like for like in Hindi Moral Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | जैसे को तैसा

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जैसे को तैसा



पंडित राम सनेही एक सेवानिवृत्त शिक्षक थे। अवकाश प्राप्ति के बाद उन्होंने कस्बे के बाहर शहर को जोड़नेवाली मुख्य सड़क के किनारे दो बिस्वा जगह लेकर अपना एक छोटा सा घर बना लिया था। घर बनाने के बाद उनकी लगभग एक बिस्वा जगह अभी खाली पड़ी हुई थी जिसे पैसे के अभाव में उन्होंने अभी तक घेरा भी नहीं था।
मुख्य सड़क पर शहरीकरण की तरफ बढ़ रही इस बस्ती में जमीनों के भाव अब आसमान छूने लगे थे।
निःसंतान पंडित जी पेंशन के पैसों से किसी तरह अपना गुजर बसर कर रहे थे और अर्थाभाव की वजह से अपनी बची हुई जमीन का उपभोग कर पाने में असमर्थ थे।

उनकी खाली पड़ी जमीन के बगल में कल्लू कबाड़ी ने कबाड़ खरीदने बेचने की दूकान खोल ली थी। उसकी छोटी सी जगह उसके लिए अपर्याप्त लगती और वह पंडित जी से पूछकर कुछ सामान उनकी जगह में यदाकदा रखने लगा।
उसका व्यापार और बढ़ा और एक दिन ऐसा भी आया जब लगने लगा कि अब पंडित जी की जगह के बिना उसका एक दिन भी काम नहीं चल सकता।

कल्लू कबाड़ी बड़ा काइयां इंसान था, मृदुभाषी तो था ही व अपने इसी मीठी वाणी के चलते उसकी कई सिपाहियों से जान पहचान हो गई थी और उनकी ही शह पर वह बेखौफ होकर कोई भी चोरी की वस्तु अपनी मनचाही कीमत पर खरीदकर कई गुना मुनाफा कमा लेता।

उसकी आर्थिक स्थिति सुदृढ होती गई और इसी के साथ उसके मन में बढ़ता गया लालच और बेईमानी का अवगुण!
अब उसकी नजर पंडित जी की जगह पर अटक गई। वह उसे किसी भी तरह हासिल करने की फिराक में लग गया।
बढ़ती महँगाई में गुजारे के लिए पेंशन की रकम पंडित जी को अब अपर्याप्त लगने लगी थी सो धर्मपत्नी की सलाह पर उन्होंने वह खाली पड़ी जमीन बेचने का निश्चय कर लिया। मंशा थी कि उसे बेचकर लगभग बीस लाख रुपये तो मिल ही जाएंगे जिसे बैंक में जमा कराकर उससे मिलनेवाले व्याज से गुजारा आसानी से हो जाएगा।

वह जगह कल्लू कबाड़ी के लिए सबसे अधिक उपयोगी थी यह वो जानते थे सो उन्होंने सबसे पहले उससे ही बात करना आवश्यक समझा।
उनकी बात सुनकर कल्लू ठहाका लगाकर हँस पड़ा और बोला, " पंडित जी ! वह जगह अब तुम्हारी है ही कहाँ जो तुम बेचना चाहते हो ? दुनिया जानती है कि वह जगह कई सालों से मैं उपयोग कर रहा हूँ और इसके लिए तुम्हें किराया भी देता हूँ। किराया अधिनियम के मुताबिक अब वह जगह मेरी है और तुम सिर्फ अपने किराए के हकदार हो!"

सुनते ही पंडित जी के पैरों तले जमीन खिसक गई और बड़ी मुश्किल से थूक निगलते हुए बोले, " पर मैंने तो तुमसे ऐसी कोई बात कभी भी की ही नहीं, फिर तुम किरायेदार कैसे बन गए ?"

मुस्कुराते हुए कल्लू कबाड़ी ने मेज की दराज से एक फाइल निकाली जिसमें उसके नाम से हर महीने दो सौ रुपए भेजने की रसीदें थीं। उन्हें दिखाते हुए कल्लू ने बताया, " ये देखो ! हर महीने तुम्हें नियमित रूप से दो सौ रुपए भेजता हूँ बतौर किराए के , लेकिन तुम उन्हें स्वीकार नहीं करते और वापस लौटा देते हो तो इसमें मेरी क्या गलती है ?"

