काव्य संकलन ‘‘बेटी’’ 10
(भ्रूण का आत्म कथन)
वेदराम प्रजापति
‘‘मनमस्त’’
समर्पणः-
माँ की जीवन-धरती के साथ आज के दुराघर्ष मानव चिंतन की भीषण भयाबहिता के बीच- बेटी बचा- बेटी पढ़ा के समर्थक, शशक्त एवं साहसिक कर कमलों में काव्य संकलन ‘‘बेटी’’-सादर समर्पित।
वेदराम प्रजापति
‘‘मनमस्त’’
काव्य संकलन- ‘‘बेटी’’
‘‘दो शब्दों की अपनी राहें’’
मां के आँचल की छाँव में पलता, बढ़ता एक अनजाना बचपन(भ्रूण), जो कल का पौधा बनने की अपनी अनूठी लालसा लिए, एक नवीन काव्य संकलन-‘‘बेटी’’ के रूप में, अपनीं कुछ नव आशाओं की पर्तें खोलने, आप के चिंतन आंगन में आने को मचल रहा है। आशा है-आप उसे अवश्य ही दुलार, प्यार की लोरियाँ सुनाकर, नव-जीवन बहारैं दोगे। इन्ही मंगल कामनाओं के साथ-सादर-वंदन।
वेदराम प्रजापति
‘‘मनमस्त’’
शोच (चिंतन) के अन्य दायरे
लड़की का घर आवना, सब रोगों का रोग।
बुरे कर्म का फल यही, कर लीजे पहिचान।।
लड़की जन्में जब कहीं, घटता माँ का मान।
नजरों से गिरती दिखें, कर लीजे पहिचान।।
लड़की की हो उपेक्षा, लड़का को ले हाथ।
पुण्य लाभ यह मानते, मिटती सकल व्याध।।
लड़की संख्या घटै से, होएगा महारास।
लड़की छीनी जाऐगी, आएगा महा नाश।।
युवा नारिय़ाँ सोचती, बेटी नर्क समान।
पढ़ी लिखीं सेवा करै? क्या होगी पहिचान।।
कई जनों का सोचना, कठिन सुरक्षा मान।
लड़की घर में व्याधि है, भ्रूणी हत्या ठान।।
लड़को को कुछ मानते, घर का दीपक एक।
बेटी धन ले जाऐगी, अपने घरै समैट।।
कई-कई यह सोचते, बेटी-वर घर जाए।
सोच समझ ऐसा करो, कोई न जानन पाए।।
आज सुरक्षा कठिन है, जल्दी करो विवाह।
पढ़ा लिखा क्या करैगे, देदो उसे निकाह।।
काम काजी स्त्रीय़ाँ, पुरूष भोग्या मान।
पुत्री जन्म न चाहती, जीवन भर हैरान।।
पति-पत्नी सर्विस करै, पालन करिहै कौन।
एकही संतति चाहती, दूजा देए न होन।।
माँ नहिं जीना चाहती, अपमानों के द्वार।
गर्भपात करवावती, अपने मन में हार।।
सिर नीचा होता रहे, घठै हमारा मान।
हाथ जोड़ने पड़त है, मानै यह अज्ञान।।
माँ बीमारी से घिरै, बेटी आते कौख।
स्वास्थ्य लाभ नहीं, देते भारै झौख।।
बेटी की माँ ही सदा, अधिक कष्ट ही पाए।
रोग-ग्रस्त जीवन जीए, कई त्रासना पाए।।
रोज-रोज के मरण से, अच्छा है गर्भपात।
भूख,गरीबी सब मिटै, नारी सोचत जात।।
भोग वस्तु मानत रहै, स्त्री को बहु लोक।
कब तक भोगे इस तरह, इतने गहरे रोग।।
चार-पाँच हो बेटिय़ाँ, जिस दंपति के गेह।
भ्रूण हत्या हो तहाँ, कहाँ से लाय नेह।।
गर्भस्थे जो शिशु है, वह संवेदन शील।
भ्रूण हत्या सब क्रिया, उसको होती फील।।
बारह सप्ताह बाद में, विकसित होता तंत्र।
पीड़ा का एहसास हो, करो न उसको हंत।।
खतरो से अनभिज्ञ है, नारी का परिवेश।
गर्भ पात की धार में, वहगईं यहाँ अनेक।।
गर्भधारण मार्ग में, स्त्री बनत महान।
रखें सम्भाले स्वयं को, ठान ले यह ठान।।
भ्रूण हत्या तब कहाँ, जब दोनों हों एक।
गर्भ धारण एक मत, तब दुनिय़ाँ हो नेक।।
दोनों के युग-युग्म से, गर्भ धारणा होय।
यह आजाए समझ जब, तब जीवन हो नेक।।
चलो मानवी राह पर, मानव देह महान।
रहो सभ्यता में बॅंधे, तब जीवन कल्याण।।
मिल जाए अधिकार यह, स्त्री को बस दक।
गर्भ धारना जब चहे, गाढ़े इसकी नेक।।
अथवा क्रिया पलट हो, गर्भ पुरूष को होय।
छेड़-छाड़ सब ही मिटें, पुरूष भगेगा रोय।।
गर्भ धारना कठिन है, जीवन जोखिम पाथ।
पुरूष सम्भाल न पाएगा, जोड़ेगा दोऊ हाथ।।
नारी को वरदान है, सहे गर्भ की मार।
सृष्टि की रचना करै, कभी न माने हार।।
जग जाए ऐहसास यह, नारी ऋणी समाज।
वस्तु नहीं, यह व्यक्ति है, इसका हो ऐहसास।।
मानव के इतिहास में,यह क्राँति आजाए।
किसकी यह सब भूल है, नारी कष्ट उठाए।।
अब तक भ्रष्टाचार को, लगी न ठोस लगान।
नारी साहस जागरण, हो इसका पैगाम।।
जगे संबेदन शीलता, हो व्यक्तित्व महान।
बनें नहीं शो-पीस, तब हो नारी कल्याण।।
देह दिखावा नहीं कहीं, सेक्स विचार लगाम।
न्याय यही सब चाहते, न्याय करो गुल्फाम।।
रचना हो तुम ईस की, सबसे सुन्दर एक।
तय करलो अपनी दिशा, उठते प्रश्न अनेक।।
रचनात्मक तब क्रिया हो, नहीं समर्पण भाव।
संग-सहयोगी शवना, सच जीवन तव पाव।।
आजादी का अर्थ है, चलन विकाशी दौर।
उन्नत पथ की कामना, नहीं भोग सिरमौर।।
सच्चा जीवन कौनसा? कर्म, क्रिया या काम।
सही दिशा है कौनसी? चिंतन करलो बाम।।
भ्रूण हत्या जो करै, तीन सौ दो, दो दण्ड।
सुधर जाऐंगे लोग सब, कानून बनें अखण्ड।।
जो इसमें आलिक्त हों, जेलों दो बैठार।
बहिष्कार उनका करो, जो करें यह व्यापार।
जाँऐं परीक्षण हेतु जो, उनको राखो बाँध।
काला मुँह उनका कारो, शहर घुमाओ सॅझ।।
बेटी की हर सुरक्षा, हो शासन आधीन।
ग्राम षहर मिल एक हों, कोई न उसमें लीन।।
भ्रूण हत्या-लिंग परीक्षण, रोक मीडिया देय।
जनमत ले तैयार कर, सभी समस्या खोय।।
आत्मनिर्भर हों नारिय़ाँ, खुद को लें पहिचान।
निर्भय बन बेटीं पढ़ें, होय राष्ट्र उत्थान।।
बेटी-स्त्री को बचा, शिक्षा दो अनमोल।
क्रांन्ति-दीपक जला दो, बच जाए भूगोल।।
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