CHAACHIJI KAA PREM in Hindi Short Stories by Anand M Mishra books and stories PDF | चाचीजी का प्रेम

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चाचीजी का प्रेम

सदा की तरह वार्षिक अवकाश में अपने गृहनगर पहुंचा। अपने चाचाजी के यहाँ मिलने के लिए गया तो दादी की तस्वीर पर ‘हार’ चढ़ा देखा। मन में दादी के साथ बिताए पल याद आने लगे।

कैसे दादी कम संसाधनों के बावजूद परिवार को एक रखने में कामयाब हुई थी? अपने बच्चों को सही मुकाम तक पहुंचाने में सफलता प्राप्त की थी। दादी को समाज में काफी सम्मान प्राप्त था। परिवार में सबसे बड़ी भी थीं। उनका रूतबा वैसे भी कायम था। सभी उनके सामने मर्यादित होकर बात करते थे। यदि कहीं किसी को दादी बेअदबी करता हुआ देखतीं थी उसी वक्त उसका क्लास ले लेती थीं।

उसी वक्त चाचीजी को अगरबत्ती लेकर ‘दादी’ के तस्वीर पर पूजा करते देखा। मन चौंक गया। चाची और दादी की पूजा? दोनों साथ-साथ संभव कैसे हो गया? यह मैं क्या देख रहा था? मन में विश्वास नहीं हो रहा था। चाची पूरे भक्तिभाव के साथ दादी की तस्वीर पर अगरबत्ती दिखा, पुष्पांजलि देकर पूजा घर में शेष गतिविधि को करने में लग गयी।

वक्त सब ठीक कर देता है। जब तक जीव इस धरती पर रहता है तभी तक राग-द्वेष सब लगा रहता है। जीव के इस मृत्युलोक के छोड़ने पर सब दुश्मनी समाप्त हो जाती है। रावण की मृत्यु भी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भी दुश्मनी भूल गए। उन्होंने भाई लक्ष्मण को रावण के पास ज्ञान अर्जन के लिए भेजा।

यही परिवर्तन चाचीजी में भी दादीजी के गुजर जाने के बाद हुआ।

दादीजी ने अपने चार बेटों तथा दो बेटियों को काफी शिद्दत के साथ पाला-पोषा तथा लायक बनाया। मगर बेटों के शादी करने के बाद उनकी शान्ति भंग हो गयी। किसी से दबने वाली वे थीं नहीं। बहुएं कलयुग की थीं। वे भी दबने वाली नहीं थीं। मगर चाचाजी सब दादीजी का पूरा ध्यान रखते थे। काजू-किशमिश, दूध, घी आदि की नदियाँ बहती थीं। किसी प्रकार की कमी नहीं थीं।

लेकिन दादीजी की जिहवा खाने के लिए लपलपाती रहती थी। उन्हें मनपसंद खाने का पूरा शौक था। लेकिन बहुएं घर में सभी सामान के पर्याप्त या भरपूर रहने के बाद भी उन्हें तरसा कर रखती थीं।

ऐसा नहीं है कि सभी बहुओं के साथ दादीजी की पटरी नहीं बैठती थी। कुछ बहुएं उनका पूरा सम्मान करती थीं। कुछ लोक-लज्जा वश उनसे बहस नहीं करती थीं। मनमानी तो वे भी करती थीं लेकिन चालाकी से। उनके सामने कुछ नही बोलना है, इसका पूरा ध्यान रखती थीं।

एक बार एक चाचाजी जो रेलवे कर्मचारी तथा यूनियन के नेता भी थे अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर वापस अपने क्वार्टर आए। दादीजी उस वक्त उन्ही के पास थीं। चाचाजी भी हाथ-मुंह धोकर दादीजी के पास बैठे। हाल-चाल, दिनभर की घटनाओं को पूछने-जानने लगे। दादीजी भी उनसे हंसी-ख़ुशी से बात करने लगी।

बातचीत के बाद चाचाजी के सामने भोजन आया। भोजन भरपूर था तथा विशेषता में कटोरी की जगह कटोरे में दूध था। चाचाजी ने उत्सुकतावश चाचीजी से पूछ लिया कि माताजी को दूध मिला है या नहीं?

इतना पूछते ही ऐसा लगा मानो बम फूट गया हो। हो सकता है कि चाचीजी इसके लिए तैयार बैठी थी। उबल पड़ीं।

चाचीजी के शब्दों में ही, “ क्या आपकी माँ दूध पीकर पहलवान बनेंगी। बच्चे यदि दूध पीयेंगे तो उनका स्वास्थ्य बनेगा। उन्हें क्या कुश्ती लड़ाना है?”

इसके बाद चाचीजी राजधानी एक्सप्रेस की तरह बोलती ही चली गयीं।

चाचाजी नि:शब्द सुन रहे थे। चुपचाप रोटी का निवाला मुंह में रखते जा रहे थे।

आज चाचीजी को दादीजी की तस्वीर की पूजा करते देख उस दिन की बात याद आ गयी।