पंडित जी समझ गए कि कल्लू कबाड़ी ने डाकिए के साथ मिलकर उनके साथ षड्यंत्र किया है और अपना सा मुँह लेकर वापस अपने घर को आ गए।

सारी बात पता चलते ही उनकी धर्मपत्नी आपे से बाहर हो गईं और कल्लू कबाड़ी को कोसते और उसे बुरा भला कहते हुए उसने उस खाली जमीन में पड़े कबाड़े को बाहर फेंकना शुरू कर दिया।

कल्लू ने उन्हें समझाने व रोकने का प्रयास किया लेकिन पंडिताइन का रौद्र रूप देखकर वह भी सहम गया और फिर अचानक उसने उन्हें सबक सिखाने का फैसला कर लिया। अपने एक परिचित सिपाही को तुरंत आने का निवेदन करके उसने अपने नौकरों को आदेश दिया कि जबरदस्ती पंडिताइन को उस जगह से निकाल बाहर फेंक दें। पंडित जी भी उनके साथ ही थे। नौकरों ने पंडिताइन को धकेलकर जगह से बाहर करना चाहा यहीं पंडित जी अपना आपा खो बैठे और वहीं पड़ी एक लकड़ी लेकर उन आदमियों पर टूट पड़े। लेकिन बूढ़ी हड्डी आखिर उन हट्टे कट्टे मजदूरों का क्या बिगाड़ लेती और फिर जब मजदूरों ने जवाबी हमला किया तो उन्हें दिन में तारे नजर आने लगे।

पंडित जी और पंडिताइन को मार मार कर कल्लू के आदमियों ने घसीटकर उनके घर के सामने फेंक दिया।

तब तक कल्लू का परिचित सिपाही विजय आ गया था। कल्लू ने उसे सारी बात सही सही बताते हुए उससे मदद करने का निवेदन किया। सुनकर विजय मुस्कुराया और बोला, " तुम उसकी चिंता न करो। .. मैं हूँ न ! वह पंडित तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा उल्टे वह खुद ही कानून के जाल में इस कदर फँस जाएगा कि तुम्हारे आगे आकर हाथ जोड़ेगा और गिड़गिड़ाएगा। ...बस ...तुम मेरा ध्यान रखना !" अंतिम वाक्य कहते हुए वह कुटिलता से मुस्कुराया।

उसका हाथ दबाकर उसे आश्वस्त करते हुए कल्लू ने कहा, " तुम उसकी चिंता मत करो और बस ये बताओ अब मुझे क्या करना है ?"

" वो तो है,.. और मुझसे बेईमानी करके जाओगे भी कहाँ ?... मुझे पता है कि तुम ये अच्छी तरह जानते हो कि तालाब में रहकर मगरमच्छ से बैर नहीं किया जाता !" कहने के साथ ही विजय के चेहरे पर कुटिल मुस्कान फैल गई।

" अब तुम मेरा कमाल देखो, ये पंडित पंडिताइन भी जिंदगी भर याद रखेंगे कि किससे पंगा ले लिया ?" कहने के साथ ही विजय ने वहीं पड़ी एक लकड़ी उठाकर समीप ही काम कर रहे एक नौकर के सिर पर दे मारा। उसका प्रहार अप्रत्याशित था और मारने का अंदाज ऐसा अचूक कि उस नौकर के सिर से खून की धारा फूट पड़ी। पल भर में उसकी गर्दन से होकर बहते हुए रक्त से उसकी कमीज पूरी तरह भीग गई। इसके बाद विजय वहीं नहीं रुका बल्कि उसने दो तीन लकड़ी उसकी पीठ पर और शरीर के अन्य हिस्सों पर और दे मारा। वह नौकर कराह कर रह गया और बेबसी से कभी कल्लू तो कभी विजय को देखता रहा।

विजय ने इशारा किया और कल्लू ने तुरंत उसके माथे पर हाथ रखकर उसके घाव को दबाते हुए खून का प्रवाह रोकने का प्रयास किया और प्रवाह कम होने पर उसने अपना रुमाल उसके जख्म पर कसकर बाँध दिया।

