BUJURGON KII PARESHAANI in Hindi Moral Stories by Anand M Mishra books and stories PDF | बुजुर्गों की परेशानी

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बुजुर्गों की परेशानी

चंद्रमा पर राष्ट्र्भूमि केंद्र विद्यालय नामक संस्था चलती है। इस विद्यालय का चंद्रमा पर ‘जाल’ बिछा हुआ है। विद्यालय का जाल इतने सुदृढ़ तरीके से बिछा है कि सभी अध्यापकों में एक परिवार का रिश्ता बन गया है। वर्ष के दस महीने अध्ययन-अध्यापन का कार्य कर शिक्षक वर्ग लगभग डेढ़ महीने के लिए पृथ्वी पर अपने गृहनगर की सैर पर जाते हैं तथा तरोताजा होकर वापस चन्द्रमा पर आकर अपने अध्ययन कार्य में लग जाते हैं। यह क्रम चलते रहता है। इस बीच यदि पृथ्वी पर कोई शिक्षक जाता है तो दूसरे सहकर्मी अध्यापकों की खोज-खबर भी लाता है। बहुत-से शिक्षक तो अपनी सुविधानुसार अन्य को भी पृथ्वी से पकड़कर लाते हैं तथा अध्यापन कार्य में लगा देते हैं। कुल मिलाकर सभी का मन लग जाता है।

परेशानी की बात पिछले लगभग डेढ़ वर्ष से हो गयी है। पृथ्वी से एक अदृश्य विषाणु का प्रकोप फ़ैल गया है। सभी परेशान हैं। इसे भू पर ‘कोरोना’ नाम दिया गया है। धरती के प्रायः चिकित्सक इसके सामने परास्त साबित हो रहे हैं। इस विषाणु के कारण पृथ्वी पर पूर्ण देशबंदी घोषित कर दी जाती है। शिक्षक बन्धु मन मारकर विद्यालय में ही मटरगश्ती करते रह जाते हैं। उनके अवकाश का कबाड़ा निकल जाता है।

शिक्षक बेचारे तो किसी प्रकार रह भी जाते हैं। लेकिन इससे भी बुरी स्थिति उनके वृद्ध माँ-पिताजी की हो जाती है। जो कि टकटकी लगाए दिन गिनते रहते हैं। उनकी बूढ़ी, सूनी आँखे कैलेन्डर की तारीख को काटते रहती हैं।

शिक्षक बंधु तो सुबह-सवेरे आस-पास के मैदान में टहल लेते हैं। हल्का-फुल्का व्यायाम और योग कर लेते हैं। बैडमिंटन खेलते हैं। ठहाके लगा लेते हैं। किसी के घर जाकर चाय की एक प्याली पीते हैं। अखबार पढ़कर और रोज की गतिविधियों में व्यस्त हो जाते हैं।

शाम को एक बार फिर सुबह वाली दिनचर्या को दुहरा लेते हैं। हां, एक बात तो भूल ही गया। अच्चा-बुरा जैसा भी मौसम हो – चाँद पर शिक्षक सुबह-शाम ‘ईश-वंदना’ करना नहीं छोड़ते। इस कार्य को वे तेज बुखार होने से भी नहीं छोड़ते। कर्तव्य-निर्वहन में राष्ट्रभूमि विद्यालय जैसे शिक्षक का मिलना लगभग नामुमकिन है।

पिछले करीब डेढ़ साल से, जब से पृथ्वी के देशों में कोरोना का संक्रमणकाल शुरू हुआ, वरिष्ठ नागरिकों और बुजुर्गों की इस दिनचर्या पर मानो ग्रहण सा लग गया है।

