पर्वों का लोकायत स्वरूप
जीवन के निरंतर स्वीकार और परिष्कार के लिए मनुष्य ने भौतिक विस्तार के साथ ही अपना दर्शन, साहित्य जैसे मानसिक और हार्दिक उपक्रम भी किए हैं । जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति और उसके बेहतर साधनों की खोज के बाद ही मनुष्य ने जीवन के हालात के अनेक उपाधियों का आयोजन किया । पर्व ऐसे ही सांस्कृतिक रचनाशीलता के उपक्रम हैं और और जिनकी जीवन से सहज और अविच्छिन्न संयुक्ति है।
पर्वों के आयोजन के अनेक उत्प्रेरक कारण रहे होंगे। आदिम समाज ने कभी क्षुधा-तृप्ति के सहभोजजन्य उल्लास, कभी देव पूजन तथा कभी ऐसे ही अन्य प्रयोजन के सामूहिक उत्सवों का विधान किया होगा। समाज के विकास क्रम में जैसे-जैसे जीवन के साधनों और आशयों में विस्तार और परिष्कार हुआ पर्वों के उपलक्ष और स्वरूप ही विविध और कलात्मक होते चले गए। कभी देवपूजन और अनुष्ठान बनकर प्रचलित हुए, कभी प्रकृति का अनुकूल, सुखद और उत्पादक रूप उल्लास का निमित्त बना और कभी सामाजिक पारिवारिक संबंधों की स्नेहाकुलता ने औपचारिक एवं विशिष्ट क्रिया कलाप अवसर प्रदान किए।
सभी सांस्कृतिक पर्व लोक पर्व हैं। प्रवर्तन के आधार पर भी और आयोजन के रूप में भी उनका स्वरूप लोकपरक ही होता है। वे किसी के आदेश अथवा किसी की व्यक्तिगत से लोग स्वीकृति प्राप्त नहीं करते ंउन्हें लोक स्वीकृति मिलती है। समान आस्थाओं से, समान कल्पनाओं से, जीवन के प्रति समान अवधारणाओं से पर्वों के आयोजन में अवश्य कभी किसी समाज के प्रमुख व्यक्ति शासक अथवा संस्था का योग रहता है और उसमें भी लोग केवल उपस्थिति के रूप नहीं बल्कि सक्रिय भागीदारी के रूप में रहता है। प्रयोजन परक होते हुए भी पर्व आज के आयोजनों की तरह प्रायोजित नहीं होते। वे प्रकृति से ही लोकायात होते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि वे संयोजित यादृच्छिक अथवा स्वच्छंद होते हैं। शासक अथवा प्रमुख व्यक्ति द्वारा परिवर्तित होते हुए भी यदि कोई पर्व लोकायत नहीं हो पाता है तो उसकी प्रेरणा तथा आयोजना लोकोन्मुख न होकर किसी एक जगह केंद्रित हो जाती ह,ै तो प्रयोजन के विगत या अलग होते ही पर्व का स्वरूप भी समाप्त हो जाता है। लोक पर्वों का स्वरूप सामाजिक व्यवस्था जीवन विधियों, भौतिक उपकरणों तथा वैचारिकता के परिवर्तन के साथ परिवर्तित भी होता रहता है।
भारतीय समाज में छोटे-बड़े अनेक समारोह, व्रत, पर्व, उत्सव आदि के रूप में प्रचलित हैं। वर्ष के अनेक दिन आस्था के किसी जालम मन से जुड़कर श्रद्धा विभक्ति के अनिवार्य अवसर बन गए हैं। चाहे छोटा त्यौहार हो या बड़ा, पर उसमें आधारभूत आस्था समाज होती है। पर्व जीवन के बहुआयामी अन्वेषक अवसर है । व्यापक सामाजिकता का मूल आधार है उनकी समष्टि का आधार , पर्व स्मरण का आकांक्षी होता है। पर्वों में लोकरंजन का प्रभाव आसन्न रहता है । पर्वों के आयोजन का चाहे, वह हो गांव हो नगर हो अथवा मेले के रूप में, उसके बाहर होकर प्रमुख कर उन्हें हैं कि अपने लोगों की सैद्धांतिक साधना न होकर सामूहिक शक्ति होती हैं लोक पर्व उल्लास आस्था सृजन और संस्कृत के अवसर होते हैं। होली, दीपावली जैसे बड़े पर्व से किसी धर्म या व्यक्ति की स्मृति की संबद्धता संभवतः बाद की प्रवृत्ति है ।
लोक पर्वों के फार्म आर्थिक और प्रेरित दोनों पक्ष हैं। जिस पर्व को वह लक्ष्य और सविता अलौकिक थ,े उनमें लोकगीत आत्मिक प्रस्तुति है। धार्मिक, पौराणिक प्रसंग बाद में जोड़े गए। राखी पहनते समय ‘ येन बद्धोबली राजा तेन बंदो महाबलाः’ बलि राजा का श्लोक बोला जाता है, यह उदाहरण है। होली का संबंध होलिका और प्रहलाद से जोड़ना विद्वानों के अनुसार परवर्ती काल का परिवर्तन है। फिर भी धर्म पर्वों का मूल चाहे लोकोत्तर रहा हो , उसका वास्तविक रूप तो व्यवहार में अधिक संगठित हुआ है ।
लोक पर्वों में आवश्यकता के बाद ही सामाजिकता के आदर्श भी नहीं थें पारिवारिक संबंधों को इस मित्र और गूड अर्थ देने वाले अनेक उपलक्ष परवर्ती बन गए। रक्षाबंधन और भाई दूज, भाई-बहन के स्नेह के परिचायक हैं । पितृपक्ष पितरों के प्रति श्रद्धा भाव है और जीवन को नैरंतर्य में देखने का विषय हैं। गुरु पूर्णिमा जीवन का परिष्कार करने वाले तथा ज्ञान देने वाले गुरु के प्रति कुछ भाव है ।
अक्षय तृतीया, रामनवमी, दशहरा, रामनवमी आदि स्मृति पर्व है। इसमें स्मृतिशीलता अतीत की समीक्षा का सफल माध्यम है, पर यदि अतीत अपने यथार्थ रूप में ही जीवित होता है तो वह पूजा उपचार भी संवेदन शून्य बनकर रह जाएगा। इसलिए अतीत जिस रूप में सार्थक और जीवंत रूप में वर्तमान में संक्रमित होता रहता है और वर्तमान भी गतिशीलता से जुड़ पाता है वही स्वागत योग्य होता है। दशहरा आख्यान से जुड़ा विजय पर्व बन जाता है। पर आज लोक व्यवहार में इस पर्व के अनेक रूप हैं । कुल्लू घाटी या मैसूर का दशहरा अपनी अन्य विशेषताओं के लिए प्रख्यात है । बुंदेलखंड के ही एक भाग दतिया का दशहरा भी राज्योत्सव के अभिजात से विशिष्ट रहा है। पर पूरे बुंदेलखंड में दशहरा जिस तरह सामाजिक संबंधों का पर बन गया था, शायद अन्यत्र नहीं । घर-घर जाकर मिलना और एक दूसरे के यहां पान खाना ऐसा रिवाज बन गया, जो सामाजिक परस्परता से यह तत्व का बोध कराता है । चाहे पान का बीड़ा योद्धा द्वारा उठाने की पताका ही सूचक रहा हो पर यह घर जाकर मेल मिलाप का स्वरूप आज के संदर्भ में अत्यंत सार्थक है।
