और सहज बहने वाली धारा है, वहां पिता का प्रेम जीवन में आने वाली कठोर चट्टानों के प्रति सक्षमता प्रदान करता है। समझने वाली बात है कि "भगवान न दिखने वाले माता पिता होते है, परन्तु माता पिता दिखने वाले भगवान है।"
सबसे सुखद अनुभूति और दोस्ती जैसा रिश्ता भाई- बहन का होता है, इस में अहसास आत्मिक होता है,
माँ के बाद इंसान सात्विक स्नेह, प्रेम, और विश्वास इसी बन्धन में ढूंढता है। बहन पिता के बाद अपनी सुरक्षा का अनुभव इसी रिश्तें में करतीं है, शादी के बाद भी, इस बन्धन का अपना महत्व है।✍️कमल भंसाली