चूँकि शिक्षकों के माता-पिता बुजर्ग हैं तथा अधिकांश के आँखों ने भी जवाब दे दिया है। सो वे अपना समय सोशल मीडिया पर भी नहीं दे सकते। न ही धार्मिक ग्रंथ रामायण-महाभारत आदि का पठन-पाठन कर सकते हैं। महामारी के कारण कोई उनसे मिलने भी नहीं आता है। सत्संग सुनने, योग शिविर, शादी-विवाह या अन्य कोई पर्व-त्यौहार मनाने के लिए बाहर भी नहीं जा सकते। चाँद पर उपस्थित विद्यालय के शिक्षक किसी प्रकार घर जाने की बजाए अपने माँ-पिताजी को बाहर नहीं निकलने की हिदायत देते रहते हैं।

पहले वर्ष में जब त्रासदी आई तो शिक्षकों ने पृथ्वी पर जाने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया। बड़े-बूढों ने किसी तरह से अपने मन को समझा लिया। लेकिन धरती पर जब दूसरे वर्ष जब दूसरी लहर आयी तो फिर सबका धैर्य जवाब दे गया। मन मारकर लोग चंद्रमा पर भी रहकर भगवान-भगवान बोलकर त्रासदी के जाने का इन्तजार कर रहे हैं। त्रासदी को आए तथा घर नहीं जाने का समय लगभग दो वर्ष से भी ज्यादा का हो चुका है। कोरोना से पीड़ित होने के बाद कई बुजुगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। जो बचे हुए हैं, वे अब अकेलेपन के एहसास से जुझ रहे हैं। कोरोना की पहली लहर में तो इस अकेलेपन को किसी तरह से झेल गए थे, लेकिन इस दूसरी लहर में फैली अनिश्चितता ने उन्हें तोड़कर रख दिया है। बुजुर्गों को संगीत, साहित्य या चुटकुले कौन सुनाते रहेगा। उन्हें व्यस्त रखना इस समय की सबसे बड़ी मांग है। युवा वर्ग अपनी रोजी-रोटी के चक्कर में घर में रहता नहीं है।

विद्यालय में लगभग अविवाहित शिक्षक जुगाड़ बैठाकर अपने गृहनगर के लिए प्रस्थान कर गए हैं। प्रायः चार सदस्यों वाले शिक्षक विद्यालय में ही रह गए हैं। शिक्षक ‘सपने’ में ‘नित्य’ ‘मृदु’ व्यवहार से, ‘आनंद’ मनाते हुए, लक्ष्य पर ‘ध्रुव’ की तरह ‘कल्याण’ करने का अटल भाव् रखकर, अखंड ‘दीप-ज्योति’ का प्रज्वलन ‘सिंह’ की तरह कर ‘कुसुम’ आच्छादित करते हुए, ‘शेफाली’ सुंगंध बिखराते हुए ‘जयकिशन’ ‘संकर्षण’ कार्य मन में ‘संजोए’ बैठे हैं।

कुछ शिक्षक केवल ट्रेन की समय-सारिणी देखते हैं। टिकट कटकर रद्द भी करा लेते हैं। लेकिन भय या हताशा के कारण जा नहीं सकते हैं।

लेकिन शिक्षक जब चाँद पर आते हैं तो मनोबल को पूरी तरह से बढाकर आते हैं। वे येन-केन – प्रकारेण अपने वृद्ध माँ-पिता को यह विश्वास दिलाने में कामयाब हो जाते हैं कि यह समय जल्दी ही गुजर जाएगा। जब तक यह समय नहीं बीतता, वे मन-वचन तथा कर्म से उनके साथ हैं। उन्हें घर के हर निर्णय में शामिल कर यह अहसास दिलाया जाता है कि उनका ध्यान चाँद पर से ही मगर अच्छे से रखा जा रहा है। उन्हें संचार और संवाद के नए तरीके से व्यस्त रखने का भरसक प्रयास करते रहते हैं।

लगभग हर शिक्षक के मन में यह भाव है कि यह कोरोना का कहर पृथ्वी पर कब समाप्त होगा। वैसे एक खबर यह भी आयी है कि इस विषाणु के भगाने का टीका भी आ गया है। लेकिन अभी इसमें वक्त लगेगा।

देखना है कि अब शिक्षक बंधु कब अपने गृहनगर को जा सकते हैं तथा अपने माँ-पिताजी से मिल सकते हैं?