SHAHRI BANAAM GRAMIN in Hindi Moral Stories by Anand M Mishra books and stories PDF | शहरी बनाम ग्रामीण

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शहरी बनाम ग्रामीण

बचपन में प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत जी की कविता भारत माता ग्रामवासिनी ...पढ़ते थे. इस कविता में ग्रामीण भारत की अवस्था का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया गया है. कवि के अनुसार भारत माता गाँवों में निवास करती है, अर्थात् सच्चे अर्थों में भारत गाँवों का देश है तथा गाँवों में ही भारत माता के दर्शन हो पाते हैं। यहाँ पर खेतों में हरियाली फैली रहती है और उनमें अनाज लहराता रहता है, परन्तु इसका हरा आंचल मैला-सा अर्थात् गन्दगी से व्याप्त रहता है, अर्थात् यहाँ गाँवों में गन्दगी रहती हैं। भारतमाता की दृष्टि दीनता से ग्रस्त, निराशा से झुकी हुई रहती है, इसके अधरों पर मूक रोदन की व्यथा दिखाई देती है। भारत माता का मन युगों से बाहरी लोगों के आक्रमण, शोषण, अज्ञान आदि के कारण विषादग्रस्त रहता है। इस कारण वह अपने ही घर में प्रवासिनी के समान उपेक्षित, शासकों की कृपा पर निर्भर और परमुखापेक्षी रहती है। यह भारत माता का दुर्भाग्य ही है।

कवि की कल्पना उस वक्त के हिसाब से सही है. आजादी के बाद भी ग्रामीण क्षेत्र में विकास के लिए द्रुत गति से कार्य नहीं किए गए, जिस प्रकार की अपेक्षा रखी गयी थी. सारा ध्यान शहरों की तरफ चला गया. शहरों की आबादी बेतहाशा बढ़ने लगी तथा गांवों से पलायन का दौर आरम्भ हुआ. शहरी और ग्रामीण जीवन में भयानक असंतुलन साफ़ दिखाई देने लगा.

आज कोरोना महामारी ने फिर से ग्रामीण महत्ता को उजागर किया है. पिछले वर्ष से इस आपदा से चानक आर्थिक गतिविधियों की गति धीमी पड़ने लगी है तब यह विमर्श फिर से प्रकाश में आ रहा है कि विकास के केंद्र में क्या हो। पहले नगर तथा गाँव दोनों अलग-अलग ध्रुवों में बंटे थे. शासन-तंत्र विकास के पहिये को शहर की तरफ ही केन्द्रित रखने की कोशिश में रही. ग्राम स्वराज की अवधारणा कहीं पर जाकर गुम हो गयी. हमारी संस्कृति में ग्राम आत्मनिर्भर थे. ग्रामीण जरूरतों की पूर्ति गाँव से ही हो जाती थी. रोटी, कपडा तथा मकान की पूर्ति ग्रामीण अर्थव्यवस्था से हो जाती थी. भूखमरी की नौबत नहीं आने दी जाती थी. हाँ, स्वास्थ्य के क्षेत्र में ग्रामीण अर्थव्यवस्था पीछे रह जाती थी. हो सकता है कि लोगों में ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सामंती सोच के बढ़ने का डर हो. लेकिन ग्रामीण सोच में लोग आपस में मिलजुल कर ही रहते थे. जब लोग पढ़े-लिखे नहीं थे तो लोग परिवार की तरह रहते थे और जब आज अधिकांश आबादी पढ़ी-लिखी है तो परिवार ही समाप्त हो गया. कोरोना से एक बार पुनः ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सुदृढ़ होने की राह आसान हुई है. कृषि आधारित कुटीर उद्योग धंधों का विकास गांवों में करना अभी हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए. कुटीर उद्योग प्रकृति के अत्यधिक निकट हैं तथा यह अत्यधिक टिकाऊ है. इसमें खतरे कम हैं. सभी ‘हाथ’ को काम की व्यवस्था भी हो सकेगी. हो सकता है कि कुछ लोग इससे असहमत हों तथा यह पाषाण युग में लौटने जैसी लगती हो लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था को देखकर यही बात ‘स्थायित्व’ को प्रदान करने में सहायक होगा. उसके बाद ही हम भारतमाता ग्रामवासिनी का गीत गुनगुना सकते हैं. भारत गांवों के विकास से ही सुसंस्कृत, सुसंपन्न, सभ्य तथा सोने की चिड़िया बन सकता है.