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थोड़ी देर बाद लोग आने लगे और वह समोसे बेचने लगा। पूरे गॉंव में वह ही बढ़िया समोसे बनाता था। दो-चार और लोगों ने भी समोसे की रेहड़ी लगाई, मगर किसी के समोसे ख़ास नहीं चले। लोग हरिहर के समोसे बड़े चाव से खाते थें । आज देर से ठेला क्यों लगाया तने ? समोसे बने नहीं थे, क्या? लोहिया चाचा ने सवाल किया। नहीं, वो मैंने सुबह ही बना लिए थें, बस तले अब हैं। हरिहर ने उसे समोसा देते हुए कहा । का बात है, कउनो परेसानी है क्या ? लोहिया चाचा वही पास ही रखे लकड़ी के स्टूल पर बैठ गए ? ग़रीबी ही सबसे बड़ी परेशानी है चाचा। आज तने ग़रीबी कैसे याद आ गई। तू इतना होसियार है, आठवीं पास है । गॉंव के लोगन को इति अच्छी-अच्छी बात बतलाता हैं। फ़िर आज क्या हो गयत। हम कह रहे है कि दूजा व्याह करवा ले, खुश रहेगा । काका ने समोसे को मज़े से खाते हुए कहा । आप हमार पीछे क्यों पड़ जात हों । भागों को गुज़रे छह महीने हुए है । और वो बहुते याद आती हैं। हरिहर उदास होकर बोला। तभी थोड़े और लोग समोसे लेने आ गए और लोहिया चाचा "तेरी तू ही जाने हरि" बोलकर चले गए ।
सूरज ढलने लगा। उसे पता है, अब वो बस आधे घण्टे और रुकेगा, फ़िर रमिया काकी के घर से बच्चों को ले लेंगा। बच्चे अगर फ़िर स्कूल के बारे में पूछेंगे तो क्या ज़वाब देंगा । उसने समय से समोसे का ठेला बंद किया । मगर घर की तरफ जाने की बजाए, वह पीपल के पेड़ के पास से जाती नहर के पास बैठ गया। तभी भीमा ने उसे वहाँ बैठे देखा और उसके पास चला आया । भीमा उसके बचपन का दोस्त है। दोनों इकट्ठे आठवीं तक पढ़े। फिर हरिहर ने पढ़ाई छोड़ दी तो भीमा का मन भी पढ़ने से उचाट हो गया । क्यों नहर में कूदने का मन है क्या? भीमा ने पास बैठते हुए पूछा । दो-दो बच्चों को किसके सहारे छोड़ भागो के पास जाऊँगा, वो बात न करेंगी। हरिहर ने जवाब दिया। क्या हुआ फिर? आज स्कूल गया था, बच्चों के दाखिले के लिए मगर बात नहीं बनी। हरिहर ने ज़वाब दिया। मुझे पहले ही पता था नहीं बनेगी, मैंने सुबह तुझे स्कूल की तरफ़ जाते हुए देखा था, पर तुझे रोककर तेरे बच्चों के सामने कुछ कहना ठीक नहीं समझा। देख ! अपनी तरफ़ के गॉंव के स्कूल में उन दोनों का दाखिला क्यों नहीं करवा देता। क्या ज़रूरत है, उस स्कूल में बच्चों को भेजने की? भीमा ने समझाते हुए कहा।
हमारी तरफ़ के स्कूल की हालत देखी है न तूने । भागो का सपना था, बच्चे पढ़-लिख डॉक्टर बने । मरते वक़्त भी उसने मुझे यही याद दिलाया था । तू और मैं ऊँची जात के बच्चों के साथ इसलिए पढ़ पाए, क्योंकि हमारे बापू जमींदार के गुलाम बनकर रहे । उनके मरते ही हमारा स्कूल खत्म । फ़िर मेरा बापू मर गया तो मेरी पढ़ाई भी ख़त्म । तेरे बापू ने बड़ा ज़ोर लगाया था कि तेरा स्कूल न छूटे । मगर तू भी बावरा, मेरे निकलते ही स्कूल से भाग गया था । हरिहर ने नहर में पत्थर फ़ेंकते हुए कहा ।अकेला क्या करता वहाँ? तू हिम्मत वाला था। मुझे वो नासपीटे ज़मीदार के छोकरे मारकर इसी नहर में फैंक देते और किसी को पता भी नहीं चलता। भीमा की आवाज़ में गुस्सा था। आज कौन सा हम सुखी है ? यह गॉंव भी बँटा हुआ है। हमारी बस्ती अलग उनकी बस्ती अलग । इस नहर का पानी भी हमें पूछकर लेना पड़ता हैं । एक वही ज़िले का अच्छा स्कूल है । और अपनी जात के बच्चे भी पढ़ते हैं । मगर मेरे बच्चों के लिए जगह नहीं हैं। वाह ! री किस्मत हाथ में आता है, मगर मुँह नहीं लगता हैं। हरिहर की आवाज़ में आक्रोश था ।
ठीक से बता कि क्या हुआ था ? भीमा ने उसके कंधे पर हाथ रखकर पूछा । तभी हरिहर की आँखों के सामने सारा मंज़र तैर गया, जो उस स्कूल के कमरे में हुआ था ।
प्रधानाचार्य मोतीलाल आँखों पर चश्मा चढ़ाए बड़े ध्यान से फ़ाइल देख रहे थें । हरिहर हाथ जोड़े कुछ मिनटों तक खड़ा रहा । फिर जैसे ही मोतीलाल ने निगाह ऊपर कर हरिहर को देखा तो उसने मुसकुराकर 'नमस्ते' कहा । मोतीलाल ने उसे बैठने के लिए कहा । वह घबराता हुआ कुर्सी पर बैठ गया और उसने कहना शुरू किया । सरजी, बच्चों का स्कूल में दाखिला करवाना हैं, आपकी कृपा हो जाती, बड़ा एहसान हो जाता । हरिहर ने हाथ जोड़कर कहा।
कहाँ से आये हों? क्या नाम है ? सर जी ने पूछा ।
जी हरिहर, शकूरबस्ती से आया हूँ ।
सरजी ने चश्मा साफ़ किया और कहा, शकूरबस्ती? कौन सी तरफ से आये हों?