परंपरा किस प्रकार वर्तमान से जुड़कर रूपांतरित होती है और युगीन औषधियों के माध्यम से व्यक्त होती है, इसका एक अच्छा उदाहरण मऊरानीपुर का जलविहार है। अन्यत्र यह पर्व डोल ग्यारस के नाम से भादवा सुदी एकादशी को मनाया जाता है मऊरानीपुर में यह पर्व एक दिन बाद द्वादशी को होता है । इस नगर का यह उत्सव बुंदेलखंड में ही नहीं उसके बाहर भी दूर-दूर तक विख्यात रहा है। इस दिन नगर के विभिन्न मंदिरों के विमान पूरी साज सज्जा से निकलते हैं । प्रत्येक विमान के आगे नृत्यगान होता चलता है। स्वाधीनता आंदोलन के दौर में एक वर्ष ऐसा भी जलविहार हुआ, जब विमानों में देव मूर्तियों को खादी की पोशाक पहनाई गई, विमानों के बाहक भी खादी के कपड़े पहने थे। विभिन्न मंदिरों और घरों में लगी झांकियों में गणेश जी तिरंगा लिए दिखाए गए।
पर्व समाज को जोड़ते हैं । उनसे घर-परिवार में ही नहीं पास-पड़ोस के लोगों में भी आत्मीयता का विस्तार होता है। लोक पर्व सांप्रदायिक अविरोध और सामाजिक संश्लेषण की दिशा में सार्थक निमित्त सिद्ध हुए हैं। हिंदू और मुसलमान अपनी धार्मिक अभिनेता की सचेतना भूल कर एक दूसरे के आयोजनों में हार्दिकता के साथ सम्मिलित होते रहे हैं । हिंदुओं के विमानों के नीचे से निकल कर मुसलमानों ने मानते रहे हैं तो ताजियों के नीचे से निकलकर हिंदू अपनी आस्था व्यक्त करते रहे। कई दरगाह हिंदुओं को भी आपकी भी आस्था-स्थली बन गई । अनेक मुसलमान महिलाएं माता ढारने ( देवी मंदिर में जल चढ़ाने) जाने लगी। अक्षय तृतीया के भीगे हुए द्योल (चने की दाल ) श्रावण तीज की कचरिया तथा नवरात्रि के जवारे हिंदुओं के साथ मुसलमानों को भी बांटे जाने लगे। हिंदू बच्चियों के गलों में विपत्ति तथा रोग से सुरक्षा के रूप में मुसलमान फकीरों संतों के गंडे और ताबीज दिखाई देने लगे। सामाजिक संश्लेषित व लोक संवाद की यह सामाजिक प्रक्रिया जो बहुलतावादी लोकजीवन की प्रकृति होती है, धर्म और राजनीति के व्यवसायियों के कारण आज स्थिति नहीं हुई है, बल्कि प्रतिगामी हुई है।
लोक संस्कृति में प्रकृति का सान्निध्य केवल जड़ परिवेश के रूप में नहीं रहा है बल्कि उस का समावेश जीवन को संचालित करने वाले हेतु के रूप में हैं । मनुष्य ने प्रकृति का उपयोग ही नहीं किया है , बल्कि उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की है। इसीलिए अनेक पर्व प्रकृति से जुड़े हैं, उनमें ऋतुओं का संसर्ग है, स्वागत है। कजरिया और जवारे फसलों के प्राथमिक प्रतीक हैं, हलषष्ठी का त्यौहार अपने समय के उत्पाद महुआ और चना से पूजा जाता है। जेठ दशहरा कृषि कार्य के प्रारंभ का पूजन है । आषाढी देवताओं का पूजन वर्षा का आराधन भी है और स्वागत भी। विभिन्न पर्वों पर ऋतु विशेष में उत्पन्न वस्तुओं का उपयोग तो होता ही है। अक्षय तृतीया के दिन घड़ा, सत्तू , बांस का बीजना (पंखा) जैसी उचित वस्तुओं के दान से वैशाखी ऋतु से संगत बना दिया जाता है। बसंत ऋतु जलवायु की दृष्टि से पूर्णता दायक होती है । प्रकृति की सांस, सभा और नई उमंग पैदा कर देने वाली ऋतु के शीत के संकुचन, ताप के गुदगुदे स्पर्श पाकर भले लगने लगते हैं। जो बोया गया था, उसमें प्राणों के स्पंदन होने लगते हैं। फसलों के कथानक प्रत्याशा की संधि तक पहुंच जाते हैं। यह रसपति ऋतु प्रकृति में ही नहीं मनुष्य में भी रसोत्पत्ति करती है। ऐसे अवसर पर होलिका, जल पूजन पर्व रंजकता के साथ मनाया जाना स्वतः ही है । मदनोत्सव प्राचीन भारत का ऐसा ही रंग पर्व रहा है।
