Amaltas flowers - 2 in Hindi Moral Stories by Neerja Hemendra books and stories PDF | अमलतास के फूल - 2

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अमलतास के फूल - 2

एक पल

फोन की घंटी बजती जा रही थी ......एक......दो........तीसरी बार। घर में मैं अकेली थी, उस पर काॅलेज पहँुचने की शीघ्रता। लपक कर मैं फोन उठाती हूँ। मेरे हलो कहने के साथ उधर सन्नाटा.....पुनः हलो कहने के साथ उधर से आवाज आती है......’’.मैम मंै.....मैं समीर! पहचाना ? मैं समीर हूँ।’’ मैं सुन कर पहचानने का प्रयत्न करने लगी। समीर? कौन समीर? समझ नही पा रही हूँ ये कौन समीर है? स्मृतियों पर जोर डालती हूँ किन्तु कुछ समझ में नही आ रहा है। 

 पुनः वही भारी-सी आवाज.....’’मैम आपने नही पहचाना। मंै समीर हूँ।’’ आवाज मेें ठहराव थी।

’’मै आपसे नौ वर्ष पूर्व कालेज के समीप के बस स्टैण्ड पर मिला था........याद आया.....एक दिन आपको प्यास लगी थी। आपने मुझसे पानी मांगा था। मैं प्रतिदिन आपसे पानी के लिए पूछता तथा आपके हाँ कहते ही पानी पिलाया करता था। याद आया मैम! आप......आप किरन मैम हैं न ? ’’ 

मेरे ’’ हाँ’’ कहने पर वह निश्चिन्त हो कर पुनः बोलने लगा, ’’ मैम आपने मुझे पहचान लिया ? मैं समीर हूँ।’’ उसने पुनः अपना नाम बताया। ’’मैं पढ़ने के लिये बाहर गया था। कल ही लौटा हूँ।’’ मैं उसकी बातें सुन कर मैं सिर्फ ’’ हाँ, हूँ ’’ करती रही।

वह पुनः बताने लगा, ’’ मैम आप उसी काॅलेज में पढा़तीें हैं न! मैम, मैं आपसे मिलना चाहता हूँ।’’

मैंने कहा, ’’ठीक है। बाद मंे बातें करते हैं।’’कह कर मैंने फोन रख दिया। 

  मैं शीघ्रता से काॅलेज जाने के लिए बस स्टैण्ड की तरफ कदम बढ़तीं हूँ। मैं प्रतिदिन बस के द्वारा काॅलेज आती-जाती हूँ। मेरा घर काॅलेज से लगभग बारह किमी0 दूर शहर में है। मैं बस की सीट पर बैठ जाती हूँ। मेरे मन मस्तिष्क में अभी-अभी समीर से फोन पर की गयी बातें घूम रही हैं। उसे पहचानने के प्रयत्न में सहसा मुझे नौ वर्ष पूर्व की वो घटनायें स्मरण हो आतीें हैं.........

........नौ वर्ष पूर्व .........मार्च का महीना। छोटे से कस्बे के कन्या इण्टर काॅलेज के बस स्टाॅप पर वृक्ष के नीचे खड़ी मैं बस की प्रतीक्षा कर रही थी। मौसम में गर्मी उतरने लगी थी। पुरवाई हवा का झोंका रह-रह कर एक सुखद अहसास दे रहा था। प्रकृित ने मानों मादकता रूपी वस्त्र धारण कर लिया हो। वसंत का आगमन जो हो चुका था। सड़क के दोनो ओर लगे मोगरे और पलाश के पेड़ फूलों से भर गये थे। अमराईयों में आम के बीच लुका-छिपी करती हुई कोयल की कूक अन्य पक्षियों के कलरव के साथ मिल कर मादकता में वृद्धि कर रहे थे। प्रकृति में अजीब-सी सुगन्ध का समावेश हो रहा था। 

    दोपहर का समय था। आस-पास चाय वाले व अन्य फेरी वाले रोजमर्रा की तरह अपनी दिनचर्या में व्यस्त थे। बस के आने में विलम्ब थी। अचानक तेरह-चैदह वर्ष का साँवला-सा, दुबला-पतला लड़का मेरे पास आ कर खड़ा हो गया। मुझसे पूछ बैठा, ’’मैम, आप पानी पियेंगी?’’ मैने विस्मय व थोड़ी प्रसन्नता से उसकी तरफ देखा। वह कौन है ? उसे कैसे ज्ञात हुआ कि मुझे प्यास लगी है। मेरे, ’’ हाँ ’’ कहते ही वह लड़का भाग कर गया व कुछ पलों के उपरान्त ठंडे पानी की बोतल ले कर सामने खड़ा था। मैने आश्चर्य से उसकी तरफ देखा तथा सोचा कि ’’यह तो फ्रिज की ठंडी बोतल है। इस स्थान पर उसे यह बोतल कैसे मिली? यह छोटा-सा कस्बा है। जहाँ तक मैं जानती हूँ यहाँ आस-पास किसी दुकान में फ्रिज नही है। मेरे प्रश्नवाचक दृष्टि को वह भाँप गया तथा स्वतः बोल पड़ा-

   ’’मैम, वो मेरा घर हैै। ’’ कह कर उसने हाथ की उंगुलियों से समीप स्थित एक घर की ओर इशारा किया। उसने बताया कि उसका नाम समीर है। बस तभी से वो लड़का प्रतिदिन मुझसे पानी के लिए पूछता। मेरे मना करने पर भी पलक झपकते ही एक ठंड़ी बोतल ले कर खड़ा हो जाता। मेरे पानी पी लेने के पश्चात् भी बस के आने तक वह मेरे समीप ही खड़ा रहता। मुझे ऐसा प्रतीत होता था कि वह मुझसे ढ़ेर सारी बातें करना चाहता है। उसके प्रतिदिन ऐसा करने से मुझे भी कहीं न कहीं उसकी प्रतीक्षा रहती। वह आता, आ कर मेरे समीप खड़ा हो जाता व मुझसे इधर-उधर की बातें करने लगता। कभी ऋतुओं की.... तो कभी आस-पास घटी किसी घटना की। बस के आने तक वह मेरे साथ खड़ा रहता। समय का पहिया अपनी गति से घूमता रहा। वह लगभग प्रतिदिन मुझे मिलता। मेरे लिए तो वह एक साधारण लड़का था और उसका मुझसे मिलना एक साधरण घटना। परीक्षायें समाप्त होने के पश्चात् काॅलेज में ग्रीष्मावकाश हो गया। मैं उसे विस्मृत कर मैं अपने जीवन, अपनी घर गृहस्थी तथा अपने दोनों बच्चों में व्यस्त हो गयी। 

गर्मी की छुट्टियों के पश्चात् जुलाई में घर से काॅलेज और काॅलेज से घर की वही दिनचर्या प्रारम्भ हो गयी। किन्तु वह लड़का मुझे फिर नही दिखाई पड़ा। मेरे स्मृति-पटल से वह विलीन हो गया।

इन नौ वर्षों में मैंने जीवन के अच्छे-बुरे सभी रंगों को देखा। मैंने अपने दोनांे बच्चों की परवरिश, शिक्षा, व्याह, आदि जिम्मेदारियों को पूरा किया। कुछ माह पूर्व मेरे पति भी मुझे एक रंगहीन रंग दे कर चले बसे।

  पति के न रहने पर मैंने अपने आप को नितान्त अकेला पाया। बच्चे अपनी-अपनी गुहस्थी में रम चुके हैं। बेटा बाहर नौकरी करता हैं। अतः अपनी पत्नी के साथ वह वहीं रहता है। बेटी भी दूसरे शहर में रहती है। अतः कम ही आती है। अब मुझे जीना है तो अपने लिए, कुछ करना है तो सिर्फ अपने लिए। इस आवश्यकता विहीन आवश्यकता को पूरा करने के लिए मुझे जीना था। कर्म करना था। इतने वर्षों पश्चात् काॅलेज के बाहर मिलने वाले साधारण से लड़के समीर का फोन क्यों आया? क्या काम है उसे मुझसे? मैं सोच ाही थी कि काॅलेज आ गया और मैं बस से उतर कर काॅलेज के गेट की ओर बढ़ चली। 

शाम को काॅलेज से लौटने के उपरान्त मैं थकी-सी बैठी थी कि फोन की घंटी बज उठी। न जाने क्यों मुझे घंटी के स्वर जाने पहचाने-से कुछ अलग से लगे। किन्तु ऐसा नही हो सकता। घंटी तो घंटी है। उसके स्वर अलग कैसे हो सकते हैं? मैं मन ही मन अपनी बचकानी सोच पर मुस्करा पड़ी। फोन उठाने पर ’’मैम नमस्ते ’’ की वही पहचानी-सी आवाज सुनाई दी। ’’मैम, मै समीर बोल रहा हूँ।’’ 

   मैने कहा, हाँ, मैं किरन मैेम बोल रही हूँ। कैसे हो ? 

  मेरे पूछते ही वह अपने बारे मेें बताने लगा। उसकी बातें सुनकर मुझे ऐसा लगा जैसे वह बहुत कुछ मुझसे कहना चाहता है। वो बातें वह बताने लगा जिसे जानने की आवश्यकता मुझे नही थी। जैसे अपनी जिन्दगी का सारे पृष्ठ मेरे समक्ष खोल कर रख देना चाहता हो। चन्द दिनो के मुलाकात में मुझे उसके विषय में कुछ भी ज्ञात नही हो पाया था या मंैने जानने या पूछने का प्रयत्न ही नही किया था। अब मुझे ज्ञात हुआ कि वह एक अनाथ लड़का था। उसे किसी सम्पन्न व्यक्ति ने अपनी सन्तान की तरह पाला था। इन्जीनियरिंग की शिक्षा पूर्ण करने के उपरान्त वह अब लौटा है। अपने विषय में और भी बहुत-सी बातें मुझसे बताता रहा। यह बात मेरी समझ से परे थी कि इतने वर्षों अन्तराल के उपरान्त तथा उम्र के इतने फासले तय करने के पश्चात् उसने मुझे फोन क्यों किया? मैं उसकी स्मृतियों में रही। क्यांे? 

     पल-पल कर वक्त पिघलता रहा। दिन-रात गुजरते रहे। समीर मुझे प्रतिदिन फोन करता। अब तो साँझ ढ़लते ही मुझे उसके फोन की प्रतिक्षा भी रहने लगी। मुझे समीर के रूप में अब भी वही साँवला-सा लड़का याद था। लेकिन फोन पर एक भारी- भरकम आर्कषक आवाज वाला वह लड़का अब कैसा दिखता होगा ? यह मैं अक्सर सोचा करती थी । एक दिन फोन पर मैंने यूँ ही कह दिया कि, ’’समीर, समय मिले तो कभी मिलने आना।’’ और वह समय भी आ गया जब समीर अपनी शादी का कार्ड ले कर मिलने आ गया। मुझे अपनी आँखों पर सहसा विश्वास नही हो रहा था कि कोई साँवला-सा, दुबला-पतला, पसीने से लथपथ लड़का इतना आर्कषक युवा कैसे हो सकता है? उसने मुझे इस रूप में देखा तो चुप-सा हो गया। मुझे लग ही नही रहा था कि फोन पर तमाम बातें करने वाला वही लड़का है। समीर मुझे बार-बार देख रहा। मेरे इस रंगहीन स्वरूप को बार-बार देख रहा था। कुछ देर तक वह मुझे यूँ ही देखता रहा। तत्पश्चात् बोल पड़ा-’’ मैम, मुझे नही ज्ञात था। यह सब कैसे हो गया? आप अकेली हैं।’’ उसकी बातें सुनकर मैं खामोशी से मुस्करा पड़ी। वह ध्यान से मेरी ओर देख रहा था। बस देखे जा रहा था.....अपलक। हम दोनों के बीच सन्नाटा़-सा पसर गया। 

   ’’मैम, आप मुझे शुरू से ही बहुत अच्छी लगतीं थीं। ’’ कमरे में फैले सन्नटे को धीमी किन्तु ठहरी-सी आवाज ने तोड़ा। 

    ’’ मैम, आपने बताया नही । अन्यथा मैंे शादी नही करता। मैम, मेरे सपने तो आपके साथ....’’ कह कर वह खामोश हो गया। 

   उसके शब्द ज्यों-ज्यों मेरे कानों में पड़ रहे थे, मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसकती जा रही थी। मैं हतप्रभ थी। मुझे विश्वास ही नही हो रहा था कि मेरे लिए समीर के मन में ऐसा कुछ हो सकता है। वह अपने इस विवाह के बन्धन को तोड़ कर मेरे साथ अब भी जीवन जीने के लिए तैयार था। वो हठ कर रहा था किसी बच्चे की भाँति। यह कैसा बन्धन था जिसे मैं समझ नही पा रही थी? प्रेम का यह कौन सा रूप था? प्रेम के इस रूप से मैं परिचित होना नही चाहती थी। किसी प्रकार समीर को समझाते हुए मैंने अलविदा कहा। हाँ, यह अलविदा ही तो था। मैं समीर से अब कभी नही मिलना चाहती थी। 

    अपने विवाह का निमंत्रण-पत्र देकर किसी आज्ञाकारी शिशु की भाँति समीर चला गया। समीर की शादी हो गयी। उसकी शादी में न जाने क्यों मैं नही गयी। कई दिनों के पश्चात् एक दिन समीर का फोन आया। उसने बताया कि वह नौकरी के लिए पत्नी के साथ विदेश में जा रहा है। जिन्दगी पुनः मुझसे मिलने का अवसर दे, न दे। मेरे द्वारा प्रसन्नता व शुभकामनायें व्यक्त किए जाने पर चुप रहा। कुछ क्षणों के उपरान्त वह बोला ’’मैम, अगला जन्म होता है या नही, यह तो ईश्वर ही जानता है। यदि अगला जन्म होता है तो अगले जन्म में मैं आपकी प्रतीक्षा करूँगा। मिलेंगी मैम ?’’ मानो वह मेरे उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हो। मैं फोन पकड़े हुए जड़- सी खड़ी थी। फोन पर दोनो तरफ सन्नाटा पसर गया। मैंने फोन रख दिया।

   आज समीर जा रहा है। मैं उसकी स्मृतियों में गुम होती जा रही हूँ। यह कैसा बन्धन है। जिसमें उम्र, सामाजिक वर्जनायें सब पीछे छूटती जा रही हैं। हथेली में रह गया है तो एक पल! मात्र एक पल। 

नीरजा हेमेन्द्र