Maar Kha Roi Nahi Nahi - (Part Thirteen) in Hindi Fiction Stories by Ranjana Jaiswal books and stories PDF | मार खा रोई नहीं - (भाग तेरह)

Featured Books
  • My Wife is Student ? - 25

    वो दोनो जैसे ही अंडर जाते हैं.. वैसे ही हैरान हो जाते है ......

  • एग्जाम ड्यूटी - 3

    दूसरे दिन की परीक्षा: जिम्मेदारी और लापरवाही का द्वंद्वपरीक्...

  • आई कैन सी यू - 52

    अब तक कहानी में हम ने देखा के लूसी को बड़ी मुश्किल से बचाया...

  • All We Imagine As Light - Film Review

                           फिल्म रिव्यु  All We Imagine As Light...

  • दर्द दिलों के - 12

    तो हमने अभी तक देखा धनंजय और शेर सिंह अपने रुतबे को बचाने के...

Categories
Share

मार खा रोई नहीं - (भाग तेरह)

स्कूल में छोटी -छोटी ऐसी कई बातें होती थीं ,जिनके निहितार्थ बड़े थे ।अक्सर आर्थिक लाभ मिलने वाला कार्य मुझसे नहीं कराया जाता था।जैसे बोर्ड परीक्षाओं में मेरी ड्यूटी नहीं लगाई जाती थी और बोर्ड की उत्तर पुस्तिकाएं जांचने के लिए मुझे नहीं भेजा जाता था।इसके अलावा स्कूल के किसी भी कार्यक्रम का संचालक मुझे नहीं बनाया जाता था पर पढ़ाने के अलावा अन्य बेगार खूब लिया जाता था।मैं सब कुछ देखती- समझती थी पर चुप ही रहती थी।कुछ कहने का कोई मतलब नहीं था।हिंदी टीचर्स चयन बोर्ड में मेरा नाम था ।उसके लिए स्कूल टाइम के बाद घण्टों रूकना पड़ता था और मेहनताने में सिर्फ साधारण खाना खिला दिया जाता था।बोर्ड परीक्षाओं में कई बार मेरे बच्चों ने हिंदी में 100/100 लाकर रिकार्ड बनाया ,पर एक बार भी इसका जिक्र नहीं किया गया।जबकि अंग्रेजी के टीचर्स को 80/100 पर भी बधाई दी जाती थी ,क्योंकि अंग्रेजी उनके अपने क्षेत्र के लोग पढ़ाते थे। मेरे स्कूल में आने से पूर्व हिंदी का स्तर काफी गिरा हुआ था।अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में वैसे ही हिंदी उपेक्षित रहती है।तब बोर्ड में बच्चों को 80/100 से ज्यादा मुश्किल से ही मिलता था।
स्कूल में ऐसी बहुत -सी अन्यायपूर्ण बातें होती रहती थी और मैं 'मूंदहूँ आँख कतहूँ कछू नाहिं' सोचकर खुश रहती थी।
पर हद तो तब हुई जब जुमा- जुमा दो साल पहले नियुक्त हुए हिंदी के टीचर को हिंदी का हेड बना दिया गया।उसका चयन मैंने ही किया था और जो अभी हिंदी विषय में कच्चा था ।जो हर बात में मेरी नकल करता था।व्याकरण ज्ञान तो उसका बहुत ही कम था ।मेरे क्लास के बच्चों से मेरे द्वारा मेहनत से लिखाए नोट्स लेकर वह अपने बच्चों को लिखवा देता था।हेड बनने के बाद भी वह मेरी मदद से ही कठिन काम करता था।पर उसमें एक अच्छी बात ये थी कि वह काम निकालने में उस्ताद था।जब भी जरूरत होती मुझसे जानकारी ले लेता और सबके सामने उसे अपनी बनाकर प्रस्तुत कर देता।वह मुझसे कहता कि आप अभी स्कूल से मत जाइयेगा, अभी बहुत कुछ सीखना है आपसे।अभी आपकी यहाँ बहुत जरूरत है।पर मन से यही चाहता था कि मैं चली जाऊँ ताकि वह मेरी जगह ले सके।उसे अभी तक हाईस्कूल तक के ही क्लास मिले थे,इण्टरमीडिएट के क्लास अभी मेरे अलावा एक अन्य टीचर के ही पास थे।अन्य हिंदी टीचरों से उसे कोई खतरा नहीं था ,पर मेरी प्रतिभा से डरता था।जबकि डरने की कोई बात नहीं थी क्योंकि वह प्रधानाचार्य के क्षेत्र के टीचरों से मित्रता गांठकर उनका भी प्रिय बन चुका था।धीरे -धीरे उसे मेरी बोर्ड की कक्षाएं भी दी जा रही थीं ।वह बोर्ड में उत्तर- पुस्तिकाएं जांचने के लिए भी जाने लगा।मैं चुप रही क्योंकि स्कूल के नियमानुसार मेरा रिटायरमेंट करीब था । माँ- बाबूजी की असावधानी के कारण मेरी जन्मतिथि कई वर्ष ज्यादा मेंशन थी ।स्कूल बाकी चीजों में सरकारी स्कूलों की नियमावली दिखाता ,पर सेलरी और अन्य सुविधाएं देते समय नहीं ।रिटायरमेंट भी जल्दी कर देता था।50 के बाद शिक्षक की कार्य- क्षमता कम हो जाती है,इसलिए उसे रिटायर कर देना चाहिए ।स्कूल की यही मानसिकता थी जबकि रिटायरमेंट के बाद पेंशन की व्यवस्था भी नहीं थी और ग्रेच्यूटी नाममात्र ही दी जाती थी।होता यही रहा था कि 50 पार होते ही टीचर स्वयं भाग खड़े होते थे क्योंकि कोई न कोई बीमारी उन्हें घेर लेती थी। स्कूल से उन्हें कोई स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिलती थीं ।और कार्य की मात्रा कम करने के बजाय बढ़ा दी जाती थी। मैं इन सारी बाधाओं को पारकर कागजी रिटायरमेंट तक पहुंच रही थी।पूर्ण स्वस्थ,नियमित ,कार्यकुशल और एनर्जिक थी।अपने-आप से स्कूल छोड़ने वालों में तो कतई नहीं थी।शायद इसीलिए भेद- भाव का शिकार हो रही थी ।
स्कूल में सभी हिंदी टीचर के रूप में मेरा ही नाम लेते ,यह हेड को अच्छा नहीं लगता था।इसलिए कई बार हेड होने का धौंस देकर मुझ पर हावी होने की कोशिश करता।अपने हिसाब से बच्चों को पढ़ाने और उत्तर पुस्तिकाएं जाँच करने को कहता।उस समय मैं उसके मुँह को देखती रह जाती कि इसी को कहते हैं 'मेरी बिल्ली मुझी को माऊ'।बच्चों को पढ़ाने का हमेशा से मेरा एक अलग तरीका रहा ।निबन्ध के लिए नए -नए विषयों पर कक्षा में चर्चा करवाती ताकि बच्चों के अपने विचार बन सकें और वे रट्टा मारकर नहीं खुद लिखना सीखें।मैं उन्हें हँसते- खिलाते ,मनोरंजक ढंग से पढ़ाती रही ।पाठ से सम्बंधित तमाम कहानियां सुनाती ।साहित्य से उनका रिश्ता जोड़ने की कोशिश करती ,जो कि आज के इंटरनेट- समय में कठिन होता जा रहा है।बच्चे मेरी कक्षा का इंतज़ार करते।जिनकी कक्षाओं में मैं नहीं पढ़ाती ,वे बच्चे भी मुझसे पढ़ाने का रिक्वेस्ट करते।मैं हमेशा से बच्चों की फेवरेट टीचर रही हूँ।जो बच्चे स्कूली शिक्षा पूरी करके चले भी गए ,वे भी सोशल मीडिया पर मुझसे जुड़े हुए हैं और मुझे सम्मान देते हैं ।बच्चों के मामले में मैं हमेशा से लकी रही हूँ।जो बच्चे थोड़े शरारती थे वो भी मुझे आदर देते थे। कई बार तो ऐसा हुआ कि उनकी शरारत पर मैंने उन्हें सज़ा दी ।बाद में उन्हें समझाया कि वे ऐसा क्यों करते हैं कि सजा दूं तो वे हँसते हुए बोले --'सज़ा देती हैं तो क्या हुआ प्यार भी तो बहुत करती हैं ।' एकाध केस छोड़ दूँ तो न तो कभी बच्चों की शिकायत मैंने प्रधानाचार्य से की ,न वे मेरी शिकायत लेकर उनके पास गए।बहुत सामंजस्य रहा बच्चों और मेरे बीच और शिक्षिका रूप में यही मेरी उपलब्धि रही ।ही मेरी थाती है।