आस्था का धाम काशी बाबा 6
(श्री सिद्धगुरू-काशी बाबा महाराज स्थान)
( बेहट-ग्वालियर म.प्र)
वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त
समर्पण-
परम पूज्यः- श्री श्री 1008
श्री सिद्ध-सिद्द्येशवर महाराज जी
के
श्री चरण-कमलों में।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
दो शब्द
जीवन की सार्थकता के लिये,संत-भगवन्त के श्री चरणोंका आश्रय,परम आवष्यक मान
कर, श्री सिद्ध-सिद्द्येश्वर महाराज की तपो भूमि के आँगन मे यशोगान,जीवन तरण-तारण हेतु
अति आवश्यक मानकर पावन चरित नायक का आश्रय लिया गया है,जो मावन जीवन को
धन्य बनाता है। मानव जीवन की सार्थकता के लिए आप सभी की सहभागिता का मै सुभाकांक्षी
हूं।
आइए,हम सभी मिलकर इस पावन चरित गंगा में,भक्ति शक्ति के साक्षात स्वरूप
श्री-श्री 1008 श्री काषी बाबा महाराज बेहट(ग्वालियर) में
गोता लगाकर,अपने आप को
धन्य बनाये-इति सुभम्।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
16- पद
अब क्यौं ,भटकै यूँ मन काम।
यह तन सब तीर्थ और धाम।।
खोलो जरा हृदय के चक्षू,कहाँ भटकता फिरता बच्चू।
अब भटकावों ,क्यौं भटकता,इसमे अलख निरंजन राम।
यह तन------------।।1।।
सपना है संसार हमारा,
खाई,गहवर,पर्वत सारा।
कितना बनता मिटता देखा,
अब भी लौट आओ निज धाम।।2।।
रात दिना तूँ स्वप्न भोगता,
कहाँ- कहाँ, क्या रहा खोजता।
क्यौं जीवन अनमोल गवाँता।
अब भी भज ले प्यारा नाम।।3।।
यह दरबार उन्हीं का प्यारे,
जिनके डर से कालहु हारे।
इनके ही चरणों को पकड़ो।
बन जायेगें सारे काम।।4।।
पंञच ज्ञानोपदेश
प्रथम-
क्यों आये हो जगत में, इसे समझ कुछ ,मीत।
ग्यान- ध्यान को साध लें,राज योग कर प्रीत।।
लख चैरासी यौनि है, जिनमें भटके जीव।
अनगिन भटकावा सहे,तब मिल पावे सीव।।
क्षण जनमें,क्षण में मरे,योनिन भोगे भोग।
क्षण सुख पाया ही कभी,रहे भोगते रोग।।
ऐहि विधि यहाँ तक आ गये,नरतन पाया मीत।
यह विवेक का घर मिला,इससे कर लो प्रीति।।
यह विवेक ही शून्य था,अन्य यौनियों माहि।
ऐहि भटकावा भटकता,जीए अविवेकी छाहि।।
नहिं समझा जीवन रहस्य,अंधज्ञान रहा सोय।
क्या है जीवन मूल यहाँ,काटा जीवन रोय।।
कई द्वार से भटकता, आया ऐहि द्वार।
ईश कृपा इसको समझ,यह प्रभू का उपहार।।
कई जन्म की साधना,का मानो यह मूल।
भटक न जाना अभी भी,नहीं करना यह भूल।।
कई जने ऐहि द्वार से,पीछे लौटे तात।
अंधियारे रहे भटकते, फेर मिला नहिं प्रात।।
द्वार खोजने ही चले,असमंजस के बीच।
दरबाजा जहाँ खड़ा था,उलटे गा गये गीत।।
ऐहि तो संसार है,भ्रम-असमंजस माहि।
दृढ़ता अरू परतीत बिन,कोई विजय न पाहि।।
मानव तन पाकर सजन,करले जरा विचार।