इसके बाद विजय ने कल्लू से मुखातिब होकर कहा , " अब इस नौकर को लेकर थाने जाओ और जैसा कहता हूँ वहाँ जाकर वैसी ही शिकायत दर्ज करवाओ। आगे मैं सब देख लूँगा।" कहने के बाद विजय ने कल्लू के साथ ही उस जख्मी नौकर को भी सब अच्छी तरह समझा दिया और थाने रवाना कर दिया।

थाने पहुँचकर कल्लू ने अपने रसूख का फायदा उठाते हुए पंडितजी और पंडिताइन के खिलाफ नामजद रपट दर्ज करवा दी। जमीन विवाद में नौकर पर जानलेवा हमला करने की झूठी शिकायत थाने में दर्ज कर ली गई।

दूसरे दिन सुबह की गुनगुनी धूप में पंडित जी बरामदे में आराम कुर्सी पर बैठकर नित्य की भाँति अखबार पढ़ रहे थे और पंडिताइन रसोई में नाश्ते में इस्तेमाल हुए बर्तन माँजकर भोजन बनाने की तैयारी कर रही थीं। दो सिपाही आए और पंडित जी से पूछा, " पंडित राम सनेही आप ही हैं ? "

" जी , मैं ही हूँ ! कहिए , क्या काम है ?" अखबार पर से नजरें हटाते हुए पंडित जी ने जवाब दिया।

" आपके खिलाफ थाने में नामजद रपट दर्ज कराई गई है। तफ्तीश के लिए हम आपको लेने आए हैं। चलिए ,हमारे साथ।" साथ आए हुए दूसरे सिपाही ने जवाब दिया।

" नामजद रपट ? किसने दर्ज कराई है ? मामला क्या है ?" सुनते ही पंडित जी हड़बड़ा उठे थे। सीधेसादे पंडित जी उम्र के अंतिम पड़ाव पर पहुँच गए थे लेकिन उनका पाला कभी थाना पुलिस अथवा कोर्ट कचहरी से नहीं पड़ा था सो उनका डर जाना स्वाभाविक भी था।

"पंडित जी ! ये सब तो हम नहीं जानते। आप थाने चलिए ,वहाँ आपको सब पता चल जाएगा !"

बाहर से आ रही बातचीत की आवाज सुनकर पंडिताइन बाहर आ गईं और रपट की बात सुनते ही बिफर पड़ीं। सिपाहियों के मना करने के बावजूद वह भी पहुँच गईँ थाने उनके पीछे पीछे।

थाने पहुँच कर पंडित जी को पूरी बात पता चली और वो समझ गए कि कल्लू ने उनको झूठे केस में फँसा दिया है।

पुलिस के मुताबिक कल्लू के पास चश्मदीद गवाह भी हैं जिन्होंने उन्हें नौकर को बुरी तरह पीटते हुए देखा है। उस नौकर का डॉक्टरी मुआयना करके प्राप्त रपट के आधार पर पंडित जी के ऊपर जानलेवा हमला करने का मामला बनता है जिसे दर्ज कर लिया गया है। जिस नौकर के नाम से मामला दर्ज किया गया था वह भी थाने में ही मौजूद था और अपना मार दिखाते हुए लिखी हुई रपट को सही ठहरा रहा था।

अपने साथ हो रही नाइंसाफी से पंडिताइन आपा खो बैठीं और लगीं अनाप शनाप बकने। सामने बैठे अफसर को भी खरी खोटी सुनाने में उन्होंने कोई कोताही नहीं बरती। किसी का भी लिहाज किए बिना वह जोर जोर से गरज रही थीं, " अरे तुम सब हरामी हो ! तुम सब मिलकर इन्हें फँसा रहे हो। ईश्वर से डरो, झूठ का साथ मत दो क्योंकि सच कभी हार नहीं सकता ! अरे अपना दिमाग लगाओ और सोचो , अगर हमें किसी की हड्डी ही तोड़नी होती तो उस कमीने कल्लू की हड्डी नहीं तोड़ते ? इस गरीब बेचारे नौकर ने हमारा क्या बिगाड़ा है ?" जबकि डरे सहमे पंडित जी कातर निगाहों से सामने बैठे अफसर को खुद के बेगुनाह होने का यकीन दिलाने का असफल प्रयास कर रहे थे।

बाहर अधिक चीख पुकार से त्रस्त थाना इंचार्ज दरोगा विनोद शर्मा जी बाहर निकले और जैसे ही उनकी नजर पंडित राम सनेही पर पड़ी, एक पल को वह ठिठके और फिर अगले ही पल आगे बढ़कर उनके चरण स्पर्श करते हुए बोले, " पंडित जी, पाय लागूँ ! मुझे पहचाना ?"

अचानक हुए इस बदलाव से अचरज में डूबे पंडित जी अपना चश्मा पोंछकर फिर से लगाते हुए दरोगा को देखकर पहचानने का प्रयास करने लगे।

उन्हें असमंजस में देख कर विनोद मुस्कुराया और बोला, " पंडित जी ! भूल गए आप , एक दिन होमवर्क न कर के लाने पर आपने मुझे मुर्गा बनाया था ?... विनोद ! विनोद शर्मा नाम है मेरा !"

" अच्छा विनोद ! अरे इतना बड़ा हो गया है ..सच में मैंने तुम्हें नहीं पहचाना था !" खुशी से भाव विभोर होते हुए पंडित जी ने उनपर आशीर्वाद की झड़ी लगा दी।

अचानक जैसे दरोगा विनोद को कुछ भान हुआ हो, उन्होंने पंडित जी से पूछ लिया, " आपसे मिलकर बड़ी खुशी हुई पंडित जी, लेकिन आप और यहाँ ? आप जैसे सीधेसादे इंसान का यहाँ थाने में क्या काम ?"

संक्षेप में अपनी आपबीती सुनाते हुए पंडित जी की आँखें डबडबा आई थीं। जमीन लेकर घर बनाने से लेकर कल्लू कबाड़ी वाले के साथ कल हुई बहस तक का पूरा वाकया उन्होंने सही सही दरोगा के सामने बयां कर दिया।

पूरी दास्तां सुनने के बाद विनोद ने सरसरी नजर पंडित जी के खिलाफ लिखी नामजद रपट पर डाली और पूरा माजरा समझ गए।

पंडित जी को आश्वस्त करते हुए उन्होंने उस अफसर को निर्देश दिया और बताया कि पंडित जी को इंसाफ अवश्य मिलना चाहिए और खुद कुछ सिपाहियों को लेकर वह थाने से बाहर चले गए।

विनोद को बाहर जाते देख पंडित जी सोचने लगे 'खुद तो कुछ किया नहीं, झूठा आश्वासन देकर चला गया। विचित्र कलयुगी चेला है ...अब तो ईश्वर का ही सहारा है !'

विनोद के निर्देश के मुताबिक थाने में मौजूद अफसर ने कल्लू के उस जख्मी नौकर को अपने पास बुलाया और बगल में बैठे पंडितजी को दिखाकर कड़कदार आवाज में पूछा, " बता ! तुझे इन्होंने ही मारा है ?"

" जी साहब !" सिपाही विजय के निर्देश के मुताबिक वह अपनी बात पर अड़ा रहा।

उस अफसर ने उसे बड़े प्यार से पूछा , "देख ! तू अगर इनपर झूठ इल्जाम लगा रहा है तो अभी बता दे, फायदे में रहेगा ! और अगर कहीं सच और झूठ का पता हमने लगा लिया न तो बेटा ...झूठी रपट लिखाने के इल्जाम में तू लंबा जाएगा। सोच ले, अब एक बार फिर से पूछ रहा हूँ ..सच क्या है ?"

" साहब ! बताया तो आपको , सच वही है जो रपट में लिखवाया है। मैं झूठी रपट क्यों लिखवाऊंगा ?" कहते हुए वह अभी रुका ही था कि अफसर का झन्नाटेदार थप्पड़ उसके गाल पर पड़ा और उसकी आँखों के सामने तारे नाच उठे। अफसर इतने पर ही नहीं रुका था। अपनी कुर्सी से उठकर अपना डंडा सहेजते हुए वह उसकी तरफ बढ़ा।

इससे पहले कि वह डंडा उसकी पीठ सहलाता, वह नौकर उठकर अफसर के पैरों में गिर पड़ा और रोते हुए माफ कर देने की गुहार करने लगा। कुछ देर बाद उसने कल्लू कबाड़ी और सिपाही विजय की मिलीभगत की बात बताते हुए पूरा वाकया बयां कर दिया और खुद को बेगुनाह बता कर छोड़ देने की विनती करने लगा। अफसर के चेहरे पर अब संतोष की रेखा थी।