होली का प्रारंभ तो समाज के रागरंग तथा आनंद की भावभूमि पर ही हुआ होगा। राजाश्रय में इसकी सामग्री तथा विधि विशिष्ट होती रही, पर लोक में यह पर्व परस्पर प्रेम और समता के मूल्यों पर केंद्रित रहा। प्रकृति का आसंग अनेक पर्र्वों पर वृक्ष पूजा के रूप में प्रचलित है।
दीपावली आलोक पर्व है, समाज दारिद्रय की स्थिति से निकलकर संपन्नता की कामना और चेष्टा करता रहा है। लक्ष्मी पूजा व्यक्तिगत संपत्ति का प्रतीक तो बाद में बनी होगी, वस्तुतः जैसा हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है ‘‘दीपावली सामाजिक मंगलेच्छा का पर्व है। कृषि और गोपालन की समुन्नत सभ्यता में गोवर्धन पूजा की सार्थकता देखी जा सकती है।
सभी लोक पर्व उल्लास और सृजनेच्छा से अनुप्राणित हैं। प्रत्येक पर्व में व्यक्तिगत और समष्टिगत उल्लास का भाव निहित है। सृजन की प्रेरणा विभिन्न ऋतुओं के पर्वों से तो मिलती ही है। यहां जो तुलसी के पौधे में फूल कर बालें निकले तो भी, व गाय ने बछड़ा दिया हो तो भी, उस मंगलपूजन का स्त्रियांे द्वारा गढ़ा लेकर मनाया जाता है।
इन लोक पर्वों का एक और पक्ष है, उनकी कलापरकता। सभ्यता के विकास क्रम में जो विभिन्न कलाएं विकसित हुई, वे पर्वाें को भी रूपायित करने लगी । मौनिया राई और कोड़रा आदि नृत्य प्रारंभ में पर्व विशेष से ही संबंधित रहे है। प्रायः सभी पर्वों के गीत हैं । अनेक पर्व के अवसर पर मिट्टी के गाड़ी घोड़ा (गुड़िया-गुल्ला) महालक्ष्मी के अवसर पर हाथी से मिट्टी की मूर्ति कला और नौरता अथवा सुअटा से अल्पना कला तथा दीपावली पर सुरांती से भित्ति पर आलेखन कला व्यक्त हुई है।
अभावों दुखों और संघर्षों से जूझते रहने के बाद भी जीवन और संसार के साथ ही लोक समाज के सारे सरोकार जुड़े रहते हैं। उसकी आवश्यकता का अभिप्रेत लोकायत होता है । अलौकिक से वह जो भी मांगता है प्रायः इसी लोक में सुखी जीवन के लिए मांगता है। उसके जीवन में आस्तिकता की आस्था भी है और सभी भौतिक स्थितियां भी हैं । दर्शन और अध्यात्म की बौद्धिकता को वह अपनी तरह व्यवहार्य और अनभिजात स्तर पर ले आता है। इसी क्रम में उसने अपने लोक देवता बना लिए हैं । कारस देव कटोरिया और हरदौल उसके निकट परिवेश में रहते हैं । उसकी आस्तिकता सर्व समावेशी होती है दैन्यीकृत नहीं। इसी तरह उसके उत्साह भी जीवनोन्मुखी होते हैं,जीवनेतर नहीं।
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