TRIDHA - 7 in Hindi Fiction Stories by आयुषी सिंह books and stories PDF | त्रिधा - 7

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त्रिधा - 7

त्रिधा अपने हॉस्टल पहुंची तो देखा सभी लड़कियां अपने अपने घर जाने की तैयारियां कर रही थीं। अब इम्तेहान खत्म हो चुके थे तो कोई भी हॉस्टल में नहीं रुकने वाला था। माया भी बहुत खुशी खुशी अपना सामान जमा रही थी और कपड़ों के आलावा उसका लगभग सारा समान वहीं था।
"तुम यह सब यहीं छोड़ जाओगी ?" त्रिधा ने माया से पूछा।
"हां त्रिधा, लौट कर तो यहीं आना है न।" कहकर माया मुस्कुरा दी।
"अच्छे से जाना और अपना ध्यान रखना" त्रिधा ने माया को गले लगाते हुए कहा।
"एक बात कहूं?" माया ने पूछा।
"बोलो न माया।" त्रिधा ने मुस्कुराहट के साथ कहा।
"मुझे अब भी कभी कभी राजीव की याद आती है। मगर वह पूरी तरह से मुझसे दूर हो चुका है, मुझे भुला चुका है। और मैं भी अब न उसे याद रखना चाहती हूं और न ही उसके बारे में कुछ भी सोचना चाहती हूं। बस मन पर एक बोझ सा था जो तुम्हें बता दिया तो अब बेहतर लगा रहा है।" माया ने बताया।
"दैट्स द स्पिरिट" कहकर त्रिधा माया के पास बैठ गई। कुछ देर दोनों एक दूसरे से बातें करती रहीं। त्रिधा , माया के लिए कॉफी लेकर आई और उससे छुट्टियों में अपना ध्यान रखने का और रोज़ बात करने का कहकर वह उसे छोड़ने रेलवे स्टेशन तक उसके साथ ही गई।

रेल नियत समय से आधा घंटा देरी से आने वाली थी। तब तक त्रिधा माया के साथ ही बैठी रही और दोनों अपनी पहली मुलाकात से लेकर अब तक की अपनी दोस्ती के सफर को याद कर रही थीं। माया और त्रिधा दोनों ही इस वक़्त को हमेशा हमेशा के लिए कैद कर लेना चाहती थीं। मगर वक़्त कहां किसी के लिए रुका है। दोनों आगे कुछ और बोल पातीं इससे पहले ही रेल प्लेटफॉर्म पर आ चुकी थी। त्रिधा ने एक बार फिर माया को गले लगाया और उसका समान पकड़ाते हुए उससे अपना ध्यान रखने का कहकर वह थोड़ा पीछे हट गई। रेल चल पड़ी थी। धीरे धीरे माया, त्रिधा से दूर जा रही थी और त्रिधा तब तक माया को देखकर हाथ हिलाती रही जब तक वह आंखों से ओझल न हो गई। त्रिधा को न जाने क्यों ऐसा लग रहा था जैसे कुछ बदलने वाला है मगर क्या, इससे वह अनजान थी।

माया को छोड़कर त्रिधा हॉस्टल जाने का साहस नहीं कर पा रही थी। जहां अब तक दोनों सहेलियों ने एक दूसरे के साथ हंसी मज़ाक करते इतना वक़्त बिताया था। अब माया के जाने से वह कमरा बिल्कुल सूना हो गया था जिसमें रहने की हिम्मत त्रिधा में फिलहाल तो बिल्कुल नहीं थी। त्रिधा ने स्टेशन पर बैठे बैठे ही संध्या को फोन लगाया और उससे पूछा कि अगर वह फ्री हो तो त्रिधा उसके घर चली जाए। उधर से हां में जवाब पाकर त्रिधा एक ऑटो लेकर संध्या के घर पहुंची।

त्रिधा दूसरी बार संध्या के घर जा रही थी। हालांकि वह उसकी ही कॉलोनी के बच्चों को ट्यूशन पढ़ती थी मगर वह कभी संध्या के घर जाने के लिए वक़्त नहीं निकाल पाई। उसके हॉस्टल और उस कॉलोनी में इतना फ़ासला था कि आने जाने में ही दो घंटे लग जाते थे। फिर एक घंटे बच्चों को पढ़ाना। त्रिधा की व्यस्तता समझते हुए संध्या खुद ही उससे मिल लेती थी। त्रिधा साल भर से अपने लिए या किसी और के लिए समय ही नहीं निकाल पाई थी। पर अब छुट्टियाँ थीं और उसके पास वक़्त ही वक़्त था तो वह अपना सारा वक़्त प्रभात और संध्या को देना चाहती थी जिन्होंने उसकी जिंदगी में नए उजाले किए थे।

ऑटो संध्या के घर के बाहर रुका। जब त्रिधा गार्डन से होते हुए घर के अंदर गई तो देखा कि दरवाज़ा खुला हुए है। वह धीरे से हॉल में पहुंची और संध्या को आवाज़ देने लगी। मगर कोई भी नजर नहीं आया। अचानक से "वेलकम त्रिधू दी" की आवाज़ त्रिधा के कानों में पड़ी तो वह चौंक उठी। उसने पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि संध्या का छोटा भाई मयंक खड़ा हुआ था और त्रिधा के देखते ही वह आकर उसके गले लग गया और प्यार से उसके गालों पर किस किया। तभी त्रिधा को सामने से आते हुए संध्या और उसके मम्मी पापा नजर आए। क्योंकि वह छुट्टी का दिन था तो संध्या के मम्मी पापा भी घर पर ही थे।
"कैसा लगा सरप्राइज?" संध्या ने त्रिधा से मुस्कुराते हुए पूछा।
"बहुत प्यारा।" त्रिधा ने भरी आंखों से कहा।
"और तू मोटे! कभी मुझे तो किस नहीं करता।" कहते हुए संध्या ने नन्हे से, गोल मटोल मयंक के गाल खींच दिए।
"त्रिधु दी प्यारी हैं और आप डरावनी हो।" कहकर मयंक वहां से भाग गया और त्रिधा खिलखिलाकर हंस पड़ी। संध्या त्रिधा को घूरते हुए देखने लगी मगर त्रिधा उसे अनदेखा कर आगे बढ़ी और संध्या के मम्मी पापा के पैर छुए। तब दोनों ने उसके सिर पर हाथ रख दिया और बोले "अब खुश रहा करो बेटा।"
"जी।" कहकर त्रिधा भी मुस्कुरा दी।
"आज तुम्हें सारा दिन हमारे ही साथ रहना होगा बेटा।" संध्या के पापा ने कहा।
"पर अंकल मुझे तो हॉस्टल जाना है।" त्रिधा बस इतना ही कह पाई तब तक संध्या चिल्ला पड़ी "ईईईईईईईईई……. बन्द करो अपनी बकवास। आज मैं तुम्हें कहीं नहीं जाने दूंगी। साल भर बाद तो अाई हो वह भी सिर्फ दूसरी बार, बिल्कुल नहीं जाने दूंगी। आज बस अपना दिन है। चुपचाप मेरे साथ रहोगी आज तुम। आज तुम्हारी तानाशाही नहीं चलेगी।"
"ठीक है।" त्रिधा ने मासूम चेहरा बनाते हुए कहा।
त्रिधा अभी हॉल में सबके साथ बैठी हुई थी कि तभी मयंक वापस आ गया। इस बार उसके हाथ में दो चॉकलेट्स थीं।
"दी आपके लिए।" कहते हुए मयंक ने एक चॉकलेट त्रिधा की ओर बढ़ा दी। त्रिधा ने भी चुपचाप मुस्कुराते हुए चॉकलेट ले ली और एक टुकड़ा मयंक के मुंह में डाल दिया और बाकी खुद खाने लगी। संध्या आंखे फाड़कर उसे घूर रही थी।
"क्या?" त्रिधा ने संध्या को देखकर पूछा।
"और मयंक यह दूसरी चॉकलेट मेरे लिए है न" संध्या मुस्कुराई।
"नहीं, मेरे लिए।" कहकर मयंक ने चॉकलेट का रैपर हटाया और उसको बीच से आधा तोड़कर दोनों टुकड़े एक ही बार में अपने मुंह में रख लिए। संध्या खिसियाकर रह गई। यह देखकर त्रिधा खिलखिलाकर हंस पड़ी।
"त्रिधा दी" मयंक त्रिधा की गोद में बैठ गया और उसके दुपट्टे के कोने से अपना मुंह पोंछते हुए आगे बोला "आप मुझे राखी बांधने आना"
"हां" बोलकर त्रिधा ने भी उसे गले लगा लिया। ऐसा लग रहा था जैसे अब सबकुछ मिल गया हो त्रिधा को। मयंक को गले से लगाए त्रिधा को अपने भाई विशाल की याद आ गई और दो बूंद आँसू उसकी आंखों से छलक पड़े। जिन्हे उसने सबसे छिपाकर पोंछ लिया।
कुछ देर बाद भी मयंक और संध्या की महाभारत चालू थी। त्रिधा हॉल में बैठकर संध्या के पापा से अपनी आगे की पढ़ाई के लिए बनाई अपनी योजना डिस्कस कर रही थी। जिसे सुनकर संध्या के पापा बहुत खुश थे। उन्होंने स्नेह और गर्व से त्रिधा के सिर पर हाथ रख दिया। तभी किचन से संध्या की मम्मी की आवाज़ अाई। "आज कोई नाश्ता करेगा या छोटी बिटिया का प्यार से ही पेट भरने का इरादा है" यह सुनकर त्रिधा खिलखिला पड़ी। इसके बाद त्रिधा , संध्या के पापा, संध्या और मयंक सभी डायनिंग टेबल पर पहुंचे और अपनी अपनी प्लेट्स लेकर नाश्ते का इंतजार करने लगे।
संध्या की मम्मी किचन से आईं और सबको नाश्ते में पाव भाजी परोसने लगीं।
"वाह आंटी! आपको कैसे पता मुझे पाव भाजी पसंद है?" त्रिधा ने अचरज से पूछा।
"ये है न पागल, यह तुम्हारे बारे में ही तो बातें करती रहती है हमेशा। तो सब जान गए हम लोग, तुम्हारी हर पसंद नापसंद।" संध्या की मम्मी ने कहा तो त्रिधा, संध्या की ओर देखते हुए मुस्कुरा दी।
कुछ देर बाद संध्या और त्रिधा, संध्या के कमरे में थे जहां उसने लैपटॉप पर 'मैं हूं न' चला रखी थी। जहां संध्या राम और चांदनी के किरदारों में प्रभात और खुदको देख रही थी वहीं त्रिधा खुदको संजना और प्रभात को राम की जगह देख रही थी। जैसे राम ने संजना को जीना सीखा दिया था ठीक ऐसे ही प्रभात ने त्रिधा को जीना सिखाया, उसे मुस्कुराने की वजह दी और किसी अपने से भी बढ़कर उसका साथ दिया, हर पल, हर वक़्त, हमेशा। त्रिधा अपनी और प्रभात की ढेर सारी यादों पर, बातों पर हंस पड़ी और संध्या अपने ही खयालों में गुम मुस्कुराती हुई खुदको और प्रभात के नाचते हुए सपने देखने लगी। "तुमसे मिलके दिल का है जो हाल क्या करें, हो गया है कैसा ये कमाल क्या करें" संध्या ज़ोर ज़ोर से गाने लगी और त्रिधा अपने खयालों से बाहर निकलकर संध्या को आँखें फाड़कर घूरने लगी। "चुप भी करो अब बेसुरी लड़की।" त्रिधा ने संध्या को प्यार से झिड़कते हुए कहा। तो संध्या शर्मा कर त्रिधा के गले लग गई। एक दूसरे के साथ कब तीन घंटे बीत गए दोनों ही सहेलियाँ नहीं जान पाईं। फिल्म के खत्म होने के ठीक अलगे ही पल संध्या की मम्मी की आवाज़ अाई, "बच्चों खाना खाने आ जाओ।" और त्रिधा हंस पड़ी "वाह क्या टाइमिंग है आंटी।"
एक बार फिर सभी डायनिंग टेबल पर थे। इस बार संध्या की मम्मी ने सबको गरमा गरम पूरियां और कटहल की मसालेदार सब्ज़ी पड़ोसी और एक बार फिर त्रिधा का चेहरा खिल गया। वह उठी और संध्या की मम्मी को प्यार से कसकर गले लगा लिया और फिर वापस आकर बैठ गई और खाने लगी।
"थैंक्स आंटी मेरे लिए इतना सब करने के लिए" त्रिधा ने खुलकर मुस्कुराते हुए कहा।
"थैंक्स बोल कर पराया मत बनाओ बेटा और वैसे भी हॉस्टल में कहां ये सब मां के हाथ का खाना मिलता है। वहां तो जो कच्चा पक्का दें वहीं खाना मजबूरी है बच्चों की।" संध्या की मम्मी ने अंतिम वाक्य थोड़ा खीजकर कहा क्योंकि उन्हें त्रिधा का मजबूरी में कुछ भी उल्टा सीधा खाना पसंद नहीं था पर वे कुछ कर भी नहीं सकती थीं इस बारे में।
कुछ देर बाद त्रिधा संध्या की मम्मी से संध्या के बचपन के फोटोज़ दिखाने की ज़िद करने लगी। कुछ देर बाद संध्या की मम्मी एक पूरा बैग लेकर आई जिसमें फोटो ही फोटो थे।
त्रिधा उन फोटोज़ पर झपट पड़ी। सभी फोटोज़ अलग अलग रखे हुए थे हर साल के हिसाब से। त्रिधा एक एक फोटो बड़े गौर से देखते हुए बेखयाली में बोल पड़ी "वो क्या है न मेरे बचपन के फोटोज़ लेने के लिए कोई था ही नहीं" यह सुनकर संध्या की मम्मी ने प्यार से त्रिधा के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा "जो बीती सो बात गई, अब भूल जाओ बेटा, आगे की जिंदगी बहुत लंबी और खूबसूरत है, उसपर ध्यान दो" बदले में त्रिधा मुस्कुरा दी।
"आंटी संध्या का बचपन का चेहरा इसके अब के चेहरे से क्यों नहीं मिलता?" त्रिधा ने संध्या के बचपन के फोटो को आज की संध्या से मिलाते हुए पूछा।
"वो बेटा बचपन में यह स्कूटर से गिर गई थी तो इसके नाक और होठों की सर्जरी हुई है।" संध्या की मम्मी ने बताया।
"हैं... " त्रिधा ने आंखे फाड़कर अचरज व्यक्त किया और अगले ही पल जोर जोर से हंसी तो पांच मिनट तक लगातार हंसती ही रही।
"हां बेटा।" संध्या की मम्मी ने बस इतना ही कहा।
"और आंटी इसके जन्म के समय वाले फोटोज़ नहीं हैं?" त्रिधा ने संध्या के गाल खींचते हुए पूछा।
"नहीं बेटा उस वक़्त मैं और इसके पापा ही तो थे, मेरी भी हालत बहुत खराब थी तो फोटोज़ कौन लेता। बहुत परेशान करके अाई है ये" संध्या की मम्मी ने मुस्कुराते हुए उसे देखा तब त्रिधा भी हंस दी।
"मम्मू पैसे चाहिए शाम को शॉपिंग पर जाना है इसके साथ" संध्या ने कहा तो उसकी मम्मी ने तुरंत उसे तीन हज़ार रुपए पकड़ा दिए। और त्रिधा सोचने लगी अपनी अपनी किस्मत है कहां उसे एक महीने पढ़ाने के बाद दो हज़ार रुपए मिलते थे और कहां संध्या को एक ही दिन के खर्च के लिए तीन हजार रूपए मिल जाते हैं। बहुत देर से चुप त्रिधा को देखकर संध्या ने पूछा "क्या हुआ?"
"कुछ नहीं तुम बहुत लकी हो संध्या। किसी की नजर न लगे तुम्हें और तुम्हारी ख़ुशियों को।" कहकर त्रिधा ने अपनी आँखो में लगे काजल को संध्या के कान के पीछे लगा दिया।

कुछ देर बाद दोनों बाजार की ओर चल दीं। संध्या ने अपना सारा मेकअप का समान खरीदा और त्रिधा बस माथा पीटती हुई उसके साथ चलती रही। थोड़ा आगे चलकर संध्या ने त्रिधा के लिए एक ब्लू जीन्स और रेड टॉप पसंद किया। उन कपड़ों पर लगे प्राइस टैग को देखकर त्रिधा ने लेने से मना कर दिया मगर संध्या जिद पर अड़ी रही और अपनी कसम देकर उसे दोनों चीजें दिला दी। पांच सौ रुपए अपने ऊपर खर्च कर संध्या ने दो हज़ार रुपए त्रिधा पर खर्च कर दिए थे। सारी ख़रीददारी करने के बाद दोनों एक रेस्टोरेंट पहुंची और संध्या ने त्रिधा का मनपसंद पिज़्ज़ा ऑर्डर कर दिया। इस तरह से संध्या ने तीन हजार रुपए तीन घंटो में बर्बाद कर दिए जिसे देखकर त्रिधा ने संध्या को डांट दिया मगर उसने हंस कर टाल दिया। कुछ मिनट बाद दोनों झील के किनारे खड़ी थीं और ढलते हुए सूरज को देख रही थीं। मगर कोई और भी था जो ढलते हुए सूरज की जगह त्रिधा को गौर से देख रहा था… यह हर्षवर्धन था। यह इत्तेफाक ही था कि त्रिधा जहां भी जाती हर्षवर्धन से मिल जाती। त्रिधा उसे हर्षवर्धन का जानबूझकर उसका पीछा करना समझ रहीं थीं और मन के एक कोने में कहीं खुश भी थी कि हर्षवर्धन उसे हर पल देखना चाहता है मगर अगले ही पल वह डर जाती कहीं यह सब उसके लिए परेशानियां न खड़ी कर दे। सूरज डूबने पर संध्या वापस त्रिधा को अपने घर ले गई और हर्षवर्धन अपने घर पहुंच गया।

हर्षवर्धन एक बार फिर अपने कमरे में अपने रंग, पेंट ब्रश और कैनवास के साथ खड़ा था। डूबते हुए सूरज को निहारती हुई त्रिधा की पेंटिंग जब हर्षवर्धन ने पूरी बनाई तो वह किसी मस्टरपीस से कम नहीं लग रही थी। नारंगी आसमान में चमकता पीला सूरज। झील के किनारे लगी लोहे की सलाखें जिनको आपस में जोड़कर एक घेरा जैसा बना दिया था ताकि झील में कोई गिरे न, वे सलाखें और सूरज को निहारती हुई त्रिधा काले रंग में रंगे हुए थे। हर्षवर्धन की मां कमरे में तभी आईं और एक बार फिर उसकी बनाई पेंटिंग देखकर मुस्कुराती हुई चली गईं।

उधर संध्या के घर में त्रिधा, मयंक और संध्या ने धमाचौकड़ी मचा रखी थी। जब संध्या ने मयंक की शैतानी पर उसे एक थप्पड़ मार दिया तो वह रोता हुआ त्रिधा की गोद में बैठ गया और त्रिधा उसे चुप कराने लगी। वह उठकर गई और अपने बैग से एक ब्लू टीशर्ट जिस पर टॉम एंड जेरी की छोटी सी इमेज छपी हुई थी और क्रीम हाफ पैंट का सेट लेकर मयंक की ओर बढ़ा दिया। जिसे देख कर मयंक रोना भूलकर खुशी से उछल पड़ा और एक बार फिर उसने त्रिधा के गालों को चूम लिया। मयंक खुशी खुशी अपने मम्मी पापा के पास चला गया।
"यह कब खरीदा तुमने और क्यों?" संध्या ने पूछा क्योंकि वह जानती थी कि त्रिधा के लिए कभी भी खर्च करना आसान न था।
"अपने भाई के लिए कुछ लूं तो तुम्हारा टोकने का कोई अधिकार नहीं। मैंने मयंक के लिए लिया तो लग रहा है जैसे विशाल के लिए भी ले लिया।" त्रिधा ने कहा। तब संध्या से कुछ और कहते न बना।
"काश तुम मेरी बहन होती त्रिधा। हम हर दिन कितने खुश रहते न।" संध्या ने कहा।
"मैं तुम्हारी बहन ही तो हूं वैसे भी संध्या खून के रिश्तों से ज्यादा दिल के रिश्ते मजबूत होते हैं।" त्रिधा ने कहा।
"सगी बहन तो मुझे चाहिए भी नहीं अब। मुझे अपने हिस्से का प्यार किसी और से नहीं बाँटना" संध्या ने इतराते हुए कहा।
"चलो अब सोते हैं बहुत देर हो गई आज" त्रिधा ने कहा। दोनों सो रही थी और त्रिधा ने संध्या का हाथ पकड़ा हुआ था।
"ऐसे हाथ क्यों पकड़ कर सो रही हो? मैं क्या तुम्हारा प्यार हूं?" संध्या ने त्रिधा को चिढ़ाते हुए कहा।
"अब तुम्हें और प्रभात को खोना नहीं चाहती मैं। इसीलिए हमेशा तुम दोनों को पकड़ कर रखना चाहती हूं अपने पास" त्रिधा ने कहा।
"हां हां अब सोने दो" कहते हुए संध्या ने त्रिधा का दूसरा हाथ भी पकड़ लिया और दोनों सो गईं।
रात एक बजे त्रिधा का फोन बजा।
"हैलो" त्रिधा ने नींद में ही कहा।
"त्रिधा दी" उस ओर से आवाज़ अाई।
"विशाल" बस इतना ही कह पाई त्रिधा और उठक बैठ गई।
"दी मम्मी नहीं रहीं" उधर से विशाल भी बहुत मुश्किल से बोल पाया।
त्रिधा की ओर से खामोशी पाकर विशाल ने फिर कहा "मम्मी को आखिरी बार देखने आ जाइए दी"
"मैं नहीं आ पाउंगी विशाल। मुझे माफ़ कर दो। तुम अपने लिए जब जब बुलाओगे, मैं आऊंगी पर तुम्हारे अलावा अब वहां मेरा कोई नहीं है। मुझे माफ़ कर दो मैं नहीं आ सकती" कहकर त्रिधा ने फोन रख दिया और वापस सो गई या शायद सोने का दिखावा करने लगी। संध्या जो इतनी देर में जाग चुकी थी त्रिधा के इस रूप से दंग रह गई और चाहते हुए भी कुछ बोल न पाई तो वह भी चुपचाप सोने का दिखावा करने लगी।

********

त्रिधा संध्या के घर से सुबह सुबह ही अपने हॉस्टल के लिए निकल गई थी। विशाल का फोन आने से एक साल पुराने उसके घाव वापस हरे होने लगे थे और वह अकेले में बैठकर अपने आपको संभालना चाहती थी। वह पहले तो कॉलोनी के बाहर से टैक्सी, बस वगैरह का इंतजार करने लगी मगर काफी देर तक भी जब कोई साधन नहीं मिला तो वह पैदल ही चलने लगी। गुस्से से आते अपने आंसुओं को रोकना अब त्रिधा के लिए काफी मुश्किल होता जा रहा था। वह अपनी ही धुन में आगे बढ़ती जा रही थी कि उसी वक़्त उसे कार का हॉर्न सुनाई दिया, त्रिधा उस ओर ध्यान ना देकर आगे बढ़ती रही मगर जब बार बार वह हॉर्न उसके कानों में पड़ता रहा तो वह गुस्से में पलटी ताकि हॉर्न बजाने वाले को लताड़ सके मगर जब उसने उस ओर देखा तो देखती ही रह गई। वह कार में बैठे हर्षवर्धन को देख रही थी। जब से इम्तेहान ख़त्म हुए थे वह हॉस्टल से बाहर ही नहीं गई थी बस एक दिन पहले माया को विदा करने स्टेशन तक गई उसके बाद संध्या के घर से होते हुए वह अब वापस हॉस्टल ही जा रही थी।


"मैं छोड़ देता हूं त्रिधा" हर्षवर्धन ने त्रिधा के चेहरे को देखते हुए बिना किसी लाग लपेट के कहा। जवाब देने के बदले त्रिधा ने चुपचाप गाड़ी का दरवाजा खोला और हर्षवर्धन के साथ वाली सीट पर बैठ गई। हर्षवर्धन चुपचाप ड्राइव करता रहा। त्रिधा के चेहरे से ही वह उसकी मनोदशा समझ रहा था कि जरूर कुछ तो हुआ है जो त्रिधा को परेशान कर रहा है।


"मेरा ही पीछा करते रहते हो या और भी काम हैं तुम्हें?" त्रिधा ने सामने देखते हुए ही हर्षवर्धन से पूछा।


"काम तो बहुत हैं पर तुमसे बढ़कर कुछ नहीं वैसे तुम चाहो तो अपनी परेशानी कह सकती हो" हर्षवर्धन ने हल्की मुस्कुराहट के साथ कहा।


"किसी ने आपको एक भी खुशी न दी हो, आपका हक न दिया हो, क्या उसके आखिरी समय में नहीं जाना गलत है?" त्रिधा ने एक ही सांस में पूछ लिया।


"तुम्हें लगता है गलत है?" हर्षवर्धन ने त्रिधा के चेहरे को गौर से देखते हुए पूछा।


"नहीं" बस इतना कहकर त्रिधा चुप हो गई।


"तो कुछ भी गलत नहीं है, तुम त्रिधा हो, कभी कुछ गलत नहीं कर सकती हो तुम" हर्षवर्धन ने त्रिधा को देखते हुए कहा और यह सुनकर त्रिधा भी कुछ वक़्त तक उसे देखती रही फिर संयत होकर सामने देखने लगी। कुछ देर बाद उसने आँख बन्द कर ली और सीट से सिर टिकाकर आराम से बैठ गई। हर्षवर्धन ड्राइव करते हुए बीच बीच में उसे देख लेता। आज उसे यह रास्ता बहुत छोटा लग रहा था। हर सुबह जब वह कॉलेज जाता था खीजता हुआ जाता था कि कॉलेज इतना दूर है और आज उससे सटा हुआ त्रिधा का हॉस्टल उसे बहुत पास लग रहा था।


"मैं पैदल चली जाती हूं हर्षवर्धन, शायद जल्दी पहुंच जाऊं" त्रिधा ने धीरे से कहा।


"न न नहीं वो मैं तो बस मौसम का आनंद ले रहा था" हर्षवर्धन ने सकपकाते हुए कहा।


"हां हर्षवर्धन वाकई इस गर्मी और उमस भरी सुबह में कितना आनंद है न" त्रिधा ने गौर से हर्षवर्धन को देखते हुए कहा।


"त्रिधा...." हर्षवर्धन कुछ कहते कहते रुक गया मगर जब उसने देखा जब त्रिधा चुप ही थी तो उसे थोड़ी हिम्मत मिली वह फिर कुछ बोलने ही वाला था मगर कुछ वक़्त पहले की त्रिधा की हालत याद आते ही उसने चुप रहना ही ठीक समझा हालांकि उसने गौर किया था कि अब त्रिधा का मूड काफी हद तक सही हो चुका था।


"कुछ कह रहे थे तुम हर्षवर्धन" हर्षवर्धन को चुप देखकर त्रिधा ने पूछा।


"हां... वो मैं पूछ रहा था तुम इतनी परेशान क्यों थीं?" हर्षवर्धन ने बात बदल दी।


"फिलहाल मेरा हॉस्टल आ गया है, फिर कभी बताती हूं, यहां तक ड्रॉप करने के लिए शुक्रिया" त्रिधा ने हल्की मुस्कुराहट के साथ कहा और हॉस्टल के अंदर चली गई।


तू ही तो जन्नत मेरी

तू ही मेरा जूनून

तू ही तो मन्नत मेरी

तू ही रूह का सुकून

तू ही अंखियों की ठंडक

तू ही दिल की है दस्तक

और कुछ ना जानूं मैं

बस इतना ही जानूं

तुझमें रब दिखता है

यारा मैं क्या करूँ

सजदे सर झुकता है

यारा मैं क्या करुँ


अपनी गाड़ी में रेडियो चलाकर हर्षवर्धन गुनगुनाता हुआ वापस लौट रहा था, पहली बार वह त्रिधा के साथ इतनी देर तक था, बस वे दोनों थे और उनकी खामोशी थी। अपनी ही धुन में मग्न हर्षवर्धन कार चला रहा था कि तभी उसे जोरदार ब्रेक लगाने पड़े, सामने प्रभात खड़ा था। वह जल्दी से आकर हर्षवर्धन के पास खड़ा हो गया और उसके कान खींचते हुए बोला - "रुक जा बेटा तेरी जन्नत को तेरी मन्नत मैं बता देता हूं, जहन्नुम तो फिर वो अपने आप बन ही जाएगी... नहीं" प्रभात के इतना कहते ही हर्षवर्धन सकपका गया। और हकलाते हुए बोला - "क क कौन जन्नत कैसा जहन्नुम और क्या मन्नत?"


"आजकल बहुत लिफ्ट्स दी जा रही हैं। कॉलेज की हर लड़की को लिफ्ट देता है न तू" प्रभात ने हर्षवर्धन का कान जोर से ऐंठते हुए कहा।


"भाई माफ कर दे मुझे, भूल गया था मेरे अलावा त्रिधा के और भी दो बॉडीगार्ड्स है जो चौबीस घंटे उस पर नजर रखे रहते हैं" हर्षवर्धन ने हाथ जोड़कर प्रभात को देखा।


"अरे नहीं नहीं मुझे कोई परेशानी नहीं, बल्कि मैं तो मदद करने को तैयार हूं । वैसे मैं अक्सर बालकनी में ही होता हूं इसलिए आते जाते लोग और 'कुछ लोगों की जन्नत' नजर आ जाते हैं" प्रभात ने हंसते हुए कहा।


"हां मदद, जरूर कर मदद, ताकि त्रिधा तुझसे भी नाराज हो जाए। भाई तू भी जानता है त्रिधा मुझसे दूर रहना चाहती है और मैंने तेरी मदद लेकर अगर उससे बात करने की कोशिश भी की न तो वह तुझसे भी नाराज हो जाएगी। प्रभात मैं नहीं चाहता मेरी वजह से त्रिधा अपने सबसे अच्छे दोस्त से दूर हो जाए। यहां बस तू ही तो है जो बिना कहे भी उसके मन की बात समझ जाता है, तुझसे अपनी परेशानी कह सकती है वह। सन्ध्या तो एकदम पागल है कुछ समझती नहीं" अंतिम वाक्य हर्षवर्धन ने कह तो दिया मगर तुरंत ही अपना माथा पीट लिया।


"भाई मेरी बेस्ट फ्रेंड को पटाने के चक्कर में भूल मत कि वो एकदम पागल संध्या गर्लफ्रेंड है मेरी" प्रभात ने ठहाका लगाया तब हर्षवर्धन भी हंस पड़ा। प्रभात आगे बोला - "यह तो अच्छा हुआ कि वो यहां नहीं है वरना तेरे साथ साथ मेरा भी खून हो जाता और त्रिधा हम दोनों में से किसी को भी नहीं बचाती"


हर्षवर्धन के फोन पर कॉल आन पर वह चला गया और प्रभात वापस अपने घर चला गया।


त्रिधा हॉस्टल के अपने कमरे में बैठी हुई थी। इस वक़्त उसे माया की कमी बहुत खल रही थी। उसे पता था कि माया के घरवालों की सोच थोड़ी पुरानी है इसीलिए वह चाहकर भी माया को कॉल नहीं कर सकती थी ताकि उसके लिए कोई समस्या न खड़ी हो जाए। उसने कपड़े बदले और बाल बांधकर अपना बैग समेटने लगी, अब बच्चों को पढ़ाने जाने का वक़्त हो गया था।


त्रिधा प्रभात के घर पहुंची तो देखा वह तैयार ही था और उसे देखते ही उसके पास आ गया शायद उसका ही इंतजार कर रहा था।


"आइए आइए" प्रभात ने एक कुटिल मुस्कुराहट के साथ कहा।


"ऐसे क्यों बात कर रहे हो?" त्रिधा ने मासूमियत से पूछा।


"आजकल लोग लिफ्ट लेने के बाद अपने ऑल टाइम ड्राइवर को कुछ बताते ही नहीं" प्रभात ने मुंह बनाया।


"हैं" त्रिधा ने आश्चर्य और असमंजस के मिले जुले भावों से आंखें चौड़ी करते हुए पूछा।


"अरे पागल, आज हर्ष के साथ अाई थी न" प्रभात ने हंसकर त्रिधा के सिर पर एक चपत लगाते हुए कहा।


प्रभात के कहने का अर्थ बखूबी समझ रही थी त्रिधा। मगर वह जानती थी एक बार अगर प्रभात को पता चल गया कि सिर्फ हर्षवर्धन ही उससे नहीं, बल्कि वह खुद भी हर्षवर्धन से प्यार करती है तो प्रभात कुछ भी कर के उन दोनों को मिलाने में जुट जाएगा मगर आगे जाकर यह हर्षवर्धन के लिए सही नहीं होगा। यही सोचकर उसने अपने मन की खुशी को अपने चेहरे पर आने से रोकते हुए पूछा - हां तो?


"तो तुम ऐसे ही किसी के भी साथ आ जाओगी?" प्रभात ने त्रिधा का मन जानने के लिए थोड़ा रूखे स्वर में पूछा।


"वो कोई भी नहीं, तुम्हारा दोस्त है, तुम्हारी पसंद तो बुरी हो ही नहीं सकती जैसे संध्या, इसीलिए मुझे उस पर विश्वास है" त्रिधा ने बात को टालने के उद्देश्य से कहा।


"तुम एक बार कह दो त्रिधा कि तुम भी हर्ष से प्यार करती हो, मैं वादा करता हूं सबकुछ करूंगा तुम दोनों को साथ लाने के लिए। कुछ तो कहो न त्रिधा, तुम्हारी खुशी के लिए मैं किसी से भी बात करूंगा" प्रभात ने त्रिधा के चेहरे को अपने हाथों में लेकर ऐसे पूछा जैसे कोई बड़ा किसी बच्चे से उसकी ख्वाहिशें पूछता है।


"ऐसा कुछ भी नहीं है प्रभात, चलो भी मुझे देर हो रही है" त्रिधा इतना कहकर आगे बढ़ गई।


रास्ते में त्रिधा ने प्रभात से कहा - "मुझे बच्चों को पढ़ाने के लिए लाते - ले जाते हुए तुम्हें इतना समय हो चुका है प्रभात और इतने समय में तुम एक भी बार संध्या के घर नहीं गए हो, मुझे लगता है तुम्हें उसके घर जाना चाहिए था तुम और संध्या कितना अच्छा वक्त साथ में बिता सकते थे"


"पागल तो तुम थी ही अब तुमने मास्टर्स डिग्री भी ले ली है कितनी बार तुम्हें समझाया है मैं इस तरह संध्या के घर नहीं जा सकता हूं।" प्रभात ने खिसियाकर कहा।


"इतना गुस्सा संध्या और हर्षवर्धन पर तो नहीं आता तुम्हें।" कहते हुए त्रिधा ने प्रभात को घूरा।


"अब ज्यादा दिमाग चलाना बंद करो और बच्चों को पढ़ाने में ध्यान लगाना, मुझे फोन कर दोगी तब मैं तुम्हें लेने आ जाऊंगा, तब तक अपने घर पर ही रहूंगा, नहीं जाऊंगा संध्या के घर।" प्रभात ने निर्णयात्मक स्वर में कहा।


"खडूस" इतना कहते हुए त्रिधा ने मुंह बना लिया।


बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने के बाद त्रिधा ने प्रभात को फोन कर दिया और वह उसे लेने आ गया था।


"अब तो संध्या से मिलने चल सकते हैं ना खडूस।" त्रिधा ने मुंह बनाते हुए प्रभात को देखा तो जवाब के बदले में उसे अपने सिर पर एक थपकी प्राप्त हुई। प्रभात अपनी बाइक स्टार्ट कर चुका था। मुंह बनाते हुए त्रिधा को भी प्रभात के साथ बैठना पड़ा।


"पता नहीं यह कौन सी लव स्टोरी है दुनिया की। कभी कभी तो ऐसा लगता है मैं कोई धार्मिक सीरियल देख रही हूं। तुम लोगों ने भी हद कर रखी है। इतनी ज्यादा अंडरस्टैंडिंग भी बेकार है जो मिलने में भी तुम लोगों को मौत आती है।" त्रिधा ने मुंह बनाते हुए कहा तो प्रभात ने अपना सिर पीट लिया।


शाम को त्रिधा अपने हॉस्टल के कमरे में बैठी हुई थी। वह अपनी प्लेट में खाना तो लेे आई थी मगर उससे खाया नहीं जा रहा था। उसे रह रहकर माया की याद आ रही थी। जब वह और माया साथ में रहते थे तो अपनी परेशानी एक दूसरे से बांट कर दोनों ही खुश रहती थी। त्रिधा हर्षवर्धन के बारे में किसी और से नहीं कह सकती थी मगर माया उसके मन की यह बात आसानी से समझ जाती थी और इसीलिए त्रिधा कई बार माया को बता देना चाहती थी कि वह हर्षवर्धन के लिए क्या महसूस करती है मगर उसे कभी बताने का मौका ही नहीं मिला इस एक साल में उन लोगों की दोस्ती तो हो गई थी मगर माया अपने आप में ही गुम रहती थी और त्रिधा, वह अपनी पढ़ाई करती और फिर उसे बच्चों को पढ़ाने जाना होता था, उसे अपनी व्यस्त दिनचर्या से ही समय नहीं मिल पाता था।


कुछ समय बीत गया उन सभी की द्वितीय वर्ष की कक्षाएं चालू हो चुकी थीं मगर रिजल्ट अभी आना बाकी था।


वह द्वितीय वर्ष की कक्षाओं का पहला दिन था। त्रिधा कॉलेज के एंट्रेंस गेट पर खड़ी हुई थी और उस दिन को याद कर रही थी जब वह पहले दिन इस कॉलेज में आई थी और उसे संध्या मिल गई थी। देखते ही देखते कब एक साल बीत गया किसी को भी पता नहीं चला इस एक साल में त्रिधा की जिंदगी बहुत बदल गई थी। जहां उसे प्रभास और संध्या जैसे दो दोस्त मिल गए थे वहीं हर्षवर्धन के रूप में प्यार भी मिल गया था मगर वह चाह कर भी उससे अपने दिल की बात नहीं कह पा रही थी तभी अचानक स्कूटी के ब्रेक्स की आवाज सुनाई दी तो त्रिधा वर्तमान में लौट आई। उसने देखा संध्या अपनी स्कूटी पर बैठी हुई थी और उसे देखकर अब वह बार-बार हॉर्न बजाने लगी थी।


"अब क्या तुमने लड़कियां छेड़ने का भी काम शुरू कर दिया है?" त्रिधा ने संध्या को देखकर पूछा।


"कितना बक बक करने लगी हो तुम, एक साल पहले तो मुंह से बोल नहीं निकलते थे तुम्हारे!" संध्या ने आगे बढ़कर त्रिधा के सिर पर एक हल्की सी चपत लगाते हुए कहा।


"तुम भी प्रभात जैसी हरकतें करने लगी हो।" त्रिधा ने संध्या को उसकी चपत वापस लौटाते हुए कहा।


इसके बाद भी दोनों जाकर अपनी क्लास में बैठ गई, प्रभात और हर्षवर्धन दोनों ही अभी तक नहीं आए थे।


"माया नहीं आई?" संध्या ने अचानक ही त्रिधा से पूछा।


"नहीं... ना जाने क्यों वह नहीं आई और ना ही मेरा उससे कोई भी कांटेक्ट हो पाया है, जितना तुम्हें पता है उतना ही मुझे भी पता है।" त्रिधा ने परेशान होकर कहा।


"हम्म न जाने क्या बात होगी?" संध्या ने कहा। वे दोनों अभी बातें कर ही रही थी कि तभी हर्षवर्धन कहां आ गया और त्रिधा और संध्या जिस बेंच पर बैठी हुई थी, उसके साथ वाली बेंच पर ही जाकर बैठ गया।


वह काफी देर से एकटक त्रिधा को देखे जा रहा था मगर त्रिधा ने उस पर कोई भी ध्यान नहीं दिया।


"तुम्हें हर्षवर्धन से कोई परेशानी है क्या?" संध्या अचानक ही बोली तो त्रिधा और हर्षवर्धन दोनों का ही ध्यान संध्या की बात पर गया।


"नहीं मुझे कोई परेशानी नहीं है।" त्रिधा ने कहा और "मुझे कैंटीन जाना है, आज हॉस्टल से ब्रेकफास्ट किए बिना ही आ गई हूं" कहकर त्रिधा वहां से चली गई।


"वह थोड़ी सी पागल है संध्या ने हर्षवर्धन को देख कर कहा। त्रिधा के जाते ही हर्षवर्धन उठकर संध्या के पास आकर बैठ गया और उससे कहने लगा "वह थोड़ी सी पागल है, मगर तुम कुछ ज्यादा हो।"


"क्या मतलब?" संध्या ने हैरानी से पूछा मगर तब तक हर्षवर्धन वहां से उठकर क्लासरूम के दरवाजे पर जाकर खड़ा हो गया और जब तक संध्या समझ पाती तब तक हर्षवर्धन क्लास से बाहर जा चुका था।


"हद है, मैं क्या इन सब को जोकर नजर आती हूं!" संध्या ने खीझकर कहा।


उस दिन प्रभात कॉलेज नहीं आया था। संध्या ने प्रभात को कॉल करके भी पूछना चाहा कि वह कॉलेज क्यों नहीं आया है मगर प्रभात ने उसका भी कॉल रिसीव नहीं किया। संध्या को यह काफी अजीब लगा क्योंकि ऐसा कभी भी नहीं हुआ था कि प्रभात ने उसका कॉल रिसीव नहीं किया हो।


दूसरी तरफ, त्रिधा कैंटीन में जाकर बैठी हुई थी कि तभी हर्षवर्धन वहां आ गया और उसके सामने बैठ गया।


"तुम मेरा पीछा क्यों कर रहे हो? मुझे अकेला क्यों नहीं छोड़ देते हो? त्रिधा ने परेशान होकर कहा।


"मैं तुम्हें अकेला नहीं छोड़ सकता, मुझे बताया प्रभात ने कि तुम हमेशा से अकेली ही तो रही हो और अब जब तुम्हें इतने लोगों का साथ मिल रहा है, इतने लोगों का प्यार मिल रहा है, तो तुम दूर क्यों भाग रही हो? हर्षवर्धन ने त्रिधा के हाथ को अपने हाथ में लेकर पूछा। वह त्रिधा से इतने अपनेपन से बोला था कि अब तो उठा के लिए उसे इग्नोर करना और मुश्किल होता जा रहा था।


"मैं किसी से भी दूर नहीं भाग रही हूं।" त्रिधा ने जैसे तैसे अपना वाक्य पूरा किया।


"और मुझसे?" हर्षवर्धन ने गौर से देखा के चेहरे को देखते हुए पूछा था कि उसके चेहरे पर आए उन भावों को देखकर उसके मन की स्थिति का अंदाजा लगा सके मगर वह असफल रहा, अपने मन के भावों को चेहरे पर ना आने देने का हुनर त्रिधा में बचपन से ही था। हर्षवर्धन की बात का जवाब दिए बिना ही त्रिधा वहां से उठकर जाने लगी तब हर्षवर्धन ने उसका हाथ पकड़ लिया और उसे रोक कर कहने लगा - "आज तुम्हें मेरी बात सुननी ही होगी त्रिधा…."



क्रमशः