उपन्यास भाग—१२
दैहिक चाहत –१२
आर. एन. सुनगरया,
देव एकान्त में अपने अतीत को खंगाल रहा है। क्या खोया, क्या पाया, तर्कपूर्ण
न्याय संगत, पक्षपात रहित दृष्टिकोण से सम्पूर्ण पूर्व दु:ख-सुख युक्त वाकियों को हर स्तर पर परखने के बाद ज्ञात हुआ कि हाथ कुछ नहीं लगा, हाथ खाली के खाली, सब कुछ गंवाया ही गंवाया। निस्वार्थ भावना से लुटाता रहा, लोग मुझे रिश्तों के बन्धन का वास्ता देकर दोनों हाथों से समेटते रहे, अपनी झोली भरते रहे। जब प्रतिफल की इच्छा जताई, तब अपमान, दुत्कार का मंजर मिला देखने के लिये। उम्मीदों, आशाओं, अपेक्षाओं के सहारे सारे घरौंदे भर-भरा कर जमींदोज़ हो गये।
अपना बचा-खुचा आत्मसम्मान लेकर लौट पड़ा अपना सा मुँह लेकर। तड़पता रहा, छटपटाता रहा, अदृष्य अंग्गार में भुनता रहा..........।
शीतलता की अनुभूति हुई शीला के सम्पर्क में आने के उपरान्त.........राहत का एहसास हुआ।
संयोगवश ऑफिसिअली साथ-साथ रहने का अवसर निरान्तर मिलता रहा। दोनों में बात-व्यवहार, आचार-विचार, इत्तेफाक से अनुकूल होने के कारण, एैसे हालात निर्मित होते गये कि भावात्मक-बौद्धिक स्तर पर परस्पर एक-दूसरे के प्रति अनायास अथवा स्वाभाविक रूप में आकर्षित होते रहे। दोनों के बीच एक मानवीय अपनापन पनपने लगा। कब शीला, देव को, एवं देव, शीला को पसन्नद करने लगे, चाहने लगे प्रीत प्रस्फुटित होती गई, प्यार, प्रेम, मौहब्बत के अंकुर फूट पड़े हृदयांगन में....देव-शीला आलिंगनवद्ध होकर भविष्य के सपने बुनने लगे। सम्बन्ध उत्तरोत्तर घनिष्ठ होते गये आभास ही नहीं हुआ.......फीलिंग यहॉं तक पहुँच गई कि जुदा होने के एहसास भर से दिल-दिमाग, आत्मा, अन्त:करण में तड़प की अंग्गार सुलगने सी महसूस होने लगती है.........। बैचेनी बढ़ने लगती है। उदासी हावी होने लगती है। जीवन विरक्ति का आभास होने लगता है।
देव की बन्द ऑंखों में, शीला का चेहरा समाया हुआ है। निखरा-निखरा, लावण्य से दीप्त, भरे-भरे औंठ, गालों का गब्बदूरापन, ऑंखों की शराबी शुरूर की चमक, संतुलित सजा-सम्भरा शरीर भरपूर कद-काठी, मुलायम-मुलायम स्पर्श की अनुभूति चिकनी-चिकनी, रोशम से रेशमी, पुष्प लताओं की लटों का झुरमिट होले-होले हिल्ती लहराती केशों की काली-काली घटायें, जिनमें छुप जाने, दुबक जाने.......का मन करता है.........छुअन मात्र से तन-मन में हुश्नों–शवाब की तरंगें तरंगित होने लगती हैं। ये नशीले नजारे विस्मृत होना सम्भव नहीं; चाहता भी नहीं भूलना। शेष जीवन की शाम इन्हीं गुलाबी नजारों के साये में गुजार देने की हसरत है।
देव तो कब का कॉल्लाप्स हो चुका होता, जीवन से विरक्त होकर, गुजरने की हद तक उदासीन हो चुका था। मगर एनवक्त पर शीला का सहारा मिला। उसने देव को जीवन संघर्ष का मन्त्र दिया। जिन्दगी जीने का मकसद दिया। आत्मीयता, सम्वेदनपूर्वक बताया, दिल सदैव मौहब्बत के लिये धड़कता है, फिर चाहे उम्र का कोई भी पढ़ाव क्यों ना हो। हर मोड़ पर दिल की भावनाऍं जवान रहती हैं। अनुकूल आवोहवा पाकर प्यार, प्रेम, प्रीत, स्नेह के लिये तत्पर रहता है।
देव सोचने लगा, शेष जीवन पर शीला का एहसान ही नहीं, पूर्ण अधिकार भी है। देव मात्र कृतज्ञ है। अब तो बस एक ही ध्येय है, शीला को हमेशा खुश, प्रसन्न, खुश हाल रख सकूँ। भूले से भी कोई खील-कॉंटा ना चुभने पाये। यही देव के ज़मीर की पुकार है।
शीला का प्रत्येक पोस्चर लुभाता है, किसी भी पोषाक में सुसज्जित हो, दिल-दिमाग को तरंगित कर देती है। सुन्दरता मोहित कर देती है। उसके हाव-भाव, भाव-भंगिमा, बात-व्यवहार, में महकती मिठास हृदय स्पर्शिय ध्वनी, हल्के शुरूर की भॉंति, कर्णप्रिय संगीत की सरगम भंवरे के गुन्जन के माफिक प्रतिध्वनित होती रहती है। ऐसा स्वर्ग सा शमा सम्पूर्ण शरीर, बल्कि समग्र अस्तित्व मे रच-वश गया है। ये नहीं छूटेगा, प्राण भले ही छूट जायें ! याद किया, शीला चली आ रही है; मतवाली, मस्त मुस्कुराती, मटकती, मुटुकती ! मूड मन माफिक लगता है। यही तो टेलिपैथी कहलाती है।
‘’ऑफिस की सभी पेंडिंग फाइलें निबटाकर नोटशीट साइन करके डिस्पेच्च में भेजकर आ रही हूँ।‘’ सोफे पर पसर कर बैठ गई शीला ।
देव एक टक मूर्ती मुद्रा में बैठा, सिर्फ उसके एक्शन देखता जा रहा है, कितनी निश्चिंत, रिलेक्स, जैसे किला फतेह करके आ रही है, झिलमिलाते मुख मंडल पर विजय की लालिमा महसूस हो रही है, समूची-की-समूची सौन्दर्य की प्रतिमूर्ती लग रही है।
‘’क्या हुआ !’’ शीला ने हंसते हुये उसे छेड़ा, मशखरी मुद्रा में मुस्कुराते हुये।
‘’वला की एनर्जेटिक लग रही हो..........इतना काम.......चेहरे पर शिकन तक नहीं.......खिली-खिली सी ललायित कर रही हो।‘’ देव एकदम करीब सटकर कान में बोला, ‘’कहो तो......।‘’
‘’चम्पी मालिश......।‘’ शीला तुरन्त बोली, ‘’क्या इरादा........।‘’ मुस्कुराकर मजाकिया मुद्रा में, ऑंखें तरेर कर, ‘’बस एक कॉफी.........बहुत......।‘’
‘’अभी हाजिर.........।‘’ देव किचिन की ओर मुखातिब हुआ। शीला बोली, ‘’…..मदद करती हूँ।‘’ सोफे से उठ खड़ी हुई।
दोनों एक-दूसरे के कमर में हाथ लपेटे, किचिन की ओर चल दिये, जैसे रंगबिरंगी चिन्गारियां सी चमकने लगीं तन-बदन में, लगा, फुलझडि़यॉं जल रही हैं, रंगीन !
शीला-देव अपने-अपने मग हाथों में थामे, टी टेबल पर रखकर सोफे पर बैठ गये, आमने-सामने फेस-टू-फेस दो-चार चुस्कियाँ चूस कर देव ने बोलना प्राराम्भ किया, ‘’जिस्मानी, मानसिक एवं आत्मिक स्तर पर, बेखुदी का आलम सिलसिले के रूप में इतने आगे निकल चुका है कि लौटना असम्भव है।‘’
शीला सधी हुई सामान्य गहरी निगाहों से निडरता पूर्वक निहार रही है, देव को। वह क्षण भर के लिये असहज महसूस करती है।
देव को लगा, शीला तत्क्षण कुछ बोल पड़ेगी, मगर वह चुप रही। अगले ही पल बोलना प्रारम्भ की, ‘’कुदरती करिश्माई कारणों के कारण ही यह सब सम्पन्न हुये स्वर्ग सम स्वप्न साक्षात...।‘’
‘’ना कोई, रोक-टोक, ना विरोध ना बाधा......।‘’ देव ने एक सॉंस में कह दिया। निर्विवाद........!
‘’समाज सर्वव्याप्त संस्था है।‘’ शीला ने यथार्थ युक्त सत्यता बताई, ‘’आज नहीं, तो कल सामाजिक दायरे में, लाख गोपनीयता को चीरकर, आंकलन के धरातल पर, अवश्य परखा जायेगा।‘’ शीला ने आगे कहा, नीति-अनीति, वैध-अवैध, जायज-नाजायज, दण्डनीय-अदण्डनीय, जात-बिरादरी से बहिष्कृत-अबहिष्कृत, निन्दा-अनिन्दा, थू-थू, लज्जित-निर्लज्जित इत्यादि-इत्यादि, ना जाने कितने अन्जामों से भयभीत किया जायेगा।‘’
देव ने मोर्चा सम्हाला, ‘’ऐसा कुछ नहीं होने वाला है, किसी का मुँह खुले इससे पहले ही सम्पूर्ण सम्भावनाओं समाधान का समुचित उपाय कर लिया जायेगा।‘’
गुमसुम गम्भीर बैठी शीला की चेयर के पीछे खड़े होकर देव ने शीला के कन्धों पर सहानुभूतिपूर्ण हथेलियॉं रखकर, झुकते हुये, चेहरे का साइडव्यू देखते हुये कहा, ‘’मैंने ब्ल्युप्रिन्ट तैयार कर लिया है। सिर्फ तुम्हारी मंशा व अनुमती की प्रतीक्षा है।‘’
‘’कुछ स्पष्ट करेंगे।‘’ शीला ने हल्के रौब पूर्वक कहा।
‘’हॉं क्यों नहीं......।‘’ देव टेबल पर शीला के रू-ब-रू ऑंखों में ऑंखें डालकर कहता है, ‘’तनूजा-तनया का दृष्टिकोण तो पता चले, उनकी मंशा, उनके व्यू, उनकी रजामंदी, उनके सवाल, शंका-कुशंका, भविष्य की सम्भावित स्वाभाविक समस्याओं के निराकरण हेतु आस्वासन इत्यादि-इत्यादि।‘’
शीला अत्यन्त गम्भीर होकर बोली, ‘’बेटियॉं तो जिन्दगी के अविभाजित अंग हैं।‘’
‘’यही तो है।‘’ देव ने अपनी मंशा जाहिर की, ‘’मैं चाहता हूँ कि बेटियों को तनिक भी प्रभावित हुये बगैर सारे कार्यकलाप सम्पन्न कराने होंगें।‘’
‘’ठीक सोचे.......।‘’ शीला ने देव का खुलकर समर्थन किया, ‘’क्यों ना उनसे स्पष्ट चर्चा कर ली जाये।‘’
‘’अवश्य !’’ देव ने दृढ़ता से कहा। शीला के केश एवं गालों पर अपनी हथेलियॉं सटाकर उसे गौर से, चहेती चक्षुओं में देखा, ‘’तुम्हारी समझदारी का मैं कायल हूँ।‘’ उसी मुद्रा में, लहजा बदल कर आगे कहा, ‘’आदमी को खुशहाल जीवन के लिये क्या चाहिए, तुम्हारी जैसी प्यारी समर्पित साथी एवं आज्ञाकारी सम्मान करने वाली सुसंस्कारी बेटियॉं, हो गया सुख सम्पन्न जीवन।‘’
‘’इरादा क्या है, चिकनी-चुपड़ी बातें करने का ।‘’ शीला ने मधुर मुस्कान से माहौल को मस्खरी, मस्ती भरा बना दिया।‘’ दिलकश अंगड़ाई लेती हुई शीला खड़ी हो गई।
‘’चलो आराम करते हैं।‘’ देव ने प्रेमपूर्वक अपनी मनोभावना का ईशारा किया। दोनों एक-दूसरे के पहलू में चिपक कर साथ-साथ आरामगाह की ओर रेंगने लगे।
