Pawan Granth - 8 in Hindi Mythological Stories by Asha Saraswat books and stories PDF | पावन ग्रंथ - भगवद्गीता की शिक्षा - 8

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पावन ग्रंथ - भगवद्गीता की शिक्षा - 8



कहानी (4) एकलव्य— एक आदर्श छात्र

हे धनंजय!
तू जो कर्म करता है, जो खाता है,
जो हवन करता है, जो दान देता है
और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर ।
दादी जी— अनुभव मैं तुम्हें एक आदर्श छात्र, एकलव्य की कहानी सुनाकर समझाने की कोशिश करती हूँ ध्यान से सुनो—

गुरु द्रोणाचार्य पितामह भीष्म द्वारा नियुक्त सभी कौरवों और पाण्डव भाइयों को शस्त्र विद्या सिखाने वाले गुरु थे । उनके नीचे अन्य राजकुमारों ने भी शस्त्र विद्या की शिक्षा पाई थी ।द्रोणाचार्य अर्जुन की व्यक्तिगत सेवा और भक्ति से बहुत प्रसन्न थे । उन्होंने अर्जुन से वायदा किया था, “मैं तुम्हें विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बना दूँगा”।

एक दिन बहुत ही सुशील लड़का,जिसका नाम एकलव्य था, निकट के एक गॉंव से द्रोणाचार्य के पास आया । वह उनसे धनुर्विद्या की शिक्षा पाना चाहता था । उसने अपनी मॉं से महान धनुर्शास्त्री द्रोणाचार्य के बारे में सुना था, जो ऋषि भारद्वाज के पुत्र और परशुराम ऋषि के शिष्य थे ।

एकलव्य निषाद समाज का एक वनवासी लड़का था ।द्रोणाचार्य इस बात से चिंतित थे कि वे राजकुमारों के साथ एक वनवासी लड़के को कैसे शिक्षा दें । इस लिए उन्होंने निश्चय किया कि वे उसे वहाँ नहीं रखेंगे । उन्होंने उससे कहा, “बेटे मेरे लिए तुम्हें शिक्षा देना बहुत कठिन होगा । पर तुम एक जन्मजात धनुर्धर हो । वन में जाओ और मन लगा कर अभ्यास करो। तुम भी मेरे शिष्य हो भगवान करें , तुम अपनी इच्छा के अनुकूल सफल धनुर्धर बनो ।”

द्रोणाचार्य के शब्द एकलव्य के लिए महान आशीर्वाद थे। उसने उनकी विशेषता समझी और उसे पूरा विश्वास था कि गुरु की सद्भावनाएँ उसके साथ थी । उसने द्रोणाचार्य की मिट्टी की एक प्रतिमा बनाई, उसे एक अच्छे स्थान पर प्रतिष्ठित किया और आदर के साथ फल-फूल आदि की भेंट के साथ उनकी पूजा करना शुरू कर दिया ।उसने अपने गुरु की प्रतिमा की प्रतिदिन उपासना की और गुरु की अनुपस्थिति में धनुर्विद्या का अभ्यास किया । वह धनुर्विद्या में निपुण हो गया ।

एकलव्य प्रतिदिन सुबह उठता, नहाता और गुरु की प्रतिमा की पूजा करता । उसे गुरु के शब्द, कर्म और शिक्षा के तरीक़ों में बेहद निष्ठा थी, जो उसने द्रोणाचार्य के आश्रम में देखे -सुने थे ।उसने निष्ठा पूर्वक गुरु के निर्देशों का पालन किया और धनुर्विद्या का अभ्यास करता रहा ।

जहॉं एक ओर अर्जुन ने प्रत्यक्ष गुरु द्रोणाचार्य से शिक्षा पाकर धनुर्विद्या में निपुणता प्राप्त की, वहीं एकलव्य ने उसी के समान प्रभावशाली योग्यता दूर रहकर गुरु की प्रतिमा की पूजा करके पाई । यदि वह किसी विशेष तकनीक में सफल न होता,तो वह गुरु द्रोणाचार्य की प्रतिमा के पास दौड़ता , उसके सामने अपनी समस्या रखता, ध्यान मग्न होकर अपने मस्तिष्क में हल पाने तक प्रतीक्षा करता और आगे अभ्यास करता ।

