TEDHI PAGDANDIYAN in Hindi Fiction Stories by Sneh Goswami books and stories PDF | टेढी पगडंडियाँ

Featured Books
Categories
Share

टेढी पगडंडियाँ

टेढी पगडंडियाँ

“ चाची ! ओ चाची ! तुझे भापा बुला रहा है खेत में ट्यूवैल पे । जल्दी जा “ - नाइयों का बिल्लू दहलीज पर खङा मुस्कियों हँसता हुआ पुकार रहा था ।
किरणा ने छाबे में रखी रोटियों पर निगाह मारी । रोटियाँ काफी बन गयी थी । फिर पाँच रोटी निकाल कर एक साफ सुथरे पोने में लपेट ली । मेथी आलू की सब्जी डब्बे में डालकर माथे पर झलकता पसीना पोंछा । बाकी रोटियाँ वहीं छाबे में ढक कर रखके उठ खङी हुई । नलके पर जाकर हाथ मुँह रगङ रगङ कर धोया । बाल सँवारकर क्लिप लगाकर खुले छोङ दिये । होटों पर हल्की गुलाबी लिपस्टिक लगाई । रैक से जूती निकाल कर झाङी । अलमारी खोलकर हल्के गुलाबी रंग का सूट निकाल कर पहन लिया । उसे जूती पैरों में फँसाते देखकर गुरजप ने पूछा – “ भापे के पास जा रही है मम्मी “ ।
“ हाँ बच्चे , लौटती हुई तेरे लिए ताजा ताजा भुट्टे लेकर आऊँगी । तब तक दरवाजा बंद करके अंदर ही खेलना । बाहर मत जाना । समझे “ ।
“ जी मम्मी “ ।
और वह तेज तेज कदम रखती हुई गली से निकल कर खेत की पगडंडी पर हो ली । पगडंडी टेढी मेढी बनी थी । किनारे पर बङी बङी घास उगी थी । बीच में जहाँ तहाँ गड्ढे पङे थे । उनमें पैर टेढा हो हो जाता । जरा सी असावधानी हुई नहीं कि बंदा सीधा जमीन पर । बहुत ध्यान से चलना होता है फिर भी कब पैर फिसल जाए , कोई भरोसा नहीं । चोट तो लगनी ही हुई , जग हँसाई होगी वो अलग । लोगों को हँसने और बातें बनाने का मौका जो मिल जाना हुआ ।
मेरी जिंदगी जैसी है यह सङक भी । एकदम टेढी । इतने बल पङे हैं इसमें भी । जगह जगह पैर मुङ जाता है । निरी पूरी मुङी तुङी जिंदगी । सीधा रास्ता कहीं नहीं । कई बार तो उलझाकर ओंधे मुँह गिरा देती है ये मुई जिंदगी । ऐसे में कपङे झाङ कर उठ खङे होने के अलावा कोई चारा नहीं । हर परेशानी के बावजूद इसका टेढापन खत्म होने का नाम ही नहीं लेता ।
वह अपने ख्यालों में गुम होकर खेतों के साथ साथ आगे बढी जा रही थी । कदम तेज बर तेज उठ रहे थे । वहाँ गुरनैब इंतजार कर रहा होना है । इस गुरनैब का कोई भरोसा नहीं । कब खुश हो जाए और कब नाराज हो जाये । एक बार नाराज हुआ नहीं कि घंटों मनाने में लगते हैं । और अगर कहीं गुस्सा हो जाय तो समझो कयामत ही आ गयी । उस समय उसकी ओर देख पाना नामुमकिन होता है । फिर वह नाराजगी कई दिन तक चलती है । और किरण उसका नाराज होना किसी भी हाल में अफोर्ड नहीं कर सकती । गलती किसी की भी हो , माफी किरण को ही माँग कर बात खतम करनी होती है । इसलिए बङे बङे कदम उठाती हुई , लगभग दौङती हुई चल रही है किरण ।
किरण तेरी किस्मत में ये सब लिखा था – उसने एक ठंडी साँस ली । इसके साथ ही सोच की खाई ने उसे अपने आगोश में ले लिया और वह यादों की गहरी खंदक में उतर गयी ।
बीङतालाब बठिंडा शहर से लगता हुआ एक छोटा सा गाँव है । कुल जमा सौ घर होंगे उस गाँव में । दो घर बाह्मणों के , पाँच घर कुम्हारों के , चार बनीयों लालों के , एक घर नाइयों का , दस घर महरे और कहारों के , चालीस घर राजपूतों के , ये सारे लोग गाँव के बीचोबीच में रहते और घोसी , धोबी , भंगी , चूहङे , चमार अपनी अपनी बिरादरी में गाँव से थोङा हट के अपने अपने कच्चे घरों में रहते । इनकी झुग्गियों का समूह टोला या वेहङा कहलाता । अपनी बिरादरी के नाम से । घोसी टोला , धोबियाना , चमारटोला जैसे कई टोले बसे थे गाँव के घेरे में । इन टोलों में छूतछात का पूरा बिसात बिछा था । इन टोलों में रहनेवाले एक दूसरे पर पूरी तरह से निर्भर थे । एक के बिना दूजे का काम सरना असंभव था पर खानपान के अपने नियम थे । कोई अपने से नीच कहे जानेवालों के हाथ का पानी न पीता था । और जातियों के अंदर भी यह ऊँच नीच फैली हुई थी । कोई ऊँचा जुलाहा ,कोई नीचा । कोई ऊँचा भंगी कोई नीचा ।
इन्हीं ढेर सारे वेहङों में से एक वेहङा था चमारों का वेहङा । इस वेहङे में एक दूसरे के साथ सटे कई घर थे । उन कई घरों में से एक घर था मंगर और भानी का । घर क्या , उसे मिट्टी से बना सरकंडों की छतवाला झोंपङा कहना ज्यादा सही होगा । इस झोंपङे में पहले रहते थे समेर और रामरती । उनके मरने के बाद अब उनका इकलौता बेटा रहता है इस झोंपङे में अपने बीबी बच्चों के साथ । कबाङी के कबाङ में से काम के चमङे के जूते सस्ते में छाँट लाता है मंगर । फिर वह और भानी उन जूतों की मरम्मत और पालिश करके उन्हें चमकाने के काम पर जुट जाते हैं । जहाँ से जूता ज्यादा गल गया हो, वहाँ नया चमङा लगाना पङता है वरना थोङी बहुत सिलाई , कुछ मेखों - कीलों से काम चल जाता है । पर दो चार दिनों की मेहनत के बाद जूता चमक कर नये जैसा दिखने लगता है । फिर उस जूते के पचास साठ रुपये मिल जाते हैं । भानी दो घरों में गाय भैंसों का गोबर कूङा कर आती है । उधर से महीने के चालीस रुपये मिल जाते है और रोज का एक गिलास भर दूध भी । जैसे तैसे गुजर हो रही है । भानी के दो बच्चे पहले से हैं , पाँच साल की सीरीं और तीन साल का बीरा । तीसरा आने को है । भानी के दोनों पैर सूज रहे हैं । आलस छाया रहता है । उठ पाना वेहद मुश्किल । पहले दो जापे तो बङे आराम से हो गये थे । इस तीसरे ने नाक में दम कर दिया । न काम हो पाता , न सोया जाता । अजीब सी बेचैनी तन मन में छाई रहती ।
सारे देवी देवता ध्याते , दुनिया जहान की मन्नतें बोलते , राम राम जपते आखिर वह दिन आ गया जब घर में फूलो दाई बुलाई गयी । दाई ने जब नहला धुलाकर बच्ची को गोद में उठाया तो भोच्चकी सी उसे देखती ही रह गयी । काफी देर बाद उसके मुँह से बोल फूटा – मा री ये तो निरा चाँद का टुकङा है । तेरी गरीब की झोंपङी में कैसे समाएगी ये बच्ची । ले देख , कैसा अलोकार चमत्कार हुआ है । पूरे बारह टोलों में कोई बच्चा इतना सुंदर न होगा । भानी ने अपने कमजोर हाथों से जब कपास के गोले जैसी बच्ची को अपनी गोद में लिया तो उसे भी विश्वास नहीं हुआ कि इतनी खूबसूरत बिटिया उसी की कोख में पल रही थी । रेशम जैसे काले स्याह बाल , गोरे गोरे गाल , बङी बङी आँखें , सुंतवां नाक ,चौङा माथा यह उसकी अपनी जायी थी ।