सत पुरूषों के पास जा,कर सतसंगत प्यार।।
सत संतो से मिलेगा,इससे तरण उपाय।
खोजन कर गुरू ज्ञान से,ईश होऐगे सहाय।।
नित प्रति कर चिंतन मनन,गुरू शरण में जाय।
नित्य पठन पाठन करो,सत साहित्य उठाय।।
खोजन करने से मिले,गूढ़ तत्व का सार।
बिन खोजे पाया नहिं,भटका यो संसार।।
वेद शास्त्र कहते सदा,इस जगती की रीति।
इसे समझना ही हमें,मत हो यौ भयभीति।।
संयत अपने को करो,बना गुरू दृढ़ नाव।
प्रभु को दें पतवार निज,पकड़ उन्हीं के पाव।।
जिसने पकड़े पाव है,वह पाया सब सार।
भव में खेलत खेल ही,हो गया भव से पार।।
कुछ तो करना ही पड़े,विन तैरे कब पार।
हाथ पाव कुछ तो पटक,क्यों बैठा है हार।।
जो बैठा ,बैठा रहा, कभी न पाया पार।
मोक्ष द्वार क्यों भटकता,बोहित नरतन धार।।
नरतन का कर खोज कुछ,इसमें सबकुछ पाय।
इस विवेक को ही जगा,सबकुछ ही दरसाय।।
आँख खोल,दरसे सभी,रहा आँख क्यों मीच।
जिसने खोले,हृदय चख, सबकुछ लाए खीच।।
कई मार्ग है तरण के,चलना होगा तोय।
कुछ तो कदम बढ़ाइए,रहा क्यों यूँ सोय।।
जो सोया,खोया सभी,करले जरा विचार।
साधन करले येहि तन,यह प्रभु का उपहार।।
आओ प्रभु की ओर तो,सब मारग मिल जाय।
नौका, खेवा मिलेगें, इसमें- संशय नाय।।
राज योग को समझ ले,ऐहि तन का जो सार।
इसके मारग पर चलो, निश्चय -बेड़ा पार।।
आओ चिंतन करै कुछ, ऐहि तन के अनुसार।
गुरू शरण की साध लें,होवे भव से पार।।
गुरू ब्रह्मा,गुरू विष्णु है,गुरू शिव मंगल रूप।
त्रय गुरूजन,त्रय ताप हर,हो मनमस्त स्वरूप।।
अलौकिक घटना,परीक्षण,क्रिया,धन्य वे लोग।
अति शूक्ष्म चिंतन जहाँ,उसे कहा राजयोग।।
मानव अंदर में निहित,अभाव मोचन शक्ति।
पूर्ति होय तब जानना,हृद-भण्डारण शूक्ति।।
दो अभिव्यक्ति हृद बसत,शूक्ष्म और स्थूल।
कार्य रूप स्थूल है,कारण शूक्ष्म समूल।।
इन्द्रिण- द्वारा होत है, स्थूली -व्यापार।
सूक्ष्मातिशूक्ष्म अनुभूति का,राजयोग आधार।।
योग,आत्मा मुक्ति का,बहु व्यापी है रूप।
सांख्य और वेदांत मत,है इसके प्रति रूप।।
शास्त्र पतंजली सूत्र है,राजयोग आधार।
अनुमोदन सबने किया,साधन क्रम है सार।।
राजयोग को खोजते,तत्व -वेत्ता लोग।
खोजन करने से सखे,मिट जाते भव रोग।।
भव भय मैटन मार्ग यह,कठिन सरल है जान।
अंतः साधन -शूक्ति से,पाते सभी निदान।।
जीवन जीना ही तुझे,फिर क्यों समय गवाँय।
मन को अपना बना ले,अवश्य विजय पा जाय।।
नरतन को सार्थक बना,राजयोग को साध।
मोक्ष पाएगा हमेशा,मिटै सकल भव व्याधि।।
द्तीय भाग-
योग वैज्ञानिक कहत है,स्वानभूति विज्ञान।
स्वयं परीक्षण सत्य है,देख,समझ,लो जान।।
सार्वजनिक अनुभूति है,धर्म-मूल आधार।
भिन्न-भिन्न मतवाद से,धर्म धारणा सार।।
ऐक बार जो घट गया,पुनः घटित हो मीत।
योगाचारी सब कहे,अघटित घटत न ,नीति।।
श्रैष्ठ नियम यह प्रकृति का,ऐक रूपता जान।
योगी जन का मत यही,पूर्व अनुभवी ज्ञान।।
आत्मा कोई चीज यदि,तो उसको पहिचान।
बिन पहिचाने ढोग है,ज्ञान यही विज्ञान।।
ईश्वर -सत्ता में अगर,हो जन मन विश्वास।
चले सभी सत नीति गति,स्वस्थ्य नागरिक आस।।
अनुभव सत का होत ही,तमो जाल मिट जात।
दूर होय संदेह सब, ज्ञात और अज्ञात।।
अमृत सुत,सुनि ध्यान दे,पावे वह आलोक।
घनतम के उस पार हो,वही मुक्ति का लोक।।
इसी सत्य के प्राप्त हित,राज योग को जान।
ज्ञान- प्रणाली है यही,विज्ञानी यह ध्यान।।
करो परीक्षण ज्ञान विधि,प्रयोगशाला जाय।
निर्दिष्ट प्रणाली अनुशरण,विज्ञानी हो जाय।।
बाहृय जगत व्योपार के,सहयोगी कई यंत्र।
अभ्यांतर की मदद को,कही न कोई मंत्र।।
उचित विश्लेषण के विना,भित्तिहीन विज्ञान।
बने निरर्थक,निष्फली,यही जान अनुमान।।
मनस्तत्वणवेशणी, है विरले ही लोग।
सभी विवादों से परे,कहते है बस योग।।
मनोयोग की शक्ति का, पर्यवेक्षण मन यंत्र।
केन्द्रीभूत उसको करो,हो प्रकाश अभ्यंत्र।।
है उपयोगी ज्ञान यह,सर्वोच्ची पुरस्कार।
परमानंदी तत्व यह,दुःखविहीन संसार।।
अमित शक्ति की शक्ति है,एकाग्रता-आघात।
बसीभूत होती प्रकृति,रहस्य होय सब ज्ञात।।
जिम रवि तीक्ष्ण किरण से,अंधकार हो नाश।
गुप्त तथ्य गोचर बने,यही ज्ञान परकाश।।
इसी शक्ति से दृढ़ बने,विश्वासी बुनियाद।
आत्मा का विस्तार हो,होता है सब ज्ञात।।
ज्ञान चक्षु के सामने,ईश दृश्य हो प्राप्त।
राजयोग आधार यह,कर मानव सब ज्ञात।।
है विष्वासी ज्ञान यह,या प्रत्यक्ष विवेक।
खुद को खुद पहिचान लो,यह इसका आलेख।।
मन को वस में करन हित,बर्हिअंग को साधि।
बर्हिअंग- दृढ़ जब बनैं, हो परिपूर्ण साधि।।
शूक्ष्म को कारण समझ,अरू स्थूल को कार्य।
यही नियम अंतर जगत,बर्हिजगत व्यापार।।
प्राकृति नियम न जहाँ चले,योगी तहाँ पर जाँय।
प्राकृति -बस में कर रखैं,कोई न संकट आँय।।
जब कोई अंतः प्रकृति को,बसीभूत कर जाय।
सब कुछ अपने आप ही,बसीभूत हो जाय।।
दोनो मारग अंत में, एक ठौर मिल जात।
विज्ञान, दर्शन एकही,भ्रम निर्मूल करात।।
आत्मा ही चेतन-पुरूष,है अभेद यह जान।
साँख्य,दर्शन- धारणा,राजयोग ही मान।।
चेतन पुरूष या आत्मा,मन मंत्री बस,जान।
मन भटकावा,भटकता,इसका यह क्रम,मान।।
विषयों का आघात जब,इन्द्रण गोलक लेय।
स्नायु-संवेदना,मान लो, मन-बुद्धि कहे देय।।
बुद्धि से पाता पुरूश, इस क्रम को पहिचान।
होय प्रवर्तित इसी क्रम,यही योग विज्ञान।।
भोजन व्रत साधन नियम,योग साधना हेतु।
लघु पौधा जिम सुरक्षा,बड़ा होत कब लेतु।।