काव्य संकलन ‘‘बेटी’’ 3
(भ्रूण का आत्म कथन)
वेदराम प्रजापति
‘‘मनमस्त’’
समर्पणः-
माँ की जीवन-धरती के साथ आज के दुराघर्ष मानव चिंतन की भीषण भयाबहिता के बीच- बेटी बचा- बेटी पढ़ा के समर्थक, शशक्त एवं साहसिक कर कमलों में काव्य संकलन ‘‘बेटी’’-सादर समर्पित।
वेदराम प्रजापति
‘‘मनमस्त’’
काव्य संकलन- ‘‘बेटी’’
‘‘दो शब्दों की अपनी राहें’’
मां के आँचल की छाँव में पलता, बढ़ता एक अनजाना बचपन(भ्रूण), जो कल का पौधा बनने की अपनी अनूठी लालसा लिए, एक नवीन काव्य संकलन-‘‘बेटी’’ के रूप में, अपनीं कुछ नव आशाओं की पर्तें खोलने, आप के चिंतन आंगन में आने को मचल रहा है। आशा है-आप उसे अवश्य ही दुलार, प्यार की लोरियाँ सुनाकर, नव-जीवन बहारैं दोगे। इन्ही मंगल कामनाओं के साथ-सादर-वंदन।
वेदराम प्रजापति
‘‘मनमस्त’’
बेटे लालची होते, कई संबंध तोड़े हैं।
मगनी, द्वार पर आकर, बेटी हाथ जोड़े है।
दहेजी माँग ने अब तक, लजायीं बेटिय़ाँ कितनी-
बेटे फिर भले कैसे? जिनने कदम मोड़े है।।57।।
देखत कर्म बेटों के, कितने बाप रोते है।
शराबी है, कबाड़ी हैं, जुआड़ी बीज बोते है।
कितने अवगुणों से हैं भरे, जो आज के बेटे-
सौ में एक है कोई, यहाँ जो चैन सोते है।।58।।
आज, बेटों से दुखी हो, बाप भी रोता।
रोज ही झिड़की सुनै, नहिं रात है सोता।
हो गया दूजा वही, जा गोद दूजी में-
वे-फिकर हो, चैन से, दिन-रात है सोता।।59।।
अधिकतर बेटे जियें, परिवार के संग।
माँ-बाप की लेते खबर नहिं, करते है तंग।
बेटिय़ाँ-बेटा बनें, उस हाल में -
उन्हीं के पालन से, तब जीते हैं जंग।।60।।
झेलते माँ-बाप कितना? क्या जहर?
तभी तो चल पड़ा, वृद्धाश्रमी सफर।
कुछ गए उस ओर, कुछ चिंतत हुए-
शांत जीवन के लिए, पी गए जहर।।61।।
जबसे भयीं ससुराल की, ये बेटिय़ाँ।
तबसे तरसते माँ-बाप रहे, दो रोटिय़ाँ।
कोइ न हैं, ताकते ऐसे रहे-
फिर कहो बेटे बड़े या बेटिय़ाँ।।62।।
दहेजी मेंटने पृथा, खड़ी है आज तो बेटी।
पिता की शान-शौकत पर, अड़ी है आज तो बेटी।
न समझो, बेटि को हेटी, विकासों की कहानी वह-
पुराने ढोंग तोड़न को,लड़ी है आज तो बेटी।।63।।
चाहत नहीं दौलत की, केवल प्यार का भूँखी
हॅंसकर साथ जीती है, खाकर रोटिय़ाँ सूखी।
रखी है मान मर्यादा, बेटी वह कहानी है-
उसी की ही बदौलत से, इज्जत आज है भू की।।64।।
जमाना एक था तेरा, जिसे प्राचीन कहते हैं।
मानव वस्य थे तेरे, यही सब शास्त्र कहते है।।
बंधन था नहीं कोई, जीवन मुक्त हो जीतीं-
तेरे नाम से पुजते,सुयश के स्त्रोत बहते है।।65।।
नहीं था भेद उर कोई, समता का जमाना था।
शिक्षा एक-सीं सबकी, सबको ही पढ़ाना था।
आदि थी कई विदुशी, विग्य मानव सभी होते-
नहीं, कहीं भार थी बेटी, सभी का एक ही बाना था।।66।।
सभी अधिकार के भागी, सभी सम प्यार पाते थे।
सभी की एक ही धुन थी, सभी सम राग गाते थे।
नहीं था दान-दौलत का, वहाँ परपंच कोई भी-
सभी कर्तव्य पथ चलते, हर कहीं आते जाते थे।।67।।
नहीं थे बर्ग कोई भी, नहीं कोई जातिय़ाँ होतीं।
द्वेश का नहीं जमाना था, सभी थे प्यार के मोती।
बदली सभ्यता तो, बन गया भूपाल नर सबका-
छीना स्वत्व तेरा था, तब तूँ रह गई रोती।।68।।
शासक-शासिता के रूप का, तब हो गया उदगम्।
छिनते सब गए अधिकार, अब तो, रह गए हैं कम।
बट गए बर्ग के सर्गों में मानव, जातिय़ाँ आईं-
धन के भेद ने पैदा किए अब, धनी अरु श्रम।।69।।
इस तरह से भेद के साए का, शासन चल पड़ा।
अब गरीबी अरु अमीरी, रूप ले मानव खड़ा।
हो गईं इच्छा अनन्ती, तब भई धन की कमी-
उच्च वर्गों में प्रथमतः, भार बेटी पर पड़ा।।70।।
शान-षौकत थी अधिक पर, काम करते कुछ नहीं।
किस तरह करते व्यवस्था, भार बेटी तब कहीं।
प्यार बेटों से अधिक था, वंष का रक्षक कहा-
बेटिय़ाँ ले जायेंगी धन, छातिय़ाँ इससे दहीं।।71।।
बेटिय़ाँ होने न देना, इसी पर चिंतन किया।
भ्रूण ही पहले मिटा दो, सोचकर ऐसा किया।
यदि नहीं मिट सके, फिर तो काट दो उसको उदर-
भूल में हो जाए पैदा, दो तम्बाकू का पिया।।72।।
चल पड़ा था चलन यह तो, बेटिय़ाँ मरती गईं।
संतुलन बिगड़ा था इससे, बेटी संख्या घट गईं।
एक बेटी को तभी तो, पुरूष कई थे भोगते-
मचा था कुरुक्षेत्र तब-तब, अवनि मुण्डों पट गई।।73।।
यह सभी धन की कहानी, द्वेश, अत्याचार की।
बढ़ गई, इससे समस्या, खूब ही व्यभिचार की।
बेटियों को मारने की, आम प्रथा हो गई-
इस तरह बेटी को माना, मूर्ति है ‘भार’ की।।74।।
संतुलन बिगड़ा धरा का, बेटिय़ाँ जब घट गईं।
धरा पर कई गाँव देखे, जहाँ बारातें नहीं गईं।
खुली है शासन की आंखे, तब कहीं, यह देखकर-
भ्रूण हत्या मिटाने की, योजनाऐं बन गईं।।75।।
सो गईं क्या? सुन रही हो! पुरातन संबाद को।
ध्यान में रखना हमेशा, इस अनूठे नाँद को।
जागना तुमको पड़ेगा, आज के इस भोर में-
गोद में ले-लो! ओ माता!! इस मेरी आवाज को।।76।।
तुम्हारे सोच में भगवान, अच्छा सोच ले आए।
हमारे धड़कते दिल को, नया जीवन जो दे जाए।
सुख के उदर में पलकर, आंऐं गोद में जब लौं-
तुम्हारे नेह की क्यारी, सरस हो, खूब लहलहाए।।77।।
चली हूँ चाह लेकर के, खुशनुमा होयगा बचपन।
सुनूँगी गीत आंगन के, बधाई की मधुर प्रिय धुन।
मिलन हो भाई से चाहूँ, खेलूँ बहिन की गोदी-
पिता के पेट पर मचलूँ, मीठी बात यूँ सुन-सुन।।78।।
सुनना चाहती मैं तो, ताऊ के प्रेम की बोली।
उन्हीं के द्वार खेलूँगी, मानो उन्हीं की होली।
सभी हॅंसते हुए झेलूँ, भाभी के मधुर ताने-
सुनूँगी सभी कुछ उनकी, बनाकर आपनी टोली।।79।।
चाची करें जब चोटी, बाँधकर नेह के बंधन।
किलपैं हो कल्पना की, मनोहर होय सब गुम्फन।
चेतना फूल हो चिंतन, गूँथेगी जमीं हॅंसकर के-
खुशी से, खुश मुझे करके, करै मेरा मनोरंजन।।80।।