Aadhar - 17 in Hindi Motivational Stories by Krishna Kant Srivastava books and stories PDF | आधार - 17 - मैत्री-भावना, व्यक्तित्व की प्यास है।

Featured Books
Categories
Share

आधार - 17 - मैत्री-भावना, व्यक्तित्व की प्यास है।

मैत्री-भावना,
व्यक्तित्व की प्यास है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जिसको सुखमय जीवन व्यतीत करने के लिए संबंधों की आवश्यकता होती है। दैनिक और पारिवारिक जीवन में एक व्यक्ति को अनेकों संबंध निभाने पड़ते हैं। संबंधों के अभाव में व्यक्ति का जीवन अत्यंत नीरस व तनावग्रस्त हो जाता है।
भारतवर्ष परंपरा संबंधों के मामले में एक समृद्धि देश है। पश्चिम के सीमित अंकल, आंट, ग्रैंड-फादर और कजिन की तुलना में यहां चाचा-चाची, मामा-मामी, बुआ-फूफा, मौसा-मौसी, दादा-दादी, नाना-नानी, और चेचेरे, ममेरे, फुफेरे भाई-बहन, आदि विविध संबंधों की विस्तृत दुनिया है। इनमें कुछ से जुडे पर्व-त्योहार भी हैं। भारतवर्ष में परिवार का दायरा बड़ा और बहुविध नातों, कर्तव्यों से जुड़ा है। मैत्री संबंध भी उसमें आता है, जिसका अत्यंत विशिष्ट स्थान रहा है। यह केवल मनुष्य योनि ही है, जो कि संबंधों को बनाता व निभाता है। समाजिक निर्माण के लिए यह व्यवस्था अत्यंत आवश्यक भी है। इस व्यवस्था के अभाव में मनुष्य का एकजुट रह पाना लगभग असंभव है।
मैत्री-भावना ही वह अमोघ मंत्र है जो इन सभी संबंधों को स्थायित्व प्रदान करता है। अतः जीवन में मित्रवत व्यवहार की महती आवश्यकता है। वैरभाव रखकर व्यक्ति की समाज में उपस्थिति अत्यंत दुरूह हो सकती है। ऐसा करने से मनुष्यों के मध्य उत्तेजना और असंतुलन उत्पन्न हो सकता है। क्योंकि व्यक्ति जिसको अपना शत्रु मानता है, उसे वह अपने दिलो दिमाग पर हावी कर लेता है। सोते-जागते, खाते-पीते, व किसी भी कार्य को करते हुए ऐसा व्यक्ति अपने मानसिक जगत में निरंतर अपने शत्रु को याद करता रहता है। निरंतर शत्रु का भय बने रहने से संबंधित व्यक्ति के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव उत्पन्न होने लगते हैं। शत्रु का भय उत्पन्न होते ही व्यक्ति की भूख मिट जाती है, निद्रा भंग हो जाती है और रक्तचाप बढ़ जाता है। ऐसी परिस्थितियों के लगातार बने रहने से व्यक्ति के जीवन की उमंग और प्रसन्नता सदा के लिए नष्ट हो जाती है। वह जीवित रह कर भी अपनी दुर्भावनाओं के कारण नर्क जैसी यातनाएं भोगने के लिए मजबूर हो जाता है।
यह एक बड़े शोध का विषय है कि आधुनिक जीवन में मनुष्य क्यों आपस में भेद-भाव, छल-कपट, धोखाधड़ी की स्वार्थपूर्ण मनोवृत्तियां समेटे बैठा है। जबकि सर्वविदित है कि इससे मानव जीवन का उद्देश्य पूरा नहीं होता है। सारे विश्व को एक प्रेमसूत्र के बंधन में बांधा जा सकता है। आवश्यकता है कि सभी लोग संसार को एक कुटुम्ब के रूप में देखें और प्रत्येक मनुष्य से वे वैसे ही प्रेम करें जैसा वे अपने परिवार के सदस्यों के साथ करते हैं। व्यवहार की यह सहृदयता व्यक्ति के विशाल हृदय की भावनाओं से ही उत्पन्न होती है। जितने उच्च विचार और उदार भावनायें उत्पन्न होंगी, उतनी ही औरों को अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता में वृद्धि होगी। चिरस्थायी स्नेह मनुष्य की आन्तरिक उत्कृष्टता से ही प्राप्त होती है। वाचालता और कपटपूर्ण व्यवहार से किसी को थोड़ी देर तक अपनी ओर लुभाया जा सकता है, पर स्थिरता का सूत्र तो प्रेम ही है। हमारे अन्तःकरण में दूसरों के लिये जितनी अधिक मैत्री की भावना होगी उतना ही अपना व्यक्तित्व विकसित होगा, उतनी ही आत्म शक्तियाँ प्रबुद्ध होंगी।
आज हमारे दैनिक जीवन में कटुता, क्रोध, द्वेष और वैरभाव एक कोढ़ की भांति पनप रहा है। जिसके निरंतर बढ़ते रहने से समाज में शांति स्थापित हो पाना अत्यंत दुर्लभ है। क्योंकि अधिकांशतया पाया गया है कि कटुता से कटुता बढ़ती है, हिंसा से समाज में हिंसा का फैलाव होता है और द्वेष से द्वेष ही पनपता है। यदि यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है तो समाज का विनाश अवश्यंभावी होता है। इतिहास गवाह है कि कौरव और पांडवों ने अपने द्वेष के कारण ही अपना सर्वस्य नष्ट कर डाला था। अपने इस द्वेष के कारण देश के अनेकों सर्वश्रेष्ठ योद्धाओं को भी काल के गर्त में समाने के लिए मजबूर कर दिया था। इसके इतर सिक्खों के प्रथम गुरु, गुरु नानक देव महाराज ने मैत्री-भावना का प्रचार कर जीवन में सर्वोच्च पद को प्राप्त किया। यह उनकी मैत्री-भावना का ही प्रभाव था कि उनसे सभी धर्मों के लोग बराबर स्नेह किया करते थे। उन्हीं के शब्द हैं
“एक जोति ते सभ जग ऊपजा, कौन भले कौन मंदे।”
अपने इस कथन से, उन्होंने सामाजिक समरसता व समानता का महान संदेश मानवता के लिए प्रचारित किया।
शत्रु भावना मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी समाज के लिए कुछ उचित नहीं है। प्रकृति ने मनुष्य जाति को कुछ इस प्रकार गढ़ा है कि वह परस्पर मेल मिलाप और सौहार्द पूर्ण माहौल में ही पनपता व फलता-फूलता है। आपसी सहयोग और सौहार्द मनुष्य समाज के लिए आवश्यक व आसान भी है। सामाजिक सौहार्द के माहौल में मनुष्य का व्यक्तित्व स्वतः ही सभी दिशाओं में विकसित होने लगता है। इसके विपरीत शत्रु भाव मन में प्रविष्ट होते ही मनुष्य के व्यक्तित्व से कोमलता और सदाचरिता नष्ट होने लगती है। वैर भावना के निरंतर बने रहने से मनुष्य की प्रकृति धीरे धीरे पशुवत होने लगती है। जिसके कारण ऐसे व्यक्ति समय के साथ समाज से स्वतः ही निष्कसित हो जाते हैं। मैत्री भाव ही समाज की इस समस्या का उचित समाधान प्रतीत होता है।
यदि वैज्ञानिक परिवेश में देखा जाए, तो व्यक्ति अपने मस्तिष्क में जैसी विचारधाराएं उत्पन्न करता है ठीक वैसी ही विचारधाराओं की विद्युत चुंबकीय तरंगें व्यक्ति के मस्तिष्क से उत्सर्जित होना प्रारंभ हो जाती हैं। यदि व्यक्ति सरल, मृदुल और मिलनसार है, तो उसके मस्तिष्क से मैत्री-भावना से ओतप्रोत सकारात्मक विद्युत चुंबकीय तरंगों का उत्सर्जन प्रारंभ हो जाएगा। सर्वविदित है कि समान विचारधारा परस्पर आकर्षित करती है। अतः आप जैसी मित्रवत विचारधाराओं के दूसरे व्यक्ति आपसे आकर्षित होकर एन केन प्रकारेण कैसे भी आप के संपर्क में आने के लिए व्याकुल होने लग जाएंगे और प्रकृति जैसे ही मिलने का अवसर प्रदान करेगी, ऐसे व्यक्ति आपसे मिलकर मित्रता का एक अटूट संबंध स्थापित कर लेंगे। इस प्रकार आप एक मित्रवत समाज की स्थापना के सूत्रधार बन जाएंगे।
अपने हित की साधना का भाव तो पशु पक्षियों तक में पाया जाता है। परंतु फिर भी वे परस्पर मैत्री भाव बनाए रखने का प्रयास करते हैं। अन्यथा की स्थिति, वे स्वयं ही अपनी प्रजाति के नष्ट होने का कारण बन जाते। अतः इसमें कोई बुद्धिमानी नहीं कि मनुष्य अपना सम्पूर्ण जीवन केवल अपनी ही स्वार्थपूर्ण प्रवंचनाओं में बिता दे। इससे अन्त तक मानवीय शक्तियाँ प्रसुप्त बनी रहती हैं। प्रेम और आत्मीयता की भावनाओं का परिष्कार नहीं हो पाता। स्वार्थपरता व संकीर्णता के कारण मनुष्य का जीवन कितना दुःखमय कितना कठोर हो जाता कि मनुष्य जाति की उत्तरजीविता ही खतरे में पड़ जाती।
जीवन में चरित्र की उदारता और सज्जनता का अर्थ ही यह है कि मनुष्य, मनुष्य के साथ जीव जन्तुओं को भी उनके अधिकारों का उपयोग ठीक उसी तरह करने दे, जिस तरह हम अपने लिये औरों से अपेक्षा रखते हैं। गोस्वामी तुलसी दास की पंक्तियाँ मानवता शब्द को भली प्रकार अभिव्यक्त कर देती हैं -
आपु आपु कहँ सब भलों अपने कहं कोय कोय।
तुलसी सब कहँ जो भलों, सुजन सराहिय सोय॥
अर्थात् सज्जन तथा सराहनीय वह व्यक्ति है जो केवल स्वहित तक ही सीमित नहीं रहता है। जो उदारता पूर्वक सब के हित की बात सोचता है वही मनुष्य श्रेय का अधिकारी हो सकता है। “वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना का मन में संचार कर ही मैत्री-भाव को उत्पन्न किया जा सकता है।
यदि विराट दृष्टिकोण से देखा जाए तो हितकारी भाव, मित्रता का भाव, करुणा का भाव, सहानुभूति का भाव इत्यादि सभी वस्तुतः मैत्री-भावना को ही प्रकट करते हैं। एक मैत्री भावना ही है जिस से टकराकर सब शत्रुताएं, तनाव, खिंचाव, रंजिश आदि समाप्त हो सकती हैं।
मैत्री-भावना से ओतप्रोत व्यक्तियों की सहृदयता, उदारता, सहिष्णुता आदि सद्गुण पराकाष्ठा तक जा पहुँचते हैं, उनके लिये अपने व पराये का भेद मिट जाता है। वे ऐसे असीमत्व का अनुभव करते हैं, जिससे उसके सम्पूर्ण दुःख, अभाव आदि नष्ट हो जाते हैं।
यदि व्यक्ति अपने से ऊंचे प्रतिष्ठित, समृद्धिशील व्यक्ति से मैत्री भाव रखता है, तो उस व्यक्ति के चित में ईर्ष्या की अग्नि कभी भी प्रज्वलित न हो सकेगी। दुखी व्यक्ति के प्रति प्रेम और करुणा का भाव प्रदर्शित करने से उस व्यक्ति की क्रूरता एवं स्वार्थपरता की बुरी आदत छूट जाती है। हमारा निरंतर ऐसा प्रयास होना चाहिए कि समाज में मैत्री-भावना का विकास होता रहे। समाज में जितने व्यक्तियों से भी मित्रता का अवसर प्राप्त हो उतना ही श्रेष्ठ है। जिस व्यक्ति के अनेक मित्र हैं उसकी आत्मीयता का जितना बड़ा दायरा है वह उतना ही प्रसन्न है। वह उतने ही अच्छे मानसिक स्वास्थ्य का आनंद उठाता है। अतः अपने जीवन, चरित्र और व्यवहार में मृदुता धारण करें व मैत्री-भावना को हमेशा बनाए रखें।

******************