main to odh chunriya - 22 in Hindi Fiction Stories by Sneh Goswami books and stories PDF | मैं तो ओढ चुनरिया - 22

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मैं तो ओढ चुनरिया - 22

मैं तो ओढ चुनरिया

अध्याय बाईस


औरत की जिंदगी भी क्या है , दिन रात चूल्हे चौंके में खपो । बाल बच्चे संभालो । रात में मन हो या न हो , थकान के मारे बदन बेशक दर्द कर रहा हो पर मरद का पहलू गरम करो । मरद का जब मन करे लाड लडाये और जब मन करे लातो घूस्सों से धुन कर रख दे । इस माधव नगर मौहल्ले की औरतें ऐसा ही अभिशप्त जीवन जीने को विवश थी । उस पर बात बेबात में घर भर के लोगों से गाली गलौज सुनना उनकी नियति थी । खुद अपने लिए भी और अपने माँ बाप और मायकेवालों के लिए भी । हर छोटी बङी बात के लिए वे अपमानित की जाती । एक एक पैसे के लिए पति पर निर्भर ये औरतें इसी को अपना भाग्य समझ बैठी थी । जब बहुत ज्यादा परेशान हो जाती तो रो लेती । रोकर जब मन हलका हो जाता तो फिर से काम पर जुट जाती । मरद काम पर जाते और जब खाली होते तो चौपाल में इकट्ठे होकर दुनिया जहान की बातें करते । वहाँ से थके हारे घर आते तो पत्नि पर हाथ चलाते हुए दिन भर की खीझ निकालते । ये बेचारी औरतें हर जुल्म सह कर दबी कुचली जिंदगी जीती । पढाई से इनका वास्ता नहीं था । शिक्षा का इनके लिए कोई अस्तित्व ही नहीं था । जिस समाज में लङके ही बङी मुश्किल से पाँचवीं तक पढ पाते हो , वहाँ लङकियों की पढाई लिखाई की बात का क्या मोल । हाँ घर गृहस्थी के काम पूरी लगन और शिद्दत से सिखाये जाते । पाँच साल की होते न होते झाङू बुहारी हाथ में पकङ लेती और आठवें साल में करछुल उन्हें थमा दिया जाता । तरह तरह के पकवान बनाने सीखते सीखते वे दहेज के लिए चादरें और सिरहाने पर मोर , फूल काढने शुरु कर देती । और एक दिन डोली में बैठकर अपनी ससुराल चली जाती । पिर मायका उनके नाम में शामिल हो जाता ।
इसी मौहल्ले में रहती थी अम्मा सक्कर । वे शक्करगंज शहर से मौहल्ले में ब्याह कर आई थी । इसलिए उनकी सास और दादस उन्हें पुकारती सक्कर बहु । जब तक वे दोनों मरी, तब तक वे खुद पोतोंवाली हो चुकी थी । इसलिए अब बहुएँ और पोते पोतियाँ उन्हें पुकारते , अम्मा सक्कर जबकि ये सक्करगंज अब पाकिस्तान का हिस्सा हो गया था । सक्करगंज में अब उनका कोई सगेवाला नहीं था पर ये सक्कर शब्द उनके नाम से ऐसा जुङा कि उनका असली नाम क्या था , वे खुद भी भूल चुकी थी । उम्र के पहले कई साल उन्होंने सास , दोनों ननदों और पति से मार खाते हुए बिताए थे और अब बेटा कभी कभी हाथ उठा बैठता । इनकी एक बेटी थी कौशल्या जो लुधियाना में रहती थी । अम्मा को बेटी की चिट्ठी पढवानी होती या उसे खत लिखवाना होता तो हमारे घर आ जाती । माँ ने पाँचवी पास की थी , इसके अलावा रामायण , पुराण और गीता बहुत अच्छे से बाँच लेती थी । वे सुंदर अक्षर सजा सजा कर खत लिखती । अम्मा देर तक चिट्ठी के हरफों पर हाथ फिराती रहती फिर डाक के डब्बे में छोङ आती ।
दूसरी बुजुर्ग महिला थी बुआ ज्वाली । उम्र के सातवे दशक में भी उनके चेहरे पर अनोखा तेज था । आज की स्थिति देख कर ही कोई सहज अंदाज लगा सकता था कि वे सुदर्शन व्यक्तित्व की मालकिन रही होंगी । सहज ,सरल स्वभाव । चेहरे पर बच्चों जैसी ताजगी और भोलापन । उन्मुक्त हो खुल कर हंसती तो हर तरफ मस्ती बिखर जाती । खाना ऐसा बनाती कि खाने वाले उँगलियाँ चाट जाएँ । बिना किसी नाप जोख के सधे हाथों से एक एक चीज डालती । मजाल है जरा भी ऊँच नीच हो जाए । क्या अचार , क्या चटनियाँ और क्या पकवान पकते तो दूसरे टोले तक महक फैल जाती । सिलाई बुनाई कढाई हर किसी काम में उनका जवाब नहीं । मौहल्ले भर की बहुएं , बेटियां सीखने के लिए उनके आस पास डेरा डाले रहती ।
मात्र सोलह साल की उम्र में बुआ की शादी हुई और अगले ही साल गौना । गौने के बाद उमा दुल्हन बन कर इस गाँव आ गई थी । गेहुँवा रंग , उठते नयन नक्श , लम्बा कद और छरहरा बदन छवि देखते ही बनती । सास ससुर की आँख का तारा थी उमा । देवरों की मनभाती भौजी । पर हल्दी मसालों में रची बसी अनपढ़ बीबी वकालत पढ़ते भजन लाल को कभी पसंद नहीं आई । अगर बेबे बाउजी का डर न होता तो कब का छोड़ कर चल देते । जब बुआ का गौना हुआ , तब भजन ने ला में दाखिला लिया ही था सो पैसे की जरुरत भी थी इसलिए मजबूरी में ही सही , रिश्ता सात साल तक बखूबी निभा पर रब की मार यहकि इन सात सालों में बुआ की गोद नहीं भरी ।
वकील बाबू की वकालत पूरी हुई और चल भी निकली फिर एक दिन सबको हैरान करते हुए वकील साहब ने अपनी स्टेनो से कोर्ट मैरिज करके जब गृह प्रवेश किया तो घर भर में कोहराम मच गया । बाबूजी का गरियाना , बेबे का रोना धोना और कोसने तथा पडौसियों का जमाने को बुरा भला कहना तीन चार महीने से कम तो क्या चला होगा । फिर धीरे धीरे सब कुछ सामान्य हो चला । नई बहु घर का हिस्सा हो गई । गाँव की बतकही भी फीकी पड़ने लगी । उन्हें उछालने को कुछ नई बातें जो मिल गयी थी ।
इस सब में जो धरती की तरह अचल रही वो थी उमा । महज तेईस साल की उम्र में उसने गजब का धीरज दिखाया । न रोई न चिल्लाई । जैसे ये तो होना ही था । जैसे ये सब तो उसे पहले ही पता था । वह उसी तरह रसोई सम्भाले घर भर का ध्यान रखे रही । सास जब तब उसे गले लगा , गोद में भरकर रो पड़ती । सिर्फ तेईस चौबीस की उम्र में पहाड़ जैसा दुःख कैसे काटेगी ये बच्ची पर मजाल है उमा की आँख से एक बूँद भी टपकी हो ।
खबर पाते ही उमा के दोनों भाई आये थे । पूरे गुस्से में । उमा ने उन्हें अपनी कसम दे दी थी । कुछ मत बोलना । साथ जाने से भी इनकार कर दिया था । दोनों भाई बैरंग लौट गए ।
उस दिन से उमा सास की बहु नहीं बेटी हो गई । अकेली उस घर की ही नहीं , पूरे गाँव की बेटी हो गई और सब बच्चों की बुआ । बहुएँ उसके चरणों कीमधूल ले माथे लगाती । धीरे धीरे पूरे गाँव के बच्चों और बहुओं की वे बुआ हो गई । बुआ ने कभी कोई शिकायत नहीं की ,किसी से ईर्ष्या नहीं । किसी से द्वेष नहीं .जिसने भी बुलाया बुआ की असीसों का खजाना खुल जाता .सब पर प्यार लुटाया और सब का आदर पाया . ऐसी औरत का प्यार खो कर भजन ताउजी को अपने किये पर ग्लानी हुई हो या नहीं , ऐसा जानने का कोई साधन मेरे पास नहीं है ।

बाकी कहानी अगली किस्त में ...