Amaltas flowers - 9 in Hindi Moral Stories by Neerja Hemendra books and stories PDF | अमलतास के फूल - 9

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अमलतास के फूल - 9

एक शाम और वह पेन्टिंग

       आठ वर्ष पूरे हो गये हैं, इस पेन्टिंग को दीवार से चिपके हुए। इन आठ वर्षों में एक भी शाम ऐसी न गुज़री होगी, जब इस पेन्टिंग ने उसके समक्ष ज़िन्दगी से सम्बन्धित कोई ज्वलन्त प्रश्न न खड़ा किया हो। उसे भलि-भाँति याद है सावन ने दूसरी मुलाकात में अपने हाथों से बनाये हुए अनेक खूबसूरत चित्रों में से एक खूबसूरत-सा यह चित्र उसे दिया था। वैसे सावन से उसकी वह दूसरी नही पहली मुलाकात ही थी। पहली बार उन्हांेने एक दूसरे को देखा भर था किसी अजनबी की भाँति। उसे स्मरण है उस दिन वह सावन से किसी चित्र प्रदर्शनी में मिली थी। उसकी मित्र चारू ने उसे सावन से मिलवाते हुए कहा था कि वह एक उभरता हुआ चित्रकार है। चित्र बनाने के साथ-साथ विश्वविद्यालय में आर्ट का विद्यार्थी भी है। उसने और सावन ने एक-दूसरे को सरसरी तौर पर देखा था तथा वह अपनी मित्र चारू के साथ आगे बढ़ गयी थी। दूसरी बार सावन के घर जाने के पश्चात् ही वह उसे जान पायी थी, और यह भी जाना था कि सावन चित्रकार तो है, किन्तु संवेदना से भरा हुआ भावुक इंसान भी है। उसकी इस विशेषता या कह सकते हैं उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व से वह अत्यन्त प्रभावित हुई थी। उस दिन देर तक वह अपने चित्रों को उसे दिखाता रहा। वह उसके चित्रों को देखती रही और प्रत्येक चित्र के साथ सावन उसके हृदय में उतरता चला जा रहा था। उसकी सभी पेंटिग बेमिसाल थीं। सर्वाधिक खूबसूरत पेन्टिंग उसे यही लगी थी -’’ क्षितिज के पार कोहरे को चीर कर निकलता हुआ सूरज/सीधी और साफ सड़क पर चलता हुआ एक आदमी। जो कदाचित् रात भर अँधेरे में चलता रहा है। ’’ सावन ने जब उसे बताया था कि उसे भोर का सूरज बहुत अच्छा लगता है, तो उसके चेहरे पर किसी छोटे बच्चे-सी कोमलता व मासूमियत पसर गयी थी। सावन की पेन्टिग्ंस में जीवन, ऊर्जा, उत्साह व आशा की किरणें प्रस्फुटित होती रहती थीं। निराशा व उदासी उसे पसन्द नही थी न उसके चित्रों में इनका समावेश था। 

    ऋतुयें बदलती जा रही थीं। कभी बियावान पतझड़ तो कभी पुष्पों व मंजरियों से लथपथ झूमता-लहराता वसंत। समय व्यतीत होता जा रहा था। मैं यदाकदा सावन से मिलती रहती। उसकी ऊर्जा भरी बातें मेरे भीतर उत्साह का संचार करतीं। सावन ने उस वर्ष अन्तिम सेमेस्टर की परीक्षा दी थी। उसकी शिक्षा पूरी हो चुकी थी। सावन कहीं भी एक अदद नौकरी के लिए प्रयास करने लगा। एक दिन सावन ने मुझे बताया कि उसने प्राइवेट नौकरी ज्वाईन कर ली है। अन्ततः उसे अपनी रोजीरोटी की व्यवस्था करनी ही थी। जो कि मात्र पेन्टिग्स बनाने से पूरी नही होने वाली थी। 

   धीरे-धीरे कब उसे भी भोर का सूरज अच्छा लगने लगा और सावन भी। उसे ढ़लती हुई साँझ की वह बेला भी याद है जब सावन ने अत्यन्त सहजता से उसे बताया था कि दुनिया में उसके जीने का एक मात्र सहारा उसकी नौकरी जो कि अस्थाई थी छूट चुकी है। जितनी सहजता से सावन ने वह बात उससे बतायी थी उतनी सहजता से वह उसे स्वीकार नही कर पायी थी। कितनी भाग-दौड़ के पश्चात् सावन को वह नौकरी मिली थी। सावन पुनः बेरोजगाारों की भीड़ में कहीं खो गया था।  सावन की आँखों में जो एक बहुत बड़ा चित्रकार बनने का स्वप्न पल रहा था, वह स्वप्न उसे टूट कर बिखरता हुआ दिखाई दे रहा था। वह जानती थी कि जितनी सहजता से सावन ने अपनी नौकरी छूटने की बात कही है, उस नौकरी के बिना आगे का जीवन उतना सहज नही था। उसे भय था कि जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के संघर्ष में सावन के भीतर का चित्रकार कहीं दम न तोड़ दे, और उसका स्वप्न एक दिवास्वप्न बन कर न रह जाए। उसने अपने ह्नदय में उपजती इस आशंका को सावन के सामने व्यक्त नही किया, कारण यह कि निराशा के इन पलों में सावन को वह और निराश करना नही चाहती थी।

     उसे स्मरण है सावन कहा करता था-’’ तुम जानती हो मेधा! आज मनुष्य, मनुष्य से कितना दूर होता जा रहा है। जीवन को आसान बनाने के लिए भौतिक सुख-सुविधाओं को जितना अधिक एकत्र करता जा रहा है, उतनी ही उसकी ज़िन्दगी और जटिल होती जा रही है। कदाचित् हम लोगो की सोच बदल गयी हैं। हम लोग दूसरे से जिस प्रकार के व्यवहार की अपेक्षा करते हैं, वैसा ही व्यवहार हम दूसरों के साथ क्यों नही करते? हम लोगों की मानसिकता में दिनों दिन इतनी गिरावट क्यों होती जा रही है? मेधा! तुम नही जानती कि आज मनुष्य की जीवन-शैली में इतने बदलाव आ चुके हैं कि आज की ज़िन्दगी जी लेना ही मनुष्य के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गया है।’’ वह अबोध बच्ची की तरह उसकी बातें सुनती। वह कल्पनाओं में खोया-सा आगे बोलता जाता-’’ मेधा! मैं इन सब बातों को, इन समस्यायों को अपने चित्रों के माध्यम से लोगों तक पहुँचाऊँगा। मनुष्य क्यों अपनी ज़िन्दगी को जटिल बनाता जा रहा है? क्यों....?’’ उसके प्रश्न....उसकी बातें सुनकर वह निरूत्तर रह जाती।

    देखते-देखते जीविकोपार्जन का साधन ढूँढने के प्रयास में सावन टूट गया। बेरोजगार सावन के लिए ज़िन्दगी जीना सचमुच बड़ी चुनौती बन गया था। उसका चित्रकार बनने का स्वप्न, उसकी शिक्षा, उसकी स्वस्थ मानसिकता सब ज़िन्दगी की समस्याओं के हुजूम में खो गये। उसके बनाए तमाम चित्र जिनके माध्यम से वह लोगों की चेतना को जगाना चाहता था, जिनमें लोगों को नर्म सोच के धरातल पर खड़ा करने की शक्ति छिपी थी, वे सारे चित्र खामोश चित्र बन कर रह गये। उनकी जीवन्तता उनके रचनाकार के टूट कर बिखर जाने के साथ नष्ट होती गयी। 

    जब असफलतायें मनुष्य का साथी हो कर जीवन की राह पर चलने लगती हैं, तब मनुष्य अन्दर ही अन्दर कितना छटपटाने लगता है, इसकी अनुभूति सिर्फ वही कर सकता है जो इन असफलताओं का साथी हो। जब वह काम करना चाहता है, किन्तु काम नही मिलता। हाथ-पाँव होते हुए भी उसे यूँ महसूस होता है जैसे किसी ने उसके हाथ-पा्ँव काट दिये हों और वह अपाहिज हो गया हो । 

     बेरोजगारी का दंश झेलता सावन इस शहर में नौकरी के लिए भटकता रहा और धीरे-धीरे अपने लक्ष्य से दूर होता गया। आखिर एक दिन सावन यह शहर छोड़ कर चला गया। सावन कहा करता था-’’मेरे लिए ये शहर का तुम्हारा पर्याय है मेधा! इस शहर की सुबह-शाम तुम हो, इस शहर की खुशनुमा ऋतुयें तुम हो।’’ उसे ये शहर भी बोझ लगने लगा था। सच भी था बेराजगारी के कंधों पर कोई शहर का बोझ कैसे उठा सकता था? 

    दो वर्ष पूर्व एक दिन अचानक सावन उसके सामने खड़ा हो गया था। वह पहचान ही नही पायी कितना परिवर्तन हो गया था उसमें। बुझी-बुझी सी आँखें और थका-सा चेहरा। उसके व्यवहार में भी उसे दूरी व औपचारिकता नज़र आयी। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उससे या इस शहर से उसका कोई पूर्व परिचय न था, पहचान न थी। 

   वह समझ नही पा रही थी कि सावन उसको क्यों अपरिचित समझने लगा है, तथा उस अवस्था को अपना,जहाँ आज वह खड़ा है, हतप्रभ-सा। वह उससे सिर्फ इतना ही कह पाया था- ’’मेधा! मेरा प्रयत्न जारी है....। ’’ मेरी ओर से किसी प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किए बिना चला गया। वह सावन को एक ऊँचाई के बाद निराशा के गर्त में समाहित होते देखती रही। वह प्रत्येक दिन सावन के प्रयत्नों के अन्त और उसकी सफलता के आगमन की प्रतीक्षा करती है।

 वह घर वालों के विवाह कर लेने की बात पर लड़का पसन्द न आाने के बहाने बनाती है। वह भलिभाँति जानती है कि यह प्रतीक्षा अन्तहीन है किन्तु कहीं न कहीं अन्त का भी तो प्रारब्ध होता है। प्रत्येक दिन सूरज उगता और अस्त होता। सावन के दिये उगते सूरज की पेन्टिंग उसमें शक्ति भर देती प्रारब्ध की प्रतीक्षा करने की। 

      आठ वर्ष व्यतीत हो जाने के उपरान्त आज की शाम उसे कुछ उदास-सी क्यों लग रही है? हृदय में बेचैनी व कमरे में उसे घुटन-सी क्यों लग रही है? उसने कमरे की खिड़की खोल दी हैै। शाम हो गयी है। वृक्षो के पीछे सूरज धीरे-धीरे नीचे उतरने लगा है। शाम का धुँधलका उसके कमरे में भरने लगा है। सावन की दी हुई उगते सूरज की पेन्टिंग धीरे-धीरे उस अन्धकार में विलीन होती जा रही हैं।

लेखिका- नीरजा हेमेन्द्र