वासना" शब्द कि विडम्बना यही है, एक जायज क्रिया के साथ नाजायज की तरह व्यवहार किया जाता है। अंदर से सबका इससे आंतरिक रिश्ता होते हुए भी, इस के प्रति अवहेलना और तिरस्कार पूर्ण नजरिया रखते है। आखिर, वासना से इतनी घृणा क्यों ? क्या वासना प्रेम की एक जरूरत नहीं, क्या वासना आकांक्षाओं का सुंदर स्वरुप नहीं है ? ऐसे और भी सवाल है, जिनके उत्तर हम यहां तलाशने की कोशिश करते है, पर उससे पहले हमें वासना का सही परिचय प्राप्त करना होगा।
वात्सायन ऋषि थे, उन्होंने वासना के एक स्वरूप कामवासना के बारे में बहुत कुछ लिखा, उन्होंने भी स्वीकार किया, बिना वासना प्रेम का अस्तित्व नहीं है, हकीकत में बिना वासना प्राणी जीवन धरती पर आ नहीं सकता। ये संसार बनानेवाले का महत्व पूर्ण चिंतन का वास्तविक कारण है, अतः वासना शब्द से नफरत करना कहीं भी जायज नहीं लगता। यहां यह बताना जरुरी है, अभी, हम यहां कामवासना नहीं, सिर्फ वासना के बारे में बात कर रहे है। दोनों में बुनियादी फर्क इतना ही है, काम का शरीर से, और वासना का मन से सम्बन्ध है। अतः कामवासना का मतलब हुआ, मन की दैहिक या शारीरिक वासना।
जब की वासना का इंगित रुख सिर्फ मन और आत्मा से जुड़ा है, जिसे इंग्लिश में हम "Lust" के नाम परिचित है, हालांकि दोनों जीवन साथी है।
वासना के शाब्दिक अर्थ पर बिना गौर किये, उसके बारे में सही मूल्यांकन प्राप्त करना असंभव है, वासना का सही अर्थ है, कामना, इच्छा ( जैसे मन की वासना ), भावना ( जैसे काम वासना ), अज्ञान, ( जैसे वासना का तिरोहित होना )।
गौर कीजिये, कौन सा प्रेम है, जिसमे कामना, भावना और अज्ञान का समावेश न हों। किसी भी रिश्ते के प्रेम में इसके किसी एक तत्व का समावेश तो रहेगा। माँ के रिश्ते पर गौर करे, तो इसमे भविष्य की सुरक्षा तिरोहित है। हमारी विडम्बना है, हम सत्य से दूर भागते रहते है, उसका सामना करना, हमारे वश कि बात नहीं है। हम प्रेम की बात करते है, पर जब वासना से सम्बंधित कोई चर्चा आती है, तो मानों हम असभ्य लोगों के प्रदेश का सफर कर रहे है। समझने की बात है, शरीर प्रेम से बना है, और जिंदगी भर प्रेम पाने में अपना अस्तित्व खो देता है, ज्यादातर असफल होकर इस संसार से विदा भी हो जाते है। असफलता का एक ही कारण है, उसने प्रेम में तो वासना को ढूंढा, पर वासना में प्रेम ढूंढने से वो कतराता रहा। मूल के प्रति उसका लगाव कम होता, ब्याज के आकर्षण में ही फंसता है, यह मानव स्वभाव है।
वासना शारीरक और मानसिक क्षमता को पूर्ण करने वाला महत्वपूर्ण सूत्र है, इसकी अवहेलना करना, अपने अस्तित्व को नकारना जैसा है। शरीर सम्बन्धी वासना एक दैहिक क्रिया है, इसके अलग अलग स्वरुप है। भारतीय संस्कृति इसके एक ही स्वरुप को मान्यता देती है, वो है, पति-पत्नी के रिश्तों में, जिसे सामाजिक मान्यता प्राप्त हो गई है। पर, वास्तिवकता क्या है ? अब यह एक विश्वास का प्रश्न है, जिसका उत्तर भी शायद सही न हो, पर यह सही है, आज रिश्तों के दूसरे दायरों में भी इसे स्वीकार किया जाता है।
दैहिक वासना का स्वरूप आधुनिकता ने इतना बिगाड़ दिया, की समलैंगिता के सम्बंधों की मान्यता के लिए आंदोलन होने लगे है, कई देशो में जिनमे हमारा देश भी शामिल है, उन्हें मान्यता देने के करीब पँहुच रहे है। हकीकत यही कहती है, जो भी कर लो, अपने स्वार्थी आयाम बदल लो, पर प्रकृति अपने उद्धेश्य से कभी नहीं भटकती है, मानव भटकता है, और अपना नाश वो खुद ही अपनी हरकतों से खुद ही कर लेता है। चूँकि हमारा यह विषय यहां नहीं है, अतः हम इसे वक्त के ऊपर ही छोड़ देते है। बाकी हम को स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए, कि वासना से हम भी वंचित नहीं रह सकते, परन्तु उचित और अनुचित के दायरे में रहे, तो जीवन निर्णायक पथ का हकदार बन जाता हैं।
वासना का मनोज्ञान करना है, तो "आत्मा" शब्द पर आस्था जरुरी है, जो इस सरंचना के पक्ष को नहीं पहचाने की कोशिश करते, उनके लिए वासना दरिंदगी से ज्यादा कुछ नहीं हो सकती, हकीकत में वो सामाजिक सुरक्षा पर आक्रमण करने वाले दानव बन जाते है। काम, शरीर की स्वभाविक और प्राकृतिक क्रिया है, सुंदरता से काम विचलित होता है। काम जब संयमित नहीं रहता, तो उसका सौंदर्य बोध अपराधिक आकार में बदल जाता है, और अत्याचार और दुराचार की सारी सीमायें लांघने की कोशिश करता है। आत्मा की पवित्रता इसे रोकने की जबरदस्त कोशिश करती है, धर्म के प्रति आस्था की बातें समझाती है, इसके बावजूद भी अगर वासना का रुप नहीं बदलता, तो मानवता को अनिष्टता झेलनी पड़ती है। आज साधनों की अतिरिक्तता ने हमारी चाहतों पर तेज गति के पंख लगा दिए है, हमारी इच्छायें अनियमित हो रही है, काया को सुखी करने माया की जरुरत बढ़ रही है, तब हमें समय कहां, ये चिंतन करने का कि नैतिकता हमारी आत्मा में किधर सो रही है ?