पूरा वाकया देख रहे पंडित जी व पंडिताइन की अब जान में जान आई।

कुछ देर बाद विनोद भी थाने में आ गया, लेकिन इस बार वह अकेला नहीं बल्कि कल्लू भी उसके साथ था, हाथों में लगी हथकड़ी के साथ। उसे कमरे में फर्श पर धकेल कर बैठाते हुए विनोद ने एक दूसरे अफसर को बुलाकर कल्लू के यहाँ से बरामद चोरी के सामानों की सूची थमाते हुए उससे कहा, " इस आदमी के खिलाफ़ चोरी का सामान खरीदने, बेचने व उन्हें रखने के साथ संबंधित चोरियों में लिप्त होने की प्राथमिकी दर्ज करो और कार्रवाई में इस सूची के अनुसार सामानों की बरामदगी दिखाओ ! बरामद सामानों से लदा ट्रक आने ही वाला है। पत्रकार बंधुओं को बुला लो और सारा मामला सार्वजनिक कर दो इससे पहले कि किसी वरिष्ठ अधिकारी या नेता का फोन इसे बचाने के लिए आ जाए ! जल्दी करो !"

निर्देश के मुताबिक वह अफसर विनोद को सलूट कर तुरंत अपने काम पर लग गया। अब विनोद ने पहले वाले अफसर की तरफ सवालिया निगाहों से देखा। उसका इशारा समझकर उस अफसर ने कल्लू के नौकर की स्वीकारोक्ति के बारे में उसे बता दिया।

यह सुनकर मुस्कुराते हुए विनोद दूसरे अफसर के पास पहुँच गया जो उसकी निर्देश के मुताबिक प्राथमिकी लिख रहा था। उसे रोकते हुए बोला, " अब तो इनके खिलाफ कई और मामले दर्ज होने हैं। एक काम करो, इस प्राथमिकी के बाद इनके खिलाफ पंडित जी की जगह पर जबरन अवैध कब्जा करने, उन्हें धमकाने, उनसे गालीगलौज करने , मार पीट करने व उनके खिलाफ झूठी रपट लिखाने का मामला दर्ज करो। इतना ही नहीं, इनके खिलाफ पुलिस प्रशासन की तरफ से भी एक मामला दर्ज करो झूठी रपट दर्ज कर पुलिस को गुमराह करने और पुलिस प्रशासन का समय जाया करने का। सिपाही विजय को लाइन हाजिर किया जाए और उसके खिलाफ भी पंडित जी के खिलाफ षड्यंत्र रचने, व कल्लू के गुनाह में सह आरोपी होने की प्राथमिकी दर्ज करो।"

तब तक पहला अफसर उनके पास आ गया था। विनोद के चुप होते ही बोला, " सर ! इस आदमी का क्या करना है?" उसका इशारा उस जख्मी नौकर की तरफ था।

विनोद उठकर जमीन पर बैठे उस नौकर के पास गया और उससे बोला, " मैं तुम्हारी मजबूरी समझ सकता हूँ, लेकिन जरा सोचो, तुम्हारी झूठी रपट से निर्दोष पंडित जी पर क्या बीतती ? गुनाह का साथ देनेवाला उतना ही दोषी होता है जितना गुनहगार। माना कि तुम मजबूर थे लेकिन सच का साथ देने के लिए तुम यहाँ आकर तो सच बोल सकते थे ?"

" भूल हो गई साहब !" कहते हुए वह विनोद के पैरों पर गिर पड़ा। उसे नसीहत देते हुए विनोद ने उसे छोड़ दिया।

अब चैन की साँस लेते हुए विनोद ने पंडितजी व पंडिताइन की खूब आवभगत की और उन्हें ससम्मान अपनी गाड़ी से उनके घर तक छोड़ने आया। विनोद की कार्रवाई से संतुष्ट रास्ते भर पंडित जी कल्लू के बारे में सोचते रहे। 'अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे' अब उसे अपनी औकात और गलती का अहसास हो रहा होगा। अच्छा हुआ थाने का इंचार्ज अपना ही चेला निकल गया और ईश्वर की कृपा से मिल गया 'जैसे को तैसा' ! सच है, देर है पर अंधेर नहीं !'