हरिहर थोड़ा झिझककर बोला, जी नहर के दाहिने तरफ़ से आया हूँ ।
सरजी के हाव-भाव थोड़े बदल गए और उन्होंने पूछा, क्या काम करते हों ?
जी, समोसे का ठेला है, मेरा । हरिहर ने ज़वाब दिया ।
देखो भाई, दाखिले ख़त्म हों गए हैं, तुम लेट हों गए । अब अगले साल कोशिश करना। सर जी ने बात ख़त्म करते हुए कहा ।
सर जी, राम बिस्वास का लड़का आपके स्कूल में पढ़ रहा हैं। उसने बताया था कि रोज़ नए दाखिले हों रहे हैं । हरिहर की आवाज़ में हिचक थीं ।
तुम्हें क्या लगा, मैं तुमसे झूठ बोल रहा हूँ, जो सच था, वह बता दिया । अब जाओ यहाँ से, सरजी की आवाज़ ऊँची थीं। सरजी गरीब आदमी हूँ, मैं खुद ठीक से पढ़ नहीं पाया था, मेरा बापू ज़मीदार की चाकरी करता था । उसने तरस खाकर मुझे इस स्कूल में दाखिला दिलवाया था । उनके मरते ही पढ़ाई छूट गई, फ़िर बापू भी मर गया । पत्नी भी छःमहीने पहले चल बसी। जाते -जाते कह गई कि बच्चों को पढ़ाना । थोड़ा रहम करो हज़ूर । कोई सीट खाली हों तो देख लो। राम बिस्वास के लड़के का भी दाखिला हो गया हैं। हमारे ऊपर भी मेहरबानी करो। बोलते-बोलते हरिहर की आँख भर आई।
देख हरिहर, अपने बच्चों की दूसरे के बच्चों से तुलना मत कर । हमारे पास जो कोटा था । वो पूरा हो गया हैं । और तूने अभी खुद ही कहा कि तू गरीब हैं। फ़िर मैं तेरी मदद कैसे करो ? सरजी कुर्सी को पीछे खींच गर्दन टिकाकर बोले।
मैं कुछ समझा नहीं सरजी, ग़रीब की मदद पुण्य का काम है। हरिहर अब भी विनय कर रहा था। पुण्य मैं किसी और से भी कमा लूँगा। मेरा परिवार भी है, उसे चलाने के लिए सिर्फ़ स्कूल की तनख़्वाह काफ़ी नहीं है। राम बिस्वास ने बीस हज़ार रुपए दिए हैं । तेरे पास है तो देखते हैं , शायद कोई सीट खाली हों जाए। वरना अपने बच्चों को अपनी तरफ़ के स्कूल में दाख़िला करवा दें । यह रामसपुर ज़िले का सबसे बढ़िया स्कूल हैं । यहाँ ऐसे नहीं जगह मिलती ।
सरजी की बातें सुनकर हरिहर का होंसला उस कुरसी पर बैठने का नहीं रहा। वह धीरे कदमों से बाहर की तरफ़ जाने लगा । पीछे से सरजी ने कहा, तुम ग़रीब हरिजन सपने भी वहीं देखो जो पूरे कर सको।
हरिहर ने कुछ नहीं कहा और वो आवाज़ अभी उसके कानों में गूँज रही थीं । और जब उसने आँसुओं से भरी अपनी आँखें साफ़ की तो सामने भीमा खड़ा था ।