जेस सी स्कॉट के अनुसार "मानव कला का बेहतरीन नमूना है"। कुछ मानको में ऐसा ही लगता है, बनाने वाले ने उसमे हर तरह के रंग का प्रयोग किया है। जब चित्र सुंदर हो तो निश्चित है, उसकी चाहत सभी को होती है, नारी-पुरुष का शरीर जब कलाकार की उत्तम कृति हो, तो चाहत को वासना के सन्दर्भ ही मूल्यांकित करना ठीक होगा, प्रेम तो भीतरी तत्व है, उस में चाहत को तलाशना, सही नहीं कहा जा सकता। नो रस से बना प्राणी, किसी भी रस से अछूता कैसे रह सकता है ? ज्ञानी से ज्ञानी आदमी कह नहीं सकता, उसके पास एक भी चाहत नहीं है। जयशंकर प्रसाद का एक काव्य ग्रन्थ " कामायनी" है, उनकी इस रचना की सबसे बड़ी खूबसूरती यही है, हमें अहसास दिलाता कि मानव मन का दर्पण गुण और अवगुण नहीं दिखाता, वो तो उसकी सही मानसिकता की पहचान कराता है, समयनुसार वो उनसे अपनी बुद्धि और विवेक से उनसे अपना श्रृंगार करता है। फ्रायड ने वासना को दैहिक जरूरत माना, और उसने इसकी सीमित स्वतंत्रता को उचित ठहराने में कई परीक्षणों का उदाहरण दिया। कार्ल जुंग स्विट्जरलैंड के एक प्रतिभाशाली मनोवैज्ञानिक और धर्म शास्त्रों के जानकार थे, शुरुवाती दौर में वो फ्रायड के मनोविज्ञान के ज्ञान से प्रभावित थे, परन्तु वो उनकी इस बात से कभी सहमत नहीं हुए कि मानव वासना एवं अन्य इच्छाओं का दास है। 1937, में जुंग भारत आये, और महर्षि रमन के सानिध्य से समझ गए कि " मानव के भीतर असीमित शक्तियां है, यदि वासनाओं एवं इच्छाओं का रूपांतरण कर दिया जाय तो मानव जीवन एक अनमोल वरदान साबित हो सकता है"।
प्रेम और वासना दोनों को समझना आसान नहीं होता, ऊपरी सतह पर हम इनका विश्लेषण आत्मा और शरीर की प्रक्रिया के रुप में ही करते है, पर जब कभी हमें प्रेम को कसौटी पर कसना पड़ता है, तो हमें लगाव रुपी वासना का सामना करना ही पड़ेगा। वासना मानव मन की सबसे बड़ी दुर्बलता है, क्योंकि जिन तीन तृष्णाओं से मन बंधा दासत्व भोगता है, उसमें कामतृष्णा, भव तृष्णा और विभव तृष्णा
तीनों का संगम होता है। समझने की बात है, संसार पुरुष और नारी द्वारा बना है, उनका आपसी आकर्षण असामान्य नहीं हो सकता क्योंकि दोनों के लिए रुप, शब्द, गंध, रस और स्पर्श से बढ़करअन्य कोई आलंबन नहीं होता । ओशो यानि आचार्य रजनीश के अनुसार "निषेध" मन के लिए निमंत्रण है, विरोध मन के लिए बुलावा है, और मनुष्य जाति इस मन को बिना समझे आज तक जीने की कौशिश करती रही है। सारांश यहीं है, प्रेम निराकार होता है, ह्र्दय से अहसास किया जा सकता है, पर वासना आकारित होती है, अतः चेहरे की रुप रेखा में सम्माहित होती है, किस रुप में, कब पैदा होगी, कहा नहीं जा सकता।✍️कमल भंसाली