UJALE KI OR in Hindi Motivational Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | उजाले की ओर - संस्मरण

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उजाले की ओर - संस्मरण

उजाले की ओर—संस्मरण

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स्नेही मित्रों

सस्नेह नमस्कार

हमारे ज़माने में बच्चे इतनी जल्दी बड़े नहीं हो जाते थे | आप कहेंगे ,उम्र तो अपना काम करती है फिर आपके ज़माने में क्या उम्र थम जाती थी ?

नहीं ,उम्र थमती नहीं थी लेकिन वातावरण के अनुरूप सरल रहती थी |न तरह-तरह गैजेट्स होते थे ,न टी . वी,यहाँ तक कि रेडियो तक नहीं | मुझे अच्छी तरह से याद है जब अपने पिता के पास दिल्ली में पढ़ती थी ,उस समय शायद दसेक वर्ष की रही हूंगी | तभी हमारे यहाँ रेडियो आया था | छोटा सा ही था वो ,उसके स्क्रीन पर मोटे कपड़े की परत सी तनी थी ,उसके नीचे चार बड़े बटन लगे थे जिनके कान ऐंठने से कुछ बजने लगता था |

धीरे धीरे पता चला कि बटन के घूमने से संगीत निकलता है ,उसके आगे-पीछे घुमाने से समाचार फिर और कहीं घुमाओ तो कुछ पकवान बनाना सिखाया जा रहा होता था | बहुत कुछ तो याद नहीं ,हाँ,इतना ज़रूर है कि उसके कान ऐंठने का अधिकार केवल पापा को होता था | हमने तो चुपके से कभी हाथ आज़मा लिया ---

हम नई दिल्ली ब्लॉक 18 में रहते थे, क्वार्टर्स ऊपर-नीचे थे | एक दूसरे घर की आवाज़ें आतीं | उन दिनों ,अम्मा दूसरे शहर में कॉलेज में पढ़ातीं थीं तो छुट्टियों में ही आतीं तब उस डिब्बे के कान ऐंठने का अधिकार उनको भी मिल जाता,हमें तो कभी नहीं | छुट्टी के दिन आसपास के लोग समाचार सुनने आते और फिर चाय के प्याले और बिस्किट्स की प्लेट्स सामने होते पापा की और उनकी और चर्चाएँ चलतीं जो हमारे पल्ले कभी न पड़तीं | वैसे भी हमारे पास कुदान लगाने के अलावा किसी भी चीज़ के लिए समय कहाँ होता !

साल/डेढ़ साल में आसपास में लगभग सभी के घर रेडियो पहुँच गया| अब पापा अकेले बैठकर अख़बार पर नज़र घुमाते रेडियो सुनते |सुबह –सुबह भैरवी की तान सुनाई देती या फिर समाचारों की आवाज़ !ज़ोर से सुनाई देती थी ,पापा का बड्बड़ाना जारी हो जाता ,भला किसीको सुनने की ज़रूरत ही कहाँ है ,अब सबके पास तो आ गए हैं रेडियो –खैर वो सब भी ठीक ,पापा विनम्रता से बाहर निकलकर बोल देते लेकिन जब कभी सुबह के समय कानफाडू अंदाज़ में फिल्मी गीत बजता ‘डम डम डिगा डिगा ,मौसम भीगा भीगा ,बिन पिए मैं तो गिरा ,मैं तो गिरा ,मैं तो गिरा ---हय अल्ला !सूरत आपकी सुभान अल्ला ‘ तब तो पापा का मूड इतना गुस्सियाना हो जाता कि पापा ज़ोर से उस बंदे को कहना न चूकते जिसके घर में ‘बिन पिए गिरा ‘हो रहा था |

दोस्तों ! उम्र की एक कगार पर आकर बहुत सी चीज़ें याद आने लगती हैं ,लगता है उन बातों को सांझा किया जाय जिनके बारे में आपमें से बहुत से तो केवल कल्पना ही कर सकते हैं क्योंकि आप इस ज़माने में हैं जहाँ हर दो माह में नए गैजेट्स बाज़ार में दिखाई देते हैं |

पापा ने उस रेडियो के बाद एक बड़ा सा रेडियो लिया था ,दोनों का ब्रांड ‘मरफ़ी’ था | जब पीछे घूमकर देखते हैं तब बहुत सी चीज़ें स्मृति को खंगलाने लगती हैं और मन कहता है ,इन्हें सांझा कर लो |

याद न जाए बीते दिनों की

जाके न आए जो दिन

दिल क्यूँ बुलाए उन्हें

दिल क्यूँ बुलाए ------??

चलो बंद करती हूँ ,अगले सप्ताह ऐसी ही कोई स्मृति आप सबसे सांझा करती हूँ |

आप सबकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती