बिम्ब अब अपने अंतिम प्रश्न काल में पहुँच चूका है जहाँ ईश्वर के साथ हुई बातचीत का अंतिम चरण है, यहाँ कुछ बातें ईश्वर की हैं और कुछ बिम्ब की सोच पर आधारित जो वो अपने पुत्र को ईश्वर के सत्य का ज्ञान कराने के लिए सोचता है........................
प्रश्न- क्या ईश्वर सर्वशक्तिमान है ?
उत्तर- हाँ, वह सर्वशक्तिमान है । लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि वह जो चाहे वो कर सकता है । अपनी इच्छा से कुछ भी करते जाना तो अनुशासनहीनता का संकेत है । इसके विपरीत ईश्वर तो सबसे अधिक अनुशासनपूर्ण है । सर्वशक्तिमत्ता का अर्थ यह है की उसे अपने कर्तव्य कर्मों – सृष्टि की उतपत्ति, स्थिति और प्रलय , को करने के लिए अन्य किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं होती । वह स्वयं ही अपने सब कर्त्तव्य कर्मों को करने में समर्थ है ।
लेकिन वह केवल अपने कर्तव्य कर्मों को ही करता है । उदाहरण के लिए, वह दूसरा ईश्वर बनाकर खुद को नहीं मार सकता । वह खुद को मूर्ख नहीं बना सकता । वह चोरी, डकैती अदि नहीं कर सकता ।
प्रश्न- क्या ईश्वर का कोई आदि (आरम्भ) है ?
उत्तर- ईश्वर का न कोई आदि है और न ही कोई अंत । वह हमेशा से था , है और हमेशा रहेगा । और उसके सभी गुण हमेशा एक समान रहते हैं ।
जीव और प्रकृति अन्य दो अनादि , अनंत वस्तुएं हैं ।
प्रश्न- ईश्वर क्या चाहता है ?
उत्तर- ईश्वर सब जीवों के लिए सुख चाहता है और वह चाहता है कि जीव उस सुख के लिए प्रयास करके अपनी योग्यता के आधार पर उसे प्राप्त करें ।
प्रश्न- क्या हमें ईश्वर की उपासना करनी चाहिए ? और क्यूँ ? आखिर वो हमे कभी माफ़ नहीं करता !
उत्तर- हाँ हमें ईश्वर की उपासना करनी चाहिए और एकमात्र वही उपासनीय है । ये ठीक है की ईश्वर की उपासना करने से आपको कोई उत्तीर्णता का प्रमाणपत्र यूं ही नहीं मिल जायेगा यदि आप वास्तव में अनुत्तीर्ण हुए हैं । केवल आलसी और धोखेबाज लोग ही सफलता के लिये ऐसे अनैतिक उपायों का सहारा लेते हैं ।
ईश्वर की स्तुति के लाभ और ही हैं :
अ) ईश्वर की स्तुति करने से हम उसे और उसकी रची सृष्टि को अधिक अच्छे से समझ पाते हैं ।
ब) ईश्वर की स्तुति करने से हम उसके गुणों को अधिक अच्छे से समझकर अपने जीवन में धारण कर पाते हैं।
स) ईश्वर की स्तुति करने से हम ‘अन्तरात्मा की आवाज़’ को अधिक अच्छे से सुन पाते हैं और उसका निरंतर तथा स्पष्ट मार्गदर्शन प्राप्त कर पाते हैं ।
द) ईश्वर की स्तुति करने से हमारी अविद्या का नाश होता है, शक्ति प्राप्त होती है और हम जीवन की कठिनतम चुनौतियों का सामना दृढ आत्मविश्वास के साथ सहजता से कर पाते हैं ।
इ) अंततः हम अविद्या को पूर्ण रूप से हटाने में सक्षम हो जाते हैं और मुक्ति के परम आनंद को प्राप्त करते हैं ।
यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि स्तुति का अर्थ मंत्रोच्चारण या मन को विचारशून्य करना नहीं है । यह तो कर्म, ज्ञान और उपासना के द्वारा ज्ञान को आत्मसात करने की क्रियात्मक रीति है ।
प्रश्न- जब ईश्वर के अंग और ज्ञानेन्द्रियाँ नहीं है तो फिर वो अपने कर्मों को कैसे करता है ?
उत्तर- उसकी क्रियाएं जो कि अत्यंत सूक्ष्म स्तर पर होती हैं उन्हें करने के लिए उसे इन्द्रियों की आवश्यकता नहीं होती । वह अपनी स्वाभाविक शक्ति से उन्हें करता है । वह बिना आँखों के देखता है क्यूंकि उसकी आँखें आकाश में प्रत्येक बिंदु पर हैं, उसके चरण नहीं है फिर भी वह सबसे तेज है, उसके कान नहीं हैं फिर भी वह सब कुछ सुनता है । वह सब कुछ जानता है फिर भी सबके पूर्ण प्रज्ञान से परे है । यह श्लोक उपनिषद् में आता है । ईशोपनिषद भी इसका विस्तृत वर्णन करता है ।
प्रश्न- क्या ईश्वर को सीमायें ज्ञात हैं ?
उत्तर- ईश्वर सर्वज्ञ है। इसका अर्थ है कि जो कुछ भी सत्य है वह सब जानता है । क्यूंकि ईश्वर असीमित है इसलिए वह जानता है की वह असीमित है । यदि ईश्वर अपनी सीमाओं को जानने का प्रयास करेगा जो कि हैं ही नहीं तब तो वो अज्ञानी हो जायेगा ।
प्रश्न- ईश्वर सगुण है या निर्गुण ?