‘’तुमने मुझे सकारात्मक सोच दी।‘’ देव ने शीला को पहलू में थामें हुये ही कहा, ‘’तुम्हारा एहसान है, उम्रभर साथ दूँगा।‘’
‘’अपने-आपको सम्हाला है, तुमने।‘’ शीला ने देव को अपनी अन्तर्मन की शक्ति की याद दिलाई।‘’
‘’अगर तुम मुझे जीने के लिये प्रोत्साहित ना करतीं तो......।‘’ देव ने शंका जताई।
‘’जन्मजात रिश्ते, अटूट होते हैं, कहलाते हैं, मगर स्वार्थपूर्ण स्थिति, परिस्थिति उत्पन्न होते ही ये रिश्ते अपनी पारिभाषिक पहचान खो देते हैं। स्वहित, लालच के कारण विखण्डित होते-होते पूर्णरूपेण अपनी सार्थकता समाप्त प्राया होने लगती है। जो बगैर पोषण के, रिश्ते कोरे नाम के रह जाते हैं।‘’ देव ने तार्किक रूप से अपनी जिन्दगी की आप बीती और अनुभव के आधार पर स्वयं की धारणा बताई।
शीला खामोशी पूर्वक गम्भीरता से देव के दिली उद्गार सुन रही थी। देव ने अपनी बात आगे बढ़ाई, ‘’हमारा सम्बन्ध मुंह बोला जरूर है, मगर इसका मुख्य धरातल अपनापन है। हृदयात्मक लगाव पर आधारित है। परस्पर सम्वेदनशीलता से बन्धा है। इसमें प्रेम, प्रीत, प्यार, मौहब्बत का स्पन्दन है। सहानुभूति अनुभव, समर्पण, संतुष्टि तृप्ति है। इनके अलावा स्वार्थपरता का भविष्य में आभास तक नहीं है। एक-दूसरे पर परस्पर दृढ़विश्वास है।‘’ देव जोश में आ गया। चेहरा लाल, तमतमाने लगा।
शीला को लगने लगा, देव अपने कोमल भावनाओं के आवेग के प्रभाव में बहे जा रहा है। भावुकता को अहमियत देते हुये उसे अपने प्रिये की भॉंति आलिंगन में समेट लिया।
शीला ने सान्तवना दी, कभी-कभी अतीत के दुष्प्रभावों की परछाईयों के कारण खीज होने लगती है............सम्हालो अपने आपको......।‘’ शीला ने लाड़ले अन्दाज में कहा, ‘’तुम्हें बिफरते देखकर मैं भी दु:खी होने लगती हूँ।‘’ शीला ने देव की देह पर अपनी बाहों का कसाव बढ़ाया।
‘’तुम्हें दु:खी नहीं देख सकता।‘’ देव दृढ़ता से देखने लगा, शीला को, ‘’कुछ भी देखा जा सकता है, दु:खी नहीं.........।‘’
दोनों सहानुभूति पूर्वक और चिपक कर मौन खड़े रहे.............।‘’
न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्
क्रमश:---१३
संक्षिप्त परिचय
1-नाम:- रामनारयण सुनगरया
2- जन्म:– 01/ 08/ 1956.
3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्नातक
4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से
साहित्यालंकार की उपाधि।
2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्बाला छावनी से
5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्यादि समय- समय
पर प्रकाशित एवं चर्चित।
2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल
सम्पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्तर पर सराहना मिली
6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्न विषयक कृति ।
7- सम्प्रति--- स्वनिवृत्त्िा के पश्चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं स्वतंत्र
लेखन।
8- सम्पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)
मो./ व्हाट्सएप्प नं.- 91318-94197
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