radharaman vaidya-kahani vidha aur alochak ke nots 16 in Hindi Book Reviews by राजनारायण बोहरे books and stories PDF | राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 16

Featured Books
Categories
Share

राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 16

आज की कहानी और आलोचक के नोट्स

राधारमण वैद्य

’’एक शानदार अतीत कुत्ते की मौत मर रहा है, उसी में से फूटता हुआ एक विलक्षण वर्तमान रू-ब-रू खड़ा है--अनाम, अरक्षित, आदिम अवस्था में खड़ा यह मनुष्य अपनी भाषा चाहता है, अपनी मानसिक और भौतिक दुनिया चाहता है ........’’

यह नयी कहानी की भूमिका है। इस कहानी को केवल जीवन के संदर्भो से ही समझा जा सकता है, युग के सम्पूर्ण बोध के साथ ही पाया जा सकता है। वह पहले और मूल रूप में है भी जीवनानुभव, सही रूप में अनुभूति की प्रामाणिकता। तो क्या इन पंक्तियों के द्वारा यह कहा जा रहा है कि अतीत जो कुत्ते की मौत मर रहा है, वह अनुभूति की प्रमाणिकता से शून्य था या जीवनानुभव उसमें था ही नहीं ? ऐसा नहीं है। अनुभव के बिना कहानी कहने या लिखने की बात ही नहीं चलती। पर उस काल में एक आग्रह था, एक विशेष संस्कार से प्रभावित बात को ही उजागर करने का, केवल उसे कहने का, जो उसका भोग हुआ नहीं था, बल्कि सोचा हुआ था। एक ’टाइप’ था या उनके संस्कार की पैदायश-मात्र हुआ करता था।

कहानियाँ गाँव, कस्बा और शहर के आधार पर विभाजित थी, या आदर्श भ्रष्ट या गिरे हुए के कठघरों में खड़ी थी। हमारे पुराने लेखकों को ’शाश्वत की खोज’का चाव खाए ले रहा था। वे वह कहना चाहते थे जो सदैव रहा है, और आगे भी यथा-स्थिति बना रहेगा। संसार की गत्यात्मकता उनके लिए बेमानी थी। वे धर्म, दर्शन, तंत्र या मतवाद के मातहत थे, धोखाधड़ी, बलात्कार, दीदीवादी, भाभीवादी विकृत परम्परा का मानसिक अत्याचार लेखक को सहना ही था, वह पाप, पुण्य, सुख-दुख, सौतेली माँ, सौत, कुलटा, शराबी, चरित्रहीन आदि मान्यताओं के इर्द-गिर्द चक्कर लगाता रहता था। हर एक का अपना-अपना भाग्य’ उनके साथ था। वह ’रोज’ की कहानी कहते हुए भी उसको चहार दीवारी से बाहर नहीं निकाल पा रहा था, कहानी कभी उद्बोधन का माध्यम थी, कभी संदेश देने की कला में माहिर। वह एक और इकहरे संदेश पर टूटती थी यानि कहानी उद्देश्यपरक थी। रास्ता साहित्य से जीवन की ओर था।

आज युग ने दृष्टि बदली है, वैज्ञानिक पकड़ पैदा हुई है। आज का साहित्यकार, साहित्यकार का ’’दर्शन’’ नहीं अपनाता। वह सीधा जीवन से साहित्य की ओर चलता है, नयी दृष्टि से सम्पन्न नयी कलात्मक अभिव्यक्ति के धरातल पर एक नयी लीक डाल रहा है। इसीलिए नयी कहानी ने जीवन की सारी संगतियों-विसंगतियों, जटिलताओं और दवाओं को महसूस किया यानी नयी कहानी पहले जीवनानुभव है, उसके बाद कहानी है। अनुभूति की प्रमाणिकता को ही रचना प्रक्रिया का मूल अंश माना है।

नयी कहानी में प्रस्तुत लोग अपने ’परिवेश में’ जी रहे हैं। यह परिवेश बदला हुआ है, इसलिए लोग भी बदले नजर आते हैं। स्वातं़़त्र्योत्तर कहानी में ’होरी’ की पीढ़ी धुंधली पड़ने लगी और गोबर जैसे लोग जिन्दगी को वहन करने लगे, अब तो ’गोबर’ जैसे की संतान घर-गृहस्थी सम्हाले हुए है, जीवन जी रही है। अमरकान्त की जिन्दगी और जोंक का रजुआ यद्यपि स्वयं उत्पादक इकाई नहीं है, पर वह दूसरों का गवाह भी नहीं है। वह अपनी दारूण परिस्थितियों का गवाह स्वयं है। जो अस्तित्व के संकट को झेल रहा है जिन्दगी को पूरे जोर से पकड़े हुए हैं और मौत का छल रहा है, रजुआ अपने संदर्भ से कटा हुआ व्यक्ति नहीं है- वह अपनी जिजीविषा के कारण ही सारे संदर्भे से जुड़ा हुआ है। उषा प्रियवंदा की ’मछलियाँ की विजय लक्ष्मी, निर्मल वर्मा की ’परिन्दे’ की लतिका धर्मवीर भारती की ’गुलकी की बन्नो’’ की बन्नाो, कृष्ण बलदेव वैद की ’मेरा दुश्मन’’ में माला का पति, मन्नू भंडारी की ’यही सच है’ की दीया, भीष्म साहनी की ’चीफ की दावत’ के शामनाथ, फणीश्वरनाथ रेणु की ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’ का हीरामन, मोहन राकेश की ‘एक और जिन्दगी’ का प्रकाश, रामकुमार की ‘सेलर’ के मास्टरजी, शिवप्रसाद सिंह की ‘नन्हों ’ की नन्ही सहुआइन, शेखर जोशी की ’बदबू’ का कामगर, राजेन्द्र यादव की ’’टूटना’’ का किशोर, शरद जोशी की ’तिलिस्म’ का क्लर्क पति, हरिशंकर परसाई की ’’भोलाराम का जीव’’ का भोलाराम आदि सैकड़ों पात्र स्वयं अपने परिवेश में जी उठे। इन सभी ओर दूसरे पात्रों ने स्वयं अपना और अपने समय का साक्ष्य दिया है।

कहानी अनुभव के प्रति ईमानदार हो गई, जिस अनुभव से लेखक स्वयं गुजरता था, उसी से पाठक गुजरने लगा। कहानी को संक्षेप में बताया जा सकना असम्भव हो गया, क्योंकि भोगे हुए क्षणों का, उसके समूचे प्रभाव का, क्या संक्षिप्तीकरण भी किया जा सकता है ? किसी भयावह संकट, अस्तित्व, सम्बन्धों के विघटन, विघटन, विसंगति, संश्लिष्ट जीवन, मोह-भंग आदि तमाम युगीन स्थितियों के यथार्थ अनुभव से लेखक गुजरने लगा और उसी सम्पूर्ण भोगेे हुए को अपनी कहानी के माध्यम से हम सब तक पहुँचाने लगा।

पिछले दस-पन्द्रह वर्षो में चाय-घरों, काफी-हाउसेज, गोष्ठियों, सभाओं, समारोहों तथा कहानी-पत्रिकाओं के माध्यम से बराबर उपरिलिखित और हजार तरह की बातें गूंजती रही हैं, इन सब में ऐतिहासिक दायितव पूरा करने का प्रयत्न किया गया है, कभी सफल, कभी असफल और सफल-असफल दोनों। नया कौन व पुराना कौन- इस पर भी खूब चर्चा हुई। पर इसे समझे रहना चाहिए कि नये-नये विचारों का वहन करने वाले सिर्फ नयी उम्र के लोग ही नहीं है। उसमें अधिक वय के लोग भी हैं और उनका विरोध करने वाले भी सिर्फ पिछली पीढ़ी के लोग नहीं है, नयी पीढ़ी के लोग भी हैं। ’पूस की रात (प्रेमचन्द) और ’गुलकी बन्नो’ (धर्मवीर भारती)़ दोनों में उपेक्षित को कहानी का आधार बनाया गया है। ’’पूस की रात’’ जहाँ सृजन के स्तर पर चलती है। वहाँ ’’गुलकी बन्नो’’ एक और जिन्दगी’’ (मोहन राकेश) की तरह लँगड़ाती है।

यह तो सभी जानते हैं कि घटनाऐं नयी नहीं होती, मानवीय सम्बन्ध भी बहुत नये नहीं होते, भावावेश और आन्तरिक उद्वेग भी अछूते नहीं होते, पर इन सबकी एक नयी दृष्टि से अन्विति ही नया प्रभाव छोड़ती है, और यही नई कहानी द्वारा होना शुरू हुआ है। पर इसका अर्थ यह न समझा जाय कि जो कुछ इस काल में लिखा गया था या लिखा जा रहा है, वह सब नयी दृष्टि से अन्विति ही प्रस्तुत कर रहा है। इसमें भी कुछ फैशनवादी कहानियाँ लिखी गई है, जिनमें लेखक ’’पौज’’ करता है, भोगता नहीं, पाखंड करता है, जानता नहीं। पश्चिम का अजनबीपन भी कुछ लेखकों ने ओढा है, उसको कहने की चेष्टा की है, जो उनका नहीं है, एकदम पराया है, अभी आया नहीं है, अनूदित भर किया गया है, पर यह केवल पाठकों को चौंकता भर है, उसे भाता नहीं, वह उसमें रमता भी नहीं, आश्चर्य से चकित होता है अथवा उसे उपेक्षा से देख आगे के पन्नों में खो जाता है, उषा प्रियवंदा के ’पचपन खंभे लाल दीवारें’’ में सारी ऊष्मता, लगाव और प्रेम जनित उत्साह के बाबजूद एक महा शून्य व्याप्त है, जिसमें प्रेमिका अध्यापिका के लिए जैसे सब कुछ निर्थक हो उठा है- इतना अधिक निरर्थक कि वह ठोस निवेदन को भी सार्थक नहीं मान पाती, निर्मल की कहानी ’लवर्ज’ में अतिपरिचय की अनुभूति एकाएक ही अपरिचय की उदासीन परिणति बन जाती है।

कहानी ने अपना स्वर केवल कथ्य में ही नहीं बदला है, बल्कि वह अपने ’’फार्म में भी बहुत कुछ बदली है। अब उसके लिए वे पुराने फ्रेम बेकार हो गये। अब वह नये ढब से सामने आती है। कहानी-कला के छः अंग अपनी सार्थकता छोड़ चुके हैं। कहानी समूचे रूप में एक प्रभाव है, भोगे हुए क्षणों की एक प्रभावपूर्ण अन्विति है। उसके पात्र अपनी ही नहीं, अपेन बहाने अपने वक्त की कहानी कहते हैं और खूब कहते हैं। नये रूप में कहते हैं। नयी कहानी की सांकेतिकता घनीभूत स्थिति से स्वयं उद्भूत है। नयी कहानी में इकहरे या अजीबोगरीब पात्रों, स्थितियों का त्याग कर अपने यथार्थ और अपने जीवन से सम्बन्ध स्थापित किया जा रहा है। वैसे तो हमारे पुराने लेखकों ने ’’शाश्वत की खोज में’’ अपने समय और उसकी आंतरिक माँग के प्रति अपने को जीवित रखा, पर अब नयी दृष्टि से नयी कलात्मक अभिव्यक्ति के धरातल पर एक नयी लीक डाली जा रही है, जो अच्छी है और शुभ है।

-0-