आलेख - जाने कहाँ गए वो दिन
हमारे शरीर के अंदर अतीत की यादें सोयी रहती हैं . आज एक अर्से बाद फिर अपने बचपन की याद आयी है . अतीत की देह को हमने जब झंझोरा वह फिर से जाग कर मेरी आँखों के सामने खड़ी हो गयी . हमने खुद से आज की हालातों और अपने बचपन की हालातों का मेल मिलाप करना चाहा तो वे कहीं भी आपस में तालमेल नहीं बैठा सके . काश कि बचपन लौट कर आ सकता तो कितना अच्छा होता . कितना मधुर , स्वछंद और निश्छल होता था बचपन , न कोई गिला शिकवा न कोई मन पर बोझ न कोई जाति धर्म का भेद . जैसे जैसे इंसान बड़ा होता गया अपनी जाति धर्म में सिमटता गया .
एक वो भी ज़माना था
मौसम चाहे कोई भी हो हम तड़के सवेरे उठ जाते और रात में भी जल्द सोने चले जाते थे . आज के बच्चों को देखते हैं कि रात देर तक इंटरनेट पर किसी न किसी स्क्रीन पर चिपके रहते हैं और सुबह देर से उठते हैं .
बाइक , स्कूटी या कार से माता पिता स्कूल तक छोड़ने या लाने नहीं जाते थे . स्कूल बहुत दूर हुआ तो बस से आना जाना होता वरना दो किलोमीटर तक पैदल आना जाना तो आम बात होती थी . वैसे स्कूल में पनिशमेंट की नौबत शायद ही कभी आयी हो , वह भी सिर्फ नटखटपन के चलते . लड़कों को शैतानी के चलते कभी टीचर की छड़ी खानी पड़ती थी तो कभी मुर्गा बनना पड़ता था . आज टीचर के ऐसा करने पर उन पर मुकदमा भी दर्ज हो सकता है .
स्कूल जाते समय घर से माँ टिफिन पकड़ा देती उसमें जो भी हो पराठे भुजिया या अचार के साथ या चीनी पराठे आदि बड़े मजे ले कर खाते . स्कूल में कैंटीन तो था पर वहां कुछ खाने की न जरूरत थी न हैसियत . कुछ बड़े हुए तो कभी कभी आइसक्रीम खा लिए करते , वो भी ज्यादातर पानीवाला , चॉकोबार या कप वाला नहीं . कोको कोला आदि कोल्ड ड्रिंक कैंटीन में होते पर वहां कुछ नवाबजादे ही जाया करते .
शाम घर लौट कर सबसे पहले कपड़े चेंज करते . जो कुछ माँ खाने को देती उसे झटपट खा पी कर हम छत पर जाते . पड़ोस के छत पर देखते कोई मित्र है या नहीं . एक नजर नीचे मैदान और गली कूचे पर भी डालते वहां कोई करीबी मित्र खेल रहा या रही है . फिर किसी मनचाही मंडली में जा मिलते . संध्या होते अँधेरे के पहले घर में वापस आ जाते . आज बच्चों के पास खाने पीने खेलकूद के कितने ऑप्शंस हैं .
गर्मी की छुट्टी करीब दो महीने की होती थी . उन दिनों ज्यादातर घर के अंदर ही रहना होता था . घर में सिर्फ सीलिंग या टेबल फैन होते , वह भी कभी सभी कमरे में नहीं होते थे .जहाँ फैन मिले वहीँ सब मिलजुल कर रहते , कभी लूडो या कैरम बोर्ड से जी बहलाते थे पर बोर नहीं होते थे . टीवी और स्मार्ट फोन या इंटरनेट का ज़माना नहीं था फिर भी बोर नहीं होते . घर में एक रेडिओ या ट्रांजिस्टर हुआ करता था , सब आकाशवाणी और विविध भारती का भरपूर मजा लेते . हाँ , हमलोग बुधवार की रात बिनाका गीतमाला और अमीन सायनी को शायद ही कभी मिस करते थे .
गर्मी की छुट्टी में कुछ दिनों के लिए गाँव में कभी दादा दादी या नाना नानी के यहाँ कब जाने को मिले , इसके लिए बड़ी बेसब्री से इन्तजार करते . जाना होता तो वे दिन काफी आनंददायक होते थे .कुछ घंटों की रेलगाड़ी की सवारी कितनी मजेदार थी . कोयले वाला स्टीम इंजन होता था , आँखों में कोयले के कण पड़ने का डर था , फिर भी खिड़की वाली सीट लूटने के लिए दौड़ पड़ते . गर्मी में गाड़ी रुकती तो जो भी पानी मिले उसे पी कर प्यास बुझा लेते ,चाहे वो नल का हो या हैंडपंप का या फिर स्टेशन के प्याऊ घड़े से ही क्यों न मिला हो . पेट ख़राब नहीं होता था , अब बोतल का फ़िल्टर पानी पीने पर भी स्वास्थ्य की समस्या रहती है . चचेरे , ममेरे भाई बहनों के साथ हुड़दंग मचाने से बाज नहीं आते . आम के बगीचे में जा कर आम तोड़ने , चुनने या चुराने का मजा ही कुछ और था . कुछ अमीरजादों के बच्चे हिल स्टेशन चले जाते थे . अक्सर सुनने को मिलता है कि आजकल लोग जल्दी बोर हो जाते हैं और टेंशन में रहते हैं , यहाँ तक कि बच्चे भी टेंशन में रहने लगे हैं . हमने कभी ऐसा महसूस नहीं किया .
घर के अलावा बाहर के बड़ों बुजुर्गों का भरपूर सम्मान करते थे . कभी अपनी गलती नहीं होने पर भी उनसे माफ़ी मांगने में नहीं हिचकते थे . मन में हमेशा यही रहता था कि हमारी किसी बात व्यवहार से उन्हें तकलीफ न हो . अपने परिवार पुरखों के संस्कार का अनुकरण करने में गर्व महसूस करते थे . आज का जेनरेशन भौतिकवाद और अपनी शर्तों पर जीना चाहता है .
जब हम कॉलेज गए तो वहां का माहौल स्कूल से बिल्कुल अलग , वहां काफी बड़े बड़े अफसरों के बच्चे भी थे . उनका एक अलग ग्रुप होता हम उस में फिट नहीं हो सकते थे . वे ब्रेक में आसपास रेस्टोरेंट में जाते , अपने बर्थडे पर ट्रीट देते . कभी क्लास बंक कर वे मूवी देखने भी भाग जाते . हम अपनी दुनिया में मगन रहते . गेट के बाहर से मूंगफली ले आते और लॉन में एक रूमाल पर उसे फैला कर अपनी मंडली में शेयर करते . आज तो न जाने कितने ऑप्शंस हैं ,लगता है मुठ्ठी में सारा जहाँ है फिर भी उन्हें संतोष नहीं है .
कुछ वर्षों बाद दिल्ली जाने का मौका मिला तब वहां टीवी देख कर बहुत आश्चर्य हुआ . उस समय यू ट्यूब , अमेज़न प्राइम , नेटफ्लिक्स आदि नहीं थे और टीवी भी ब्लैक एंड वाइट थे . पर चित्रहार का मजा ही कुछ और था . आज सैकड़ों चैनल और उतने ही प्रोग्राम हैं फिर भी हेल्दी एंटरटेनमेंट नहीं हो रहा है .
नयी गृहस्थी की शुरुआत कोयला , उपले लकड़ी से हुआ करती थी . आज जैसे गैस , माइक्रोवेव , इंडक्शन कूकर आदि डिवाइस नहीं थे . अक्सर कॉलेज के ज़माने की साइकिल से भी घर का काम हो जाता था . धीरे धीरे कम्पनी से या बैंक से जैसे जैसे लोन मिले घरों में स्कूटर , कार हुए , टीवी , फ्रिज आदि सब किश्तों पर लिया जाता . मध्यम वर्ग के लोग भी बड़े शौक से बच्चों को अच्छे स्कूल कॉलेज में पढ़ने भेजते ताकि बच्चों का भविष्य अच्छा हो और उन्हें हम से बेहतर सुविधाएं मिलें . आज वे बच्चे पढ़ लिख कर विदेश में अच्छी तरह सैटल कर गए हैं . उनके पास सबकुछ है फिर भी कुछ तो नहीं है . वो देशी खाने की खुशबू वो देशी हवा की महक . देशी खाना वहां भी उपलब्ध है , पर जिंदगी की जद्दोजेहद , भागदौड़ और हमेशा कुछ और पाने की चाहत में खाना बनाने के लिए समय कम पड़ता है . घर बाहर दोनों जगह मनोरंजन के अनेक साधन और डिवाइस मौजूद हैं फिर भी सुकून नहीं है . फ़ास्ट फ़ूड और फ़ास्ट लाइफ है . वे लोग बड़े बड़े बंगलों में रहते हैं , आलिशान गाड़ियों और प्लेन में सफर करते हैं . फिर भी उन्हें वो सुख और शांति नहीं मिल रही है जो बचपन में हमें मिलती थी .