Aag aur Geet - 2 in Hindi Detective stories by Ibne Safi books and stories PDF | आग और गीत - 2

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आग और गीत - 2

(2)

लगभग पंद्रह मिनिट बाद नायक उस मैदान में आ गया जिसको ऊपर से देखा था और फिर जब उसने सर उठा कर ऊपर की ओर देखा तो कांप उठा । उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वह इतनी ऊंचाई से यहां पहुंचा है ।

“तुम्हारा घर कहां है ?” – नायक ने निशाता से पूछा ।

“यह सब मेरा ही घर तो है ।”

“रात में सोती कहां हो ?”

“किसी भी पेड़ के नीचे ।”

“ठंड नहीं मालूम होती ?”

“यह नाला देख रहे हो जो एक ओर की पहाड़ियों से निकल कर दूसरी ओर की पहाड़ियों तक जाता है ?” निशाता ने पूछा ।

“हां ।” नायक ने कहा ।

“इस नाले की एक विशेषता है ।” – निशाता बताने लगी “नाले के बीच में पत्थर की जो दीवार सी नजर आ रही है वह प्राकृतिक है । दीवार के दाहिनी ओर का जल शीतल रहता है और दीवार के बाईं ओर का जल गर्म रहता है । दिन में हम लोग शीतल जल की ओर रहते हैं और रात में गर्म जल की ओर – इस प्रकार हम लोग सर्दी गर्मी दोनों से सुरक्षित रहते हैं ।”

“मुझे भी उस नाले के पास ले चलो ।”

“वहां तक तो चलना ही पड़ेगा – मेरी भेड़ें पानी जो पियेगी ।” – निशाता ने कहा और नाले की ओर बढ़ने लगी ।

अब नायक उसके साथ ही साथ चल रहा था । कुछ देर की खामोशी के बाद उसने निशाता से पूछा ।

“अरे हां – वह हवाई चिड़िया किस जगह गिरी थी ?”

“क्यों ?” निशाता ने पूछा ।

“मैं वह स्थान देखना चाहता हूं ।”

“मैं वह स्थान तुम्हें दिखा तो दूँगी मगर वहां तुम देखोगे क्या ?”

“उस चिड़िया के टूटे हुए पंख ।”

“वहां अब कुछ नहीं है – लोग एक एक वस्तु उठा ले गये ।”

“और लाशें ?”

“वह सब वहीँ गुफा में फेंक दी गई थीं ।”

नायक कुछ नहीं बोला ।

निशाता उसे लिये हुए नाले के पास पहुँची । नायक ने नाले को ध्यानपूर्वक देखा । नाले के मध्य में जो पत्थर की प्राकृतिक दीवार थी वह पानी से लगभग छः या सात फिट ऊपर थी । उसका सिलसिला नीचे कहां तक गया था इस संबंध में कुछ नहीं कहा जा सकता था । वह दीवार वास्तव में लगभग चालीस फिट चौड़ी एक चट्टान थी – इस प्रकार वह चट्टान पुल भी थी । नाले के एक ओर का पानी इसी चट्टान ही से होकर दूसरी ओर गुजरता था और कदाचित चट्टान ही में कोई ऐसी विशेषता थी जो पानी के दोनों भागों को ठंडा और गर्म बनाये हुए थी ।

सूरज की किरनें पहाड़ियों की चोटियों को आखिरी प्यार करके विदा हो रही थी ।

नायक नाले के किनारे खड़ा कभी उन नारंगी रश्मियों को देखता और कभी नाले के जल को देखने लगता था । उसका सफरी थैला उसके कंधे से लटका हुआ था । थैले में जरुरत की सारी चीजें मौजूद थी । खाने के समान से लेकर रिवोल्वर और मेगजीन तक ।

“क्या तुम मुझे कुछ खिलाओगी नहीं ?” नायक ने पूछा ।

“दूध पिओगे ?” निशाता ने भेड़ों की ओर संकेत करते हुए पूछा ।

“मुझे भेड़ का दूध अच्छा नहीं लगता । पनीर की बात दूसरी है ।” नायक ने कहा । वास्तव में उसका ध्येय यह था कि निशाता किसी प्रकार उसे अपने घर ले चले । उसे निशाता की यह बात सच नहीं लगी थी कि उसका कोई घर नहीं है ।

“अच्छा तुम यहीं ठहरो ।” – निशाता ने कहा “मैं तुम्हारे लिये कुछ लाती हूं ।”

“मैं भी तुम्हारे साथ चलूँ ?” – नायक ने पूछा ।

“नहीं ।”

“क्यों ?”

“अब अंधेरा हो रहा है – तुम अपना हाथ पांव तोड़ बैठोगे ।”

“मेरे पास टार्च है ।” – नायक ने कहा ।

“फिर भी तुम ठोकर खा कर अपने हाथ पाँव तोड़ दोगे ।”

“अरे तो क्या मुझे रात भर यहीं रहना पड़ेगा ?” – नायक ने झल्ला कर कहा ।

“हां, तुम यहीं बैठ कर गीत लिखना, मैं भी तुम्हारे पास ही रहूंगी ।”

“मैं चाहता हूं कि किसी ऐसे स्थान पर हम लोग रहें जहां हमें कोई देख न सके ।”

“यहां भी हमें कोई नहीं देख सकता कवि महाराज ।” – निशाता ने बड़ी अदा से कहा “अच्छा मैं अभी आती हूं, फिर तुम्हें अपने चाचा के यहां ले चलूंगी और वहां तुमको शोभाल खिलाऊँगी ।”

“यह शोभाल क्या होता है ?”

“अरे ! तुम शोभाल नहीं जानते ? खैर जब खाओगे तो मालूम हो जायेगा । यह हमारे यहां का सबसे उत्तम और मूल्यवान भोजन होता है ।” – निशाता ने कहा और एक ओर बढ़ गई ।

चाँद निकल आया था । मैदान में चांदनी बिखर गई थी और वह सफ़ेद पत्थरों वाली इमारत इस चांदनी में धुली सी नजर आ रही थी । मगर न तो कहीं दीप जले थे और न कहीं से धुआं उठा था । नायक के लिये यह बात आश्चर्यजनक थी ।

सन्नाटे की गहन अनुभूति के बाद भी नायक को किसी प्रकार का भय नहीं मालूम हो रहा था – और अब उसे यह एहसास भी हो रहा था कि जहां वह है वहां से अस्ल आबादी तो तीन मील से कम फासिले पर नहीं है । यह नाला यद्यपि मध्य में है मगर अस्ल घाटी एक ही ओर है और दूसरी ओर का इलाका घरे वृक्षों से ढका हुआ है ।

अचानक नायक बौखला गया – क्योंकि नाले के दूसरी ओर से एक तेंदुआ निकला था और नाले ने किनारे पहुंचकर पानी पीने लगा था । फिर नायक की बौखलाहट समाप्त हो गई क्योंकि उसकी समझ में यह बात आ गई थी कि नाले का पाट इतना चौड़ा है कि तेंदुआ उसकी ओर आ ही नहीं सकता ।

तेंदुआ पानी पीने के बाद जिधर से आया था उधर ही वापस चला गया ।

नायक ने संतोष की सांस ली और फिर उधर ही देखने लगा जिधर निशाता गई थी ।

समय व्यतीत होता रहा और नायक बेचैनी से निशाता की प्रतीक्षा करता रहा । जैसे जैसे समय गुज़रता जा रहा था वैसे वैसे नायक को अपनी मूर्खता का ज्ञान होता जा रहा था । परेशानी केवल वापसी के प्रति थी । उतनी ऊंचाई से नीचे उतर तो आया था मगर फिर ऊपर पहुँचना उसे असंभव ही नज़र आ रहा था ।

जब कई घंटे बीत गये और निशाता वापस नहीं लौटी तो नायक चिन्तित भी हो उठा और किसी भावी आशंका से भयभीत भी हो उठा । वह टहलते टहलते कभी उस भाग की ओर चला जाता जिस भाग की ओर शीतल जल था और जब ठंडा लगने लगता तो फिर गर्म भाग की ओर आ जाता था ।

टहलते टहलते जब थक गया तो एक जगह घास पर बैठ गया । थैले से सैंडविचेज़ निकाल कर खाये – पानी पिया और फिर निशाता की प्रतीक्षा करने लगा ।

बैठे बैठे थक गया तो लेट गया । नींद के कारण आँखे बंध होती जा रही थीं मगर चू कि वह सोना नहीं चाहता इसलिये जागते रहने की पूरी कोशिश कर रहा था – लेकिन अन्त में सो ही गया ।

पता नहीं कितनी देर तक सोता रहा – फिर जाग पड़ा । जागने का कारण था अत्यधिक गर्मी । वह हडबडा कर उठ बैठा – फिर जो कुछ उसने देखा उसे उस पर विश्वास नहीं हुआ । वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि वह जो कुछ भी देख रहा है वह स्वप्न है या वास्तविकता ।

आँखे मली – शरीर में चुटकी कांटी और कान मले मगर आँखों के सामने वही विचित्र द्रश्य था –

अन्त में उसे मान लेना पड़ा कि वह जो कुछ देख रहा है – सच है – स्वप्न नहीं ।

वह चट्टान जो नालें के मध्य में थी और जिसने नाले को सर्द और गर्म दो भागो में विभाजित कर रखा था – अब सुनसान नहीं थी । उस पर एक औरत खड़ी थी – अंग्रेज़ औरत – ऐसा लग रहा था जैसे उसके `शरीर पर कपड़े न हो । वह अत्यंत सुंदर थी ।

मगर जिस वस्तु ने नायक को आश्चर्य और विस्मय में डाल रखा था वह थे आग के शोले जो उसे चारों ओर से घेरे हुये थे । वह औरत उन्हीं लपकते हुये शोलों में कभी हाथ फैलाती, कभी पैर उठाती और कभी बैठ जाती । उसे देखने के बाद यही मालूम हो रहा था कि जैसे चंचल लड़कियाँ तालाब में जल से खेलती है वैसे ही वह आग में शोले से खेल रही थी ।

अब नायक उसे लगातार घूर रहा था । यद्यपि वह उस चट्टान से दूर था मगर शोलों की तेज़ आंच उस तक पहुंच रही थी और उसी आंच के कारण उसकी आंख खुली थी ।

“मेरी ओर क्यों घूर रहे हो ?” – औरत ने कहा “मेरे निकट आओ ।”

“नन.....नहीं ।” – नायक हकलाया “यह.....आ.....आग ।”

“आह पूर्ण चन्द्र की रात है ना ? ”

“हां ।” – नायक ने कहा ।

“तो सुनो – पूरे चाँद की रात में जब सूरज चौथे घर में होता है तब में अग्नि से स्नान करती हूँ – मगर इस अग्नि स्नान के समय यह आवश्यक है कि एक आदमी मुझे अवश्य देखे – बस एक ही आदमी – एक से अधिक नहीं ।”

“और अगर कोई दूसरा आ गया तो ? ” – नायक ने पूछा । अब तक वह अपनी स्थिति पर काबू पा चुका था ।

“आ ही नहीं सकता ।” – औरत ने कहा ।

“क्यों नहीं आ सकता – क्या तुम किसी को यहां आने से रोक सकती हो ? ”

“रुकने की बात छोडो ।” – औरत ने कहा “मैंने रोक दिया है ।”

“यह कैसे हो सकता है ? ” – नायक ने कहा ।

“उसी प्रकार हो सकता है जिस प्रकार मैं आग से स्नान कर रही हूँ ।” – औरत ने कहा “जो आग से स्नान कर सकता हो क्या वह लