DAIHIK CHAHAT - 11 in Hindi Fiction Stories by Ramnarayan Sungariya books and stories PDF | दैहिक चाहत - 11

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दैहिक चाहत - 11

उपन्‍यास भाग—११

दैहिक चाहत –११

आर. एन. सुनगरया,

तनूजा-तनया ने अपनी मनोदशा विस्‍तार पूर्वक, अपराध बोध के मिश्रित शब्‍दों में जब व्‍यक्‍त की........तब शीला हक्‍का-वक्‍का रह गई, ये क्‍या सोच लिया, बेटियों ने !! शीला कोई एक मात्र मॉं नहीं है, संसार में, जिसने अपनी औलाद के लालन-पालन-पोषण के लिये, भरी-पूरी युवावस्‍था कुर्बान की है। स्‍वाभाविक रूप में अनेक माताऍं अपनी निजि भावनाओं एवं सुख-सुविधाऍं न्‍यौछावर करती रही हैं। सम्‍भवता दुनिया रहते तक करती रहेंगी। कोई अनोखा वलिदान नहीं है, यह। अपनी मॉम के प्रति प्रीत में बहकर ऐसा सोचती होंगी। स्‍वयं से बढ़कर वे अपनी मॉम को चाहती हैं।

शीला ने तनूजा-तनया को तत्‍काल समझाया, सीख दी, जीवन की सारगर्भित उल्‍लेखनीय-गोपनीय बातें बताईं, जिन्‍दगी के प्रत्‍येक महत्‍वपूर्ण पढ़ाव के सामान्‍य सम्‍भावित यथार्थ के उपयोगी रहस्‍यों का खुलासा करते हुये, अपने अनुभव शेयर किये। विभिन्‍न परिस्थितियों का स्‍वविवेक‍ द्वारा आंकलन, विचार-विमर्श, मंथन करके सभी अनजाने पहेलुओं पर अपने दृष्टिकोण के अनुसार गौर करके कोई धारणा बनाना अतिउत्तम होता है। अपने आप में दृढ़ इच्‍छाशक्ति, संस्‍कार, संस्‍कृति परम्‍पराऍं आदि-आदि को अपने ऑंतरिक अस्‍त्र-शस्‍त्र की भॉंति विकसित करके अपने आपको इतना आत्‍मनिर्भर, स्‍वाभावलम्‍बी, शक्तिशाली बना लेना चाहिए कि जीवन-यापन के दौरान रोजमर्रा की आने वाली कठिनाईयॉं, समस्‍याऍं, अड़चनों, उलझनो को सामान्‍य प्रयासों द्वारा ही सुलझाया जा सके, अपने अनुकूल। इन सब आदतों के स्‍थाई परिचालन में आने के बाद, इतना उच्‍च आत्‍मविश्‍वास आ जायेगा कि किसी भी तरह की उलझनो में उलझने से बचा जा सकेगा। एवं अनुकूल वातावरण निर्मित हो सकेगा, ताकि जीवन धारा बिना बाधा के निर्वहन हो सके !

शीला ने तनूजा-तनया के दिल-दिमाग में उत्‍पन्‍न शंका-कुशंका, तर्क-कुतर्क, सोच- फिकर-चिन्‍ता-दुष्चिन्‍ता को पूर्णत: निर्मूल ठहराया। आगे बताया, तनूजा-तनया की स्‍वाभाविक मंशा शीला ने समझ ली है। अपने आप के लिये, मनपसन्‍द कोशिशें जारी रखो। शीला ने दोनों बे‍टियों को आस्‍वत किया, मन मुताविक खुलासा शीघ्र-अति-शीघ्र करेगी..........!

..........उक्‍त सम्‍पूर्ण स्‍पष्‍ट मेटर तनूजा-तनया के ई-मेल पर पोष्‍ट कर दिया।

तत्‍क्षण बेटियों के साथ-साथ ही स्‍वयं शीला ने भी सन्‍तोष की सॉंस ली।

जब दो अजनबी एक-दूसरे से विपरीत प्रकृति, गुण-धर्म के बावजूद भी एक साथ निवास करते हैं, तब कुदरती अनेक प्रत्‍येक्ष-अप्रत्‍येक्ष आदान-प्रदान की स्थितियॉं-परिस्थितियॉं स्‍वाभाविक रूप से अपनी-अपनी प्रवृति अनुसार विकसित होती रहती है। जिसके कारण अनजाने भी चाहे-अनचाहे परस्‍पर आपस में मनोवैज्ञानिक रूप से एक-दूसरे के स्‍वभाव के अनुसार घुल-मिल जाते हैं। मनोभाव सम्‍वेदनशीलता, अपनापन स्‍वयंमेय ही अपना प्रभाव छोड़ते हैं। रिश्‍ते में मिठास घुलती रहती है। दोनों तरफ से चाहत की पृष्‍ठभूमि उत्‍पन्‍न होती है, उभरती है, निर्मित होती है। इसी आधार पर मुँह बोला रिश्‍ता बनता है। अनुकूल आवोहवा, जलवायु, वातावरण पाकर बन्‍धन, बल्कि अटूट बन्‍धन की शक्‍ल लेकर सामने आ खड़ा होता है, जिसे सम्‍हालना, सहेजना, उसमें अपनी भावनाऍं, सम्‍वेदनाऍं, प्रीत के रंग भरना सुन्‍दर बनाकर जान-पहचान को चिरपरिचित की भॉंति मुकर्र करना एवं एक सर्वसामाजिक मान्‍यताओं के मुताबिक जग-जाहिर करके, प्रचलित रिश्‍ते का नाम देकर पारीवारिक धारणा-परम्‍परा के रूप में स्‍थाई स्‍थापित करके ही, मुख्‍य धारा में शामिल होना कहलायेगा स्‍वीकार करेगा, अपने समकक्ष।

देव-शीला अपने दिल-दिमाग, आत्मियता के साथ एक-दूसरे के अन्‍त:करण में सम्‍मान पूर्वक स्‍थापित हो चुके हैं। मगर भौतिक, कानूनी, सामान्‍य सामाजिक रीति-रिवाज, परम्‍परागत निर्धारित कर्मकाण्‍ड के अनुसार सार्वजनिक तौर पर अपने सम्‍बन्‍धों का खुलासा, प्रचार-प्रसार अभी शेष है। जिससे सम्‍बन्धित औपचारिकताऍं वाकी हैं, जिसके बिना मिलन अधूरा है। अमान्‍य है। अप्रमाणिक है। ऐसी ही मानसिकता एवं मंशा को दिल-दिमाग में लेकर देव, शीला के रूम में प्रविष्‍ठ होता है। शीला अर्धलेटी, अस्‍त–व्‍यस्‍त लापरवाह अन्‍दाज में, खुशनुमा मिजाज में मगन है, ऑंखें मीचे। चेहरे पर खुशी की रंगीनीयों की छाप नज़र आ रही है। देव काफी देर तक एकाग्र, गौर से नजरें गढ़ाये देखता है, चेहरा। उसे ऑंखों में सुकून महसूस होता है, एकटक निरन्‍तर देखता ही रहे। मगर कुछ ही मिनिट साक्षात दिलकश नजारों का रसास्‍वादन कर पाया। शीला ने ऑंखें मिचमिचा कर करवट बदली, धुन्‍धली सी आकृति ऑंखों में लहरा उठी......, ‘’उफ्फ ! देव........।‘’ शीला ने झिड़की भरे लहजे में कहा, ‘’जगाया क्‍यों नहीं !’’

‘’ख्‍यालों में खलल नहीं डालना चाहता था।‘’

‘’जरा ऑंख लग......।‘’ शीला ने सामान्‍य मुद्रा में कहा, ‘’बैठो........।‘’ देव बैठ गया। चुपचाप।

‘’हॉं बोलो।‘’ शीला ने पूछा, ‘’क्‍यों ना अपने सम्‍बन्‍धों से सम्‍बन्धित औपचारिकताऍं, सार्वजनिक रूप से कर ली जायें !’’

‘’हॉं, क्‍यों नहीं........।‘’

‘’मुझे तो ऐसा लगता ही नहीं कि किसी गैर औरत को देख रहा हूँ.......।‘’

‘’हॉं यही तो मुझे महसूस होता है कि पति के संरक्षण में हूँ।‘’

‘’परस्‍पर पति-पत्‍नी के रिश्‍ते हमने आत्‍मसात कर लिये हैं !’’

‘’अब अतीत की कोई परछाईं नहीं बची, मन-मस्तिष्‍क पर.........।‘’

‘’वर्तमान की रूहानी, रोमांटिक रंगीनियॉं, रफ्ता-रफ्ता नाचती रहती हैं, दिल-दिमाग में.......।‘’

‘’अपने नये-नवेले रिश्‍ते का भविष्‍य सुनहरा एवं उज्‍जवल प्रतीत होता है।‘’

‘’क्‍यों नहीं ठोस आधार पर खड़ा हुआ है, और परवान चढ़ रहा है। कोई परिस्थितियों-हालातों की ऑंधियॉं भी नहीं हिला पायेंगी।‘’

‘’किसी प्रबुद्ध लॉयर के साथ मिटिंग करके समग्र विकल्‍पों पर पूरी तरह मंथन करके आगे बढ़ना ही हितकर होगा।‘’

‘’हॉं हमारे गठबन्‍धन के लिये, कौन सी प्रणाली अनुकूल व उपयोगी होगी। ताकि कोई समस्‍या खड़ी ना हो, हमारे जीते जी अथवा मर्नोपरान्‍त।‘’

महसूस ही नहीं हुआ कि बैड पर व्‍यवस्थित तकिये-चादरें, गड्डम-पड्डम, बेतरतीब हो गये। शीला-देव को भी समझ नहीं आ रहा है कि कब कौन किससे लिपटा, ऊपर-नीचे, दायें-वायें, किसी मुद्रा में, क्‍या-क्‍या होता रहा। मगर यह तो तय है कि दोनों एकाकार संतुष्‍ठ, सरस, संयोग का संयुक्‍त सुख सानिध्‍य का पूर्णरूपेण रसास्‍वादन किया। अंग्‍गार औंठों को औंठों पर सटाकर युगों-युगों की अतृप्‍त अंग्‍यारी तृष्‍णा को आत्‍मानन्‍द द्वारा शॉंत किया। अद्भुत ! अद्वितिय ! असीमित !

लम्‍बे काल-खण्‍ड के उपरान्‍त स्‍वाभाविक रूप में देव की निन्‍द्रा टूटी, ओंगा नीदीं ऑंखों से देखा, शीला अस्‍त-व्‍यस्‍त बाहों में अथवा पहलू में निन्‍द्रामग्‍न है। शीला भी जाग गई। सारा मंजर-माजरा महसूस करके शर्म से पानी-पानी हो गई। देव ने बताया, ‘’यह महान इत्तेफाक ही है कि मैंने तुम्‍हारी कैहरी ऑंखों में झॉंका.........कामुक काली घटाऍं तैर रहीं हैं। नजरों में विशुद्ध नशा सामने लगा ! परस्‍पर खिचाव में वृद्धि होती गई, हल्‍के–हल्‍के बीच की दूरी समाप्‍त हो गई। कब नींद ने अपनी गिरफ्त में समेट लिया। होश ही नहीं रहा। जागे तो ज्ञात हुआ, हमने सीमाओं को लॉंघकर अपूर्व एहसास पा लिया। शारीरिक समुन्‍दर में डुबकियॉं लगाकर राहत की अनुभूति का आभास हो रहा हैा। उफ्फ ये लालसा कब से ललायित थी।

संयम-नियंत्रण की भी अपनी सीमा होती है, उसके पश्‍च्‍चात वे दरकने लगते हैं। उनकी संगठित सार्थकता शून्‍य हो जाती है। संस्‍कार संस्‍कृति एवं परम्‍परायें भी निर्मूल होने लगती हैं। ऐसी स्थिति में वर्तमान के यथार्थ को स्‍वीकार करना ही श्रेयष्‍कर होता है।

शीला-देव के बीच परस्‍पर जो रिश्‍ता उपभौग्‍यतावादी एवं भौतिकवादी आधार पर क्रियाशील हो चुका है, उसके वास्‍तविक परिणामों को नजर अन्‍दाज अथवा अनदेखा करना चारित्रिक लॉंछन का कारण बनने के पूर्व इस अनाम रिश्‍ते को, रीति-रिवाजअथवा रस्‍म-रिवाज के बन्‍धन में बॉंधकर सामाजिक स्‍वीकारियता, प्रामाणिकता ग्रहण करने के लिये अत्‍यावश्‍यक औपचारिकताऍं पूर्ण करनी होगीं। इसके लिये प्राचीन प्रचलित परिपाठी, प्रवृतियॉं, सर्वमान्‍य प्रयोजन-आयोजन का निर्धारण शीघ्र-अति-शीघ्र करके सामाजिक सरोकारों, संस्‍कारों को अपना कर अनुकूल जीवन यापन करने की शुरूआत तत्‍क्षण ही कर देनी चाहिए। तभी बिरादरी की मुख्‍य धारा में शामिल समझे जायेंगे ! समाज का सहयोग संरक्षण, संयुक्‍त सम्‍मान, सर्व-सम्‍वेदनाऍं सुलभ समान रूप से सबके साथ उपलब्‍ध होगा। परम्‍परा अनुसार !

सामाजिक रीति-रिवाज अथवा रस्‍म-रिवाज अपनाते वक्‍त, जितने सामान्‍य, सहज, सरल, सुलभ तरीके से गठबन्‍धन बनते हैं, परस्‍पर सम्‍बन्‍ध अस्तित्‍व में आते हैं, तत्‍पश्‍च्‍चात उन्‍हें विच्‍छेदित, तोड़ना, अलग-अलग करना उतना ही कठिन, दुष्‍कर, असामान्‍य है...............

न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍

क्रमश:---१२

संक्षिप्‍त परिचय

1-नाम:- रामनारयण सुनगरया

2- जन्‍म:– 01/ 08/ 1956.

3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्‍नातक

4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से

साहित्‍यालंकार की उपाधि।

2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्‍बाला छावनी से

5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्‍यादि समय- समय

पर प्रकाशित एवं चर्चित।

2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल

सम्‍पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्‍तर पर सराहना मिली

6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्‍न विषयक कृति ।

7- सम्‍प्रति--- स्‍वनिवृत्त्‍िा के पश्‍चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं स्‍वतंत्र

लेखन।

8- सम्‍पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)

मो./ व्‍हाट्सएप्‍प नं.- 91318-94197

न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