उत्तर- दोनों। यदि ईश्वर के दया, न्याय, उत्पत्ति, स्थिति आदि गुणों की बात करें तो वह सगुण है । लेकिन यदि उन गुणों की बात करें जो कि उसमे नहीं है जैसे कि मूर्खता, क्रोध, छल , जन्म, मृत्यु आदि, तो ईश्वर निर्गुण है । यह अंतर केवल शब्दगत है ।
प्रश्न- कृपया ईश्वर के मुख्य गुणों को संक्षेप में बताएं ।
उत्तर- उसके गुण अनंत हैं और शब्दों में वर्णन नहीं किये जा सकते । फिर भी कुछ मुख्या गुण इस प्रकार हैं :
1. उसका अस्तित्व है ।
2. वह चेतन है ।
3. वह सब सुखों और आनंद का स्रोत है ।
4. वह निराकार है ।
5. वह अपरिवर्तनीय है ।
6. वह सर्वशक्तिमान है ।
7. वह न्यायकारी है ।
8. वह दयालु है ।
9. वह अजन्मा है ।
10.वह कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं होता ।
11. वह अनंत है ।
12. वह सर्वव्यापक है ।
13. वह सब से रहित है ।
14. उसका देश अथवा काल की अपेक्षा से कोई आदि अथवा अंत नहीं है ।
15. वह अनुपम है ।
16. वह संपूर्ण सृष्टि का पालन करता है ।
17. वह सृष्टि की उत्पत्ति करता है ।
18. वह सब कुछ जानता है।
19. उसका कभी क्षय नहीं होता, वह सदैव परिपूर्ण है ।
20. उसको किसी का भय नहीं है ।
21. वह शुद्धस्वरूप है ।
22. उसके कोई अभिकर्ता (एजेंट) नहीं है । उसका सभी जीवों के साथ सीधा सम्बन्ध है।
एक मात्र वही उपासना करने के योग्य है, अन्य किसी की सहायता के बिना।
यही एक मात्र विपत्तियों को दूर करने और सुख को पाने का पथ है ।
बिम्ब आगे अपने पुत्र से कहता है की हे पुत्र जब तक में जीवित था तब तक मुझे अपने शरीर पर घमंड था, उस शरीर पर जो नश्वर है, मैं स्थूल शरीर को ही सब कुछ मान बैठा था उसके होने से अपने होने और उसके जाने से अपने नहीं होने को जोड़ बैठा था। परन्तु अब में जानता हूँ की गीता मैं सत्य ही कहा गया है.....
"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणी नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।"
अर्थात : आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है।
“ न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायम् भूत्वा, भविता, वा न भूय:
अजोनित्य: शाश्वतोयं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे………”
अर्थात : आत्मा का जन्म नहीं होता । उसकी मृत्यु भी नहीं होती। वह पहले न थी, या अबके बाद नहीं होगी, ऐसा नहीं है। आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत, पुरातन है। शरीर का नाश होने पर भी आत्मा का नाश नहीं होता । आत्मा, सर्वव्यापी, स्थिर, अचल और सनातन है । उसे अव्यक्त, अचिंत्य और विकार रहित कहते हैं।
जैसे परमात्मा समग्र विश्व का संचालन करते हैं, वैसे आत्मा शरीर का संचालन करती है। जब तक आत्मा और शरीर जुडे हुए रहेते हैं तब तक ही शरीर जीवंत रहेता है। जब आत्मा और शरीर अलग होते हैं, तब शरीर की मृत्यु होती है। मृत्यु के समय, आत्मा अमर है इसलिए उसका शोक नहीं करना चाहिये और नाशवंत शरीर का तो कभी भी नाश होगा ही, इसलिए उसका शोक भी उचित नहीं।
“ अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशय स्थित, अहमादिश्च, मध्यं च, भूतानाम् अन्त एव च…”
अर्थात : ” सभी प्राणीओं में रहेनेवाली आत्मा मैं ही हूं। सभी प्राणीओं का आदि, मध्य और अंत मैं ही हूं।” इस तरह आत्मा, परमात्मा का ही अंश है। परमात्मा का ही स्वरुप है।
पुत्र तुम शोक न करो क्यूंकि अब मैंने वो नश्वर शरीर त्याग दिया है और में अब ईश्वर के कहे गए वचनों के आधार पर एक ईश्वरीय आत्मा के रूप में हूँ, क्यूंकि स्वयं ईश्वर ने ही गीता में लिखा है और मुझसे साक्षात्कार के समय कहा भी है की हर प्राणी मात्र में रहने वाली उसे चलाने वाली और उसे जीवित रखने वाली आत्मा में ही हूँ जिस तरह पानी दूध में मिल कर दूध के गुण और रंग को प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार आत्मा भी शरीर छोड़ कर अपने सत्य मतलब ईश्वरत्व को प्राप्त कर लेती है तो हे पुत्र अब में सिर्फ तुम्हारा प्रियजन या पिता नहीं हूँ अब में ईश्वर में विलीन हूँ मतलब अब में स्वयं ईश्वर हूँ। अतः "मैं ईश्वर हूँ"।
क्रमशः अगला भाग - मैं ईश्वर हूँ 09
सतीश ठाकुर