mar kha roi nhin ( bhag do) in Hindi Fiction Stories by Ranjana Jaiswal books and stories PDF | मार खा रोई नहीं - (भाग दो)

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मार खा रोई नहीं - (भाग दो)

एक तरफ़ कोविड 19 का कहर था।प्रतिदिन किसी न किसी प्रिय व्यक्ति के मरने की खबर आ रही थी,दूसरी तरफ नौकरी चली जाने का खतरा सिर पर मंडरा रहा था।स्कूल में मार्च से नया सेशन शुरू होने ही वाला था कि अचानक लॉकडाउन की ख़बर आई।स्कूल बंद हो गया,फिर ऑनलाइन क्लास का प्रस्ताव पास हुआ।ऑनलाइन क्लास लेना पुरानी विधि से शिक्षितों के लिए उतना आसान नहीं था।हमारे समय में कम्प्यूटर नहीं पढ़ाया जाता था और न ही हम तकनीकी ज्ञान से सम्पन्न थे।
ऑनलाइन पढ़ाने के लिए महँगे फोन और लैपटॉप की भी जरूरत थी।उस पर नए -नए ऐप की अपनी उलझनें।नई पीढ़ी के लिए यह सब आसान था। वे आसानी से सारी नई प्रविधि सीख लेते थे, पर प्रौढ़ उम्र के लोगों को इसके लिए बड़ी मशक्कत करनी पड़ी।उनमें से एक मैं भी थी।
शुरू के तीन महीने अर्थात अप्रैल से जून तक मुझे कोई क्लास नहीं मिला तो दहशत थी कि शायद मेरी नौकरी चली गयी है क्योंकि इस बीच कई शिक्षकों को हटा दिया गया था।पर आधी सेलरी बैंक में आ जाने से कुछ इत्मीनान हुआ।
एक तो कोविड के कारण पागलपन की हद तक साफ-सफाई , दूसरे छह महीने तक घर में कैदी की स्थिति में रहना आसान नहीँ था।गनीमत था कि घर के पास ही एक राशन की दूकान है और साग -सब्जी वालों के ठेले दरवाजे तक आ जाते थे।शाम को आस -पास की औरतें अपनी छतों पर होतीं तो उनसे वार्त्तालाप हो जाता।टेलीविजन के पुराने कार्यक्रम मन को नहीं भाते थे ।मनोरंजन का और कोई साधन नहीं था।एक -दो महीने तो लिखने -पढ़ने में मन लगाया, बाद में उससे भी मन उचट गया।
नौकरी जाने का ख़तरा अभी बना ही हुआ था।
जुलाई से ऑनलाइन पढ़ाने के लिए कक्षाएं मिल गयी, तो पुरानी चिंता कि नौकरी गयी,से थोड़ी राहत मिली।पर फिर तकनीकी समस्याएं सामने आईं।बहुत स्टैंडर्ड मोबाइल फोन पास नहीं था और लैपटॉप भी हैंग करने लगा था।दूसरा लैपटॉप खरीदने की हैसियत नहीं थी।महंगा मोबाइल भी लेना सम्भव नहीं हो पा रहा था।बाहर सख़्त लॉकडाउन था। कुछ दिनों बाद थोड़ी रियायत हुई फिर भी दूकानें बहुत कम और नियत समय पर ही खुल रही थीं।मेरे पास न तो कोई वाहन था,न कोई सहयोगी।इस समय अपने अकेले होने का अहसास शिद्दत से हो रहा था।वैसे तो वर्षों से अकेली ही सब कुछ झेलती रही हूँ पर इतना अकेलापन कभी नहीं लगा था।
बड़ी मुश्किल से ऑनलाइन पढ़ाने की कला सीखी।स्कूल से भी इसके लिए ट्रेनिंग दी गईं।पर एक ऐप से सीखती तब तक स्कूल दूसरा ऐप शुरू कर देता।डर के मारे हालत खराब रहती कि अगला ऐप क्या होगा?कम उम्र वाले अध्यापक भी मुश्किल से सीख पा रहे थे फिर हम तो उनके सामने बूढ़े तोते थे।कोविड की चिंता छोड़कर मुझे इस नई चिंता से जूझना पड़ रहा था।खैर कभी कोई शिकायत नहीं हुई।वीडियो बनाने में मैं उस्ताद थी और अपने विषय का अच्छा ज्ञान था ही,इस कारण मेरा हर क्लॉस बेहतर रहा।बीच- बीच में हमें स्कूल बुलाया जाता।फर्स्ट सेमेस्टर,सेकेंड सेमेस्टर की परीक्षाएं भी हुईं।प्रश्रपत्र और उत्तर पुस्तिकाएं अभिभावकों को उपलब्ध करा दी जाती थीं और बच्चे घर पर रहकर ही परीक्षा देते।फिर उत्तर -पुस्तिकाएं स्कूल में जमा हो जातीं।3-4 दिन के बाद अध्यापक अपने विषय की उत्तर -पुस्तिकाएँ घर लाकर चेक करते और नियत समय पर उन्हें ले जाकर कक्षा -अध्यापक को सुपूर्त करते, फिर कक्षा-अध्यापक रिजल्ट तैयार करता।रिजल्ट लेने भी अभिभावक ही आते।कोविड 19 से सुरक्षा के सारे बंदोबस्त स्कूल में थे।सेनेटाइजर की जगह- जगह व्यवस्था भी।बिना चेक कराए कोई स्कूल -परिसर में प्रवेश नहीं कर सकता था।शिक्षक पूरी मेहनत से प्रयास कर रहे थे कि बच्चों को ऑनलाइन बेहतर शिक्षा दें।स्कूल प्रशासन भी हर तरह से कोशिश में था कि विद्यार्थियों की इस वर्ष की पढ़ाई सुचारू रूप से चलती रहे।पर अभिभावक शुल्क देने में आनाकानी कर रहे थे।कोई- कोई तो विरोध पर उतर आते थे।सच था कि कई अभिभावकों की रोजी-रोटी खतरे में थी।व्यवसायी अभिभावकों के व्यवसाय को इस कोविड ने प्रभावित किया था।सरकारी नौकरी वाले ठीक स्थिति में थे पर शुल्क देने में सबसे अधिक वे ही शोर मचा रहे थे।किसी को यह परवाह नहीं था कि उनके शुल्क न जमा करने से अध्यापकों को वेतन नहीं मिलेगा।स्कूल प्रशासन अपनी जेब से तो वेतन देने से रहा।अध्यापकों के भी अपने घर- परिवार हैं ।अधिकतर तो वेतन पर ही निर्भर हैं ।उनके तो भूखे मरने की नौबत हो जाएगी।अध्यापक मेहनत से पढ़ा रहे हैं,अपने सारे दायित्व निभा रहे हैं फिर उन्हें वेतन तो मिलना ही चाहिए।कोविड ने न सिर्फ देश की आर्थिक व्यवस्था बिगाड़ी है, बल्कि हर घर की आर्थिक स्थिति इससे प्रभावित हुई है।फिर भी सरकार अपने कर्मचारियों को वेतन दे रही है, फिर प्राइवेट स्कूल अपने अध्यापकों और कर्मचारियों को वेतन क्यों नहीं दे सकते?शुल्क न मिलने का बहाना भी तब बेमानी हो गया,जब अभिभावकों ने थोड़े ना -नुकुर के बाद शुल्क जमा कर दिए।उन्हें डर था कि ऐसा नकारने पर बच्चों का एक वर्ष बर्बाद हो जाएगा।उनका नामांकन रद्द कर दिया जाएगा।वे ऑनलाइन न पढ़ सकेंगे न परीक्षा ही दे सकेंगे।
इसके बाद भी बहुत सारे स्कूलों ने अपने अध्यापकों को कॅरोना काल के दस महीनों में कोई वेतन नहीं दिया,कुछ ने आधा दिया तो किसी ने एक तिहाई।मेरे स्कूल में तीन महीने आधा वेतन मिला ,पर जब फीस आने लगा तो पूरा पैसा मिलने लगा।
नवम्बर 20 से नौवीं से बारहवीं तक के बच्चों को स्कूल आने की इजाजत मिल गई, वह भी अभिभावकों के निजी परमिशन पर।यानी अभिभावक अपने रिस्क पर बच्चे को स्कूल भेजे सकते थे ।यह आजादी मिलने पर नाम -मात्र के बच्चे ही स्कूल आते पर अध्यापक को पूरे समय विद्यालय में उपस्थित रहना था,साथ ही ऑनलाइन पढ़ाना भी था ताकि जो बच्चे नहीं आ रहे, उनकी पढ़ाई भी सुचारू रूप से चलती रहे।
स्कूल में नियमित जाने और कई तरह के काम करने की व्यस्तता में कॅरोना की दहशत कम हो गयी थी ,पर दूसरी तरह की दहशत बराबर बनी हुई थी।
वह दहशत थी नौकरी चले जाने की....।