एकलव्य की कथा सिद्ध करती है कि यदि किसी में पूरा विश्वास है और वह निष्ठा पूर्वक अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए काम करता है, तो वह कुछ भी पा सकता है ।

कौरव और पाण्डव राजकुमार एक बार वन में शिकार खेलने के लिए गये । उनका निर्देशक कुत्ता उनके आगे-आगे
भाग रहा था । श्याम वर्ण का एक युवक शेर की खाल पहने
एकलव्य अपने अभ्यास में लगा था । उसके पास आने पर कुत्ता भौंकने लगा । शायद अपनी निपुणता दर्शाने के लिए
एकलव्य ने सात बाण एक-एक करके भौंकते हुए कुत्ते की ओर चलाये। उसके बाणों से कुत्ते का मुँह भर गया । कुत्ता वापिस राजकुमारों के पास भाग आया, जिन्हें धनुर्विद्या की ऐसी निपुणता देख कर बहुत आश्चर्य हुआ ।वे सोचने लगे,ऐसा धनुर्धर कौन हो सकता है ?

अर्जुन यह देख कर न केवल आश्चर्य चकित हो गया,वरन् वह चिंता से भी भर गया । उसकी कामना थी कि वह विश्व भर में सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में जाना जाये ।

राजकुमार धनुर्धर की खोज में गये, जिसने इतने कम समय में उनके कुत्ते पर इतने बाण चलाये। उन्हें एकलव्य मिल गया ।

अर्जुन ने कहा , “ धनुर्विद्या में तुम्हें महान योग्यता मिली है , तुम्हारे गुरु कौन है ?

“मेरे गुरु द्रोणाचार्य है ,” एकलव्य ने विनम्रता से उत्तर दिया ।

द्रोणाचार्य का नाम सुनकर अर्जुन को बड़ा धक्का लगा।
क्या यह सच था ? क्या उसके प्रिय गुरु द्रोणाचार्य इस लड़के को इतना सिखा सकते थे ? यदि ऐसा था, तो उसको दिये हुए गुरु के वायदे का क्या हुआ ? द्रोणाचार्य गुरु ने लड़के को कब शिक्षा दी ? अर्जुन ने तो एकलव्य को कभी पहले अपनी कक्षा में देखा ही नहीं था ।

जब द्रोणाचार्य ने यह कहानी सुनी, तो उन्हें एकलव्य याद आया । वे उससे मिलने गए ।

द्रोणाचार्य ने कहा , “बेटे तुम्हारा शिक्षण बहुत अच्छा हुआ है । मुझे बहुत संतोष है । श्रद्धा और विश्वास से अभ्यास करके तुमने बहुत प्रगति की है । प्रभु करें, तुम्हारी
उपलब्धि दूसरों के लिए अच्छा उदाहरण सिद्ध हो ।”

एकलव्य ने बहुत प्रसन्न होकर कहा, “बहुत-बहुत धन्यवाद, गुरू देव। आप मेरे गुरु हैं और मैं आपका ही शिष्य हूँ , नहीं तो मैं नहीं जानता, मैं इतनी प्रगति कैसे कर पाता।”

द्रोणाचार्य ने कहा, “यदि तुम मुझे अपना गुरु स्वीकार करते हो, तो तुम्हें प्रशिक्षण के बाद मुझे गुरु दक्षिणा देनी पड़ेगी, फिर से सोच लो।”

एकलव्य ने मुस्करा कर कहा, “श्रीमन् , इसमें सोचने की क्या बात है ? मैं आपका शिष्य हूँ और आप मेरे गुरु हैं ।
श्रीमन् , आपकी जो इच्छा है कहिए । मैं उसकी पूर्ति करूँगा, चाहे उस प्रयत्न में मुझे अपना जीवन भी समर्पित करना पड़े ।”

“एकलव्य, मुझे भीष्म पितामह और अर्जुन को दिये अपने वचन को पूरा करने के लिए तुमसे महानतम त्याग की मॉंग करनी पड़ेगी । मैंने उन्हें वचन दिया है कि अर्जुन के समान विश्व में कोई भी धनुर्धर नहीं होगा । उसके लिए बेटे,
मुझे क्षमा करना , किया तुम मुझे अपने दायें हाथ का अंगूठा दक्षिणा में दे सकते हो ।”

एकलव्य ने द्रोणाचार्य की ओर देखा— पल भर के लिए। वह गुरु की समस्या समझ सकता था । तब वह खड़ा हुआ । दृढ़ निश्चय के साथ वह गुरु द्रोणाचार्य की प्रतिमा की ओर गया । उसने एक शिला पर अपना दाहिना अँगूठा रखा और क्षण भर में बायें हाथ से बाण चलाकर उसे काट डाला ।

एकलव्य को पहुँचाई वेदना के प्रति अत्यंत दुखी होते हुए भी द्रोणाचार्य इतनी महान श्रद्धा से बहुत भावुक हो उठे ।
उन्होंने एकलव्य को गले लगाया और कहा, “बेटे तुम्हारे जैसी गुरु श्रद्धा का कोई उदाहरण नहीं । तुम्हारे जैसा शिष्य पाकर मैं अपने को सफल और धन्य अनुभव करता हूँ । प्रभु का वरद्हस्त तुम पर रहे ।”

हार में भी एकलव्य ने विजय पाई । दायें अंगूठे के कट जाने से वह अब धनुष का प्रयोग प्रभावी ढंग से नहीं कर सकता था,किंतु वह बाये हाथ से अभ्यास करता रहा ।
अपने महान त्याग के कारण वह प्रभु की कृपा का पात्र बना और वाम-हस्त-धनुर्धर के रूप में विशेष योग्यता पाई। उसने सिद्ध कर दिया कि निष्ठ प्रयास से कुछ भी ऐसा नहीं, जो पाया न जा सके ।एकलव्य ने अपने कर्म और व्यवहार से यह दिखा दिया कि समाज में तुम्हारा स्थान उंचा या नीचा तुम्हारी जाति से नहीं बनता, बल्कि बनता है तुम्हारे स्वप्न और गुणों से।

द्रोणाचार्य महान गुरु थे, अनुभव ।

अनुभव— प्रभु की प्राप्ति के लिए गुरु ज़रूरी है क्या दादी जी ?

दादी जी— किसी भी विषय की शिक्षा पाने के लिए, चाहे वह आध्यात्मिक हो या भौतिक, निश्चय ही हमें गुरु की ज़रूरत होती हैं । किंतु असली और अच्छे गुरु का मिलना इतना आसान नहीं है ।

गुरु चार प्रकार के होते हैं:—- अपने विषय का ज्ञान रखने वाला गुरु, नक़ली गुरु, सद् गुरु, परम गुरु,

सद् गुरु प्रभु ज्ञानी गुरु हैं और उसकी खोज बहुत कठिन है ।
भगवान श्री कृष्ण को जगद् गुरु या परम् गुरु कहा जाता है।
कॉलेज की पढ़ाई समाप्त करने पर जब तुम गृहस्थ जीवन में प्रवेश करोगे, तो तुम्हें आध्यात्मिक गुरु की ज़रूरत होगी । तब तक अपने शास्त्र-ग्रंथों का अनुसरण करो । अपनी संस्कृति के अनुसार चलो और अपने जीवन में कभी भी हार न मानो ।

केवल जीतने वाला ही नहीं
बल्कि कहॉं पर हारना है
ये जानने वाला भी
श्रेष्ठ होता है.!
यह ज्ञान परम गुरु श्री कृष्ण ने दिया ।

अध्याय चार का सार—
समय-समय पर पृथ्वी की चीजों को ठीक करने के लिए प्रभु जीव रूप में पृथ्वी पर आते हैं ।वे उनकी इच्छाएं पूरी करते हैं, जो उनकी उपासना करते हैं । निष्काम (नि:स्वार्थ) सेवा और आत्मज्ञान दोनों ही जीवात्मा को कर्म बंधन से मुक्त करते हैं । प्रभु नि:स्वार्थ सेवा करने वाले लोगों को आत्म ज्ञान देते हैं ।आत्म ज्ञान से हमारे सब पिछले कर्म भस्म होते हैं ।आत्म ज्ञान हमें जन्म मरण के चक्र से मुक्ति दिलाता है ।

क्रमशः ✍️