उपन्यास भाग—७
दैहिक चाहत –७
आर. एन. सुनगरया,
मानवीय रिश्तों का वर्गीकरण यथास्थिति अनुसार होता है। उनका नामकरण परम्परागत आवश्यकता के आधार पर होता है, जैसे खून का रिश्ता, इन्सानियत का रिश्ता इत्यादि। रिश्तों के अनेक नाम प्रचलित हैं। कब किससे, कौन सा रिश्ता स्थापित हो जायेगा। मनुष्य को मालूम ही नहीं होता, कि कब किससे क्या रिश्ता जुड़ गया। सम्पूर्ण प्रक्रिया अन्जाने में ही क्रियाशील रहती है। काफी लम्बे कालखण्ड पश्चात् ज्ञात होता है कि किससे क्या रिश्ता बन गया। हमें तो सिर्फ निवाहते जाना है।
शीला महसूस कर रही है कि देव से भी मुँहबोला रिश्ता कायम हो गया है, जो बहुत ही सम्वेदनशील आत्मिय एवं दिल-दिमाग पर छा रहा है। फिलहाल शैशवावस्था में ही प्रतीत होता है। पूरे परिवेश में कोमल भावनाओं एवं मनोकामनाओं के अदृश्य बन्धन अथवा गिरफ्त में कसते जा रहे हैं। हृदय में लालित्य उमड़ रहा है, स्वीकृति में!
शीला का मन कुछ खिन्न हो रहा था। हाल में आकर सोफे पर बैठ गई, पत्र-पत्रिकाऍं उलट-पुलट करने लगी, मगर मन नहीं लग रहा था। तभी बाथरूम से, कोई धुन गुनगुनाता देव गाऊन में लिपटा फुरतीले कदमों से अपने बेडरूम की तरफ लपकता हुआ गुजर रहा था। क्षण भर रूक कर शीला की ओर शर्मीले अन्दाज में देखते हुये बोला, ‘’आता हूँ, जस्ट-ए-मिनिट।‘’ फर्राटे से अन्दर घुस गया।
शीला बगैर कुछ बोले, उसे तिरछी नज़रों से देखती रही, गठीली कद-काठी का औसत स्वस्थ्य शरीर, ऊँचा-पूरा, भरा-पूरा, हेल्दी–बाडी, युवक जैसा एक्टिव आभास कराता, ऑंखों से ओझल हो गया।
ना जाने क्यों शीला को लग रहा था कि वह, उसकी प्रतीक्षा कर रही है। एक पल के लिए तो नज़रें चार होते ही, ललायित हो उठी थी........शायद।
शीला अचम्भित अन्दाज में देव को देख रही है। कुछ ही मिनटों में अपना स्लिपिंग शूट पहन कर लम्बे-लम्बे डग बढ़ाता भरपूर ऊर्जावान युवक की तरह, डायनिंग टेबल के पास आ खड़ा हुआ, ‘’आओ डिनर शुरू करते हैं।‘’ इधर-उधर खोजी निगाहों को तरेर कर, ‘’बल्लू-फुल्लो.......लगाओ खाना।‘’
शीला सारे एक्शन बड़ी गौर से देखते हुये चेयर पर बैठ गई। देव भी बैठते हुये बोला ‘’ज्यादा इन्तजार तो नहीं करवाया।‘’
‘’नो नो।‘’ शीला ने सामान्य मुद्रा में कहा, ‘’बिलकुल नहीं।‘’
देव ने पलभर महसूस किया, शीला की मनोदशा किसी गम्भीर मंथन-मनन के दौर से गुजर रही है। मन-मस्तिष्क में कुछ उतार चढ़ाव जरूर चल रहा है। लगता है, आत्मचिन्तन के भंवरजाल में अपने-आप से गुत्थम-गुत्था कर रही है। चेहरे पर चिन्ता–चिन्तन की छाया मंडरा रही है। मन निरान्तर उत्प्रेरित कर रहा है,……. क्यों ना पूछा जाये, कोई उलझन, कोई समस्या, कोई अनिर्णय की स्थिति......मगर साहस नहीं कर पाया देव.........।
भोजन के तत्काल बाद शीला, बगैर वाय-हाय, औपचारिकता के गुमसुम गेस्टरूम में चली गई।
देव की जिज्ञासा और तीव्र हो गई, रहा नहीं गया, तो वह शीला के रूम की ओर बढ़ने लगा। द्वार के समीप जा कर संकोच ने उसे दबोच लिया, वहीं के वहीं जड़वत्त हो गया। मगर अपनी निगाहों को नियंत्रित नहीं कर पाया, अन्दर अनवरत देखता रह गया।
............शीला अपनी अध्ययन चेयर पर बैठी, बेक पर सर का पिछला हिस्सा टिकाये, ऑंखें मीचे विचारमग्न मुद्रा अथवा अर्धनिद्रा में मूर्तीवत्त निढ़ाल नजर आ रही है। गम्भीर एवं गमज़दा पोस्चर में भी बला का आकर्षण है। दूधिया रोशनी में लिपटी, शिल्पी की संगमरमरी, सुहानी, लावण्यमयी आभा, लम्बी–लम्बी स्वांसों की आवक-जावक सजीवता को प्रमाणित कर रही है।
देव ने लगभग चीखते हुये पुकारा, ‘’शीला।‘’ स्वर में मिठास है।
शीला चौंक कर चेतन्य हुई, अपने आपको सम्हाल ही रही थी कि देव पुन: बोल पड़ा, ‘’तुम्हारे लिये भी दूध बोल दूँ ?’’
‘’जी वो......।‘’ शीला के शब्द पूरे भी नहीं हुये थे कि देव ने आर्डर दे दिया, ‘’दो ग्लास ले आओ।‘’ देव निकट आ गया ‘’बैठो।‘’ शीला ने औपचारिकता निभाई।
‘’कोई खास उलझन ?’’ देव तिरछी नज़रों से, देखते हुये, चेयर पर बैठ गया।
फुल्लो दो ग्लास दूध रखकर चली गई। शीला को लगा, देव मेरी मनोस्थिति भांप गया है, वस्तुस्थिति जाने बगैर चैन नहीं होगा, बोली, ‘’कभी-कभी कुछ अनजाने वाकिये, दिल-दिमाग उलझा देते हैं।‘’
‘’मुनासिव समझो तो, शेयर कर सकती हो।‘’ देव ने सामान्य सलाह दी, ‘’शॉंति-शुकून, राहत मिलेगी!’’
शीला को लगा, देव ठीक ही सलाह दे रहा है, वैसे भी छुपाने लायक कुछ है भी नहीं, आत्मिय एवं हितैसी होने के नाते देव को अतीत जानने की जिज्ञासा है। रहस्यमय स्थिति क्यों निर्मित करूँ!
‘’बताती हॅूं, सब बताती हूँ।‘’ शीला ने हल्के-फुल्के अंदाज में कहा, ‘’दूध पी लेते हैं।‘’ देव की ओर देखकर बोली, ‘’बैठो इत्मिनान से.........।‘’
दोनों ने एकाग्रता पूर्वक दूध पी लिया। खाली ग्लास रखते हुये शीला ने बताना प्रारम्भ किया, परत-दर-परत।
‘’तनया-तनूजा के पिताजी अभिमन्यु सदैव बेटियों को बेटों की भॉंति लालन-पालन-पोषण करने का संकल्प दौहराता रहता था। दोनों बेटियों से बेहद प्यार-स्नेह, लाड़-दुलार करता था। बेटियों की हर डिमांड, जिद्द, आवश्यकताओं को पूरा करने में उसे अत्यन्त सुख, संतोष, प्रफुल्लता से अभिमन्यु खिल उठता था, जैसे जमाने भर की खुशियॉं उसी के दामन में वरश पड़ी हों; हंसता-खेलता, खुशमिजाजी से, मैं कैसे अछूती रहती, बहुत प्रसन्न हो जाती थी उन्हें, खिलखिलाते, उधम-मश्ति करते देखकर! मैं भी फुल-इन्ज्वाय करती थी। इन सब क्रियाकलापों का स्थाई प्रभाव यह हुआ कि बेटियॉं स्वछन्द, स्वतंत्र और फ्रीहेन्ड हो गईं। यही प्रवृत्ति आज भी उनमें आवश्यक भाव के रूप में विद्यमान है। समय हमेशा एक समान तो रहता नहीं। कब कैसी परिस्थति समस्याओं के साथ आ खड़ी होगी कौन जानता है। भय लगता है। कैसे टेकल करूँगी, सुविधाजनक, अनुकूल निराकरण कर भी पाऊँगी अथवा नहीं, यही सब सोचकर ग़मगीन एवं फिर्कमन्द हो जाती हॅूं। विचलित हो जाती हॅूं। घबराहट होने लगती है।‘’
शीला एकाएक खामोश हो गई। बिलकुल निर्विकार.......असहाय....।
देव ने गम्भीरता पूर्वक सोच-विचार किया मन-ही-मन सामान्य तौर पर, स्वाभाविक रूप में, जीवन प्रवाह में उत्तरोत्तर ऐसे मुकाम आ सकते हैं! जिनका सर्वसुविधाजनक निवटारा करना होता है, पूर्ण सम्वेदना पूर्वक, सुखांत।
देव ने शीला को नज़र भर निहारा, दिल-दिमाग में कुछ ही क्षणों में अनेक सौन्दर्य, सुन्दर, सुहाने सीन एक-एक कर उभरने लगे, किसे देखूँ, कौन सा दृष्टिगत कर लूँ, किसे आँखों में बसा लूँ, वाकयी खूबसूरती-सुन्दरता प्रत्येक दृष्टिकोण में लुभाती है। हर पोश्च्चर में हृदयस्पर्शीय होता है। विचारशील मुद्रा में भी शीला समग्रता पूर्वक आत्मॉंगन में समाहित होने की अपील कर रही है। निर्मल आसक्ति समान।
खामोशी में खिली चटक रंगों में कलियॉं जैसे खुला आमन्त्रण दे रही हों, बाहों में सिमट जाने को उदित हो रही हों.......बेवश कर रही हैं, ये नाजुक-नाजुक भावनाओं की उठती लहरें अपनी अटखेलियों में तरंगित हो कर।
‘’निराधार है तुम्हारा शंका-कुशंका करना।‘’ देव ने शीला का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया, ‘’जैसा तुमने बताया, दोनों बेटियॉं बहुत ही समझदार व होशियार हैं। ऐसा कोई अवसर आने पर तुम्हें जरूर विश्वास में लेंगी।‘’
‘’सो तो ठीक है।‘’ शीला ने देव के सामने रू-ब-रू होकर तथा ऑंखों में ऑंखें डालकर कहा, ‘’तुम जानते नहीं देव, दोनों जवानी की दहलीज पर कदम रख रही हैं।‘’
ऑंखें चार होते ही देव, कुछ असहज हो गया। बातों का छोर छूटता सा लगा। सम्हलकर बोला, ‘’पढ़ी-लिखी हैं। अच्छी तरह जानती हैं। अपना भला-बुरा। अपने भविष्य को सुरक्षित रखना खूब आता है, आज की पीढ़ी को।‘’
‘’असल में, छुटपन से ही वे बाहर रहीं, कभी रेसिडेन्सिल हॉस्टल में, कभी गर्ल्स हॉस्टल में, लेकिन अभी वे दोनों कॉ-हॉस्टल में रह रही हैं। उच्च शिक्षण है, पूर्ण विकसित हो जाते हैं बच्चे इस उम्र में आते-आते हर दृष्टि से, शारीरिक, मानसिक एवं शैक्षिक। समग्र निर्णय लेने के लिये सक्षम तथा स्वतंत्र। परिपक्वता का अभाव रहता है, कुछ भी उन्हें कन्वीन्स करना लोहे के चने चबाने के समान होता है।‘’
‘’इतना भी नाउम्मीद नहीं होना चाहिए।‘’ देव ने हिम्मत-हौंसला बंधाने की कोशिश की।‘’
‘’अपने-आप से भी ज्यादा....।’’ शीला ने कहा, ‘’पूर्ण विश्वास है उन पर।‘’
‘’फिर चिन्ता किस बात की।‘’ देव ने बिलकुल हल्के अंदाज में कहा।
‘’अब लगता है, देव तुम अपने वास्तविक व्यक्तित्व-स्वरूप अपनी सारी कावलियतों को पुन: प्राप्त कर चुके हो।‘’ मन्द मुस्कान बिखेरते हुये शीला ने रोमान्टिक अन्दाज में कहा, ‘’तुम्हारी यथास्थिति लौट आई हो। जिसे तुम भुला बैठे थे। रिएक्टीवेट, रिचार्ज, तुम्हारी मेमौरी रिकॉल हो चुकी हो........।‘’
‘’ये सब तुम्हारी शौहवत का असर है।‘’ देव ने खुशमिजाज लहजे में कहा, ‘’अन्यथा मैं तो अपने-आप को समाप्त प्राया: समझ बैठा था।‘’
शीला चुपचाप उसे कन्खियों से देखती रही। देव ही आगे बोला, ‘’मुझे अत्यन्त प्रसन्नता है कि तुम बेटियों की चिन्ता, शंका, कुशंका से मुक्त नजर आ रही हो। पूर्णत:।‘’
दोनों एक-दूसरे के एकदम करीब सटकर हँसने लगे। सॉंसों में सॉंसें घुलने लगीं............।
न्न्न्न्न्न्न्
क्रमश:---८
संक्षिप्त परिचय
1-नाम:- रामनारयण सुनगरया
2- जन्म:– 01/ 08/ 1956.
3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्नातक
4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से
साहित्यालंकार की उपाधि।
2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्बाला छावनी से
5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्यादि समय- समय
पर प्रकाशित एवं चर्चित।
2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल
सम्पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्तर पर सराहना मिली
6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्न विषयक कृति ।
7- सम्प्रति--- स्वनिवृत्त्िा के पश्चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं स्वतंत्र
लेखन।
8- सम्पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)
मो./ व्हाट्सएप्प नं.- 91318-94197
न्न्न्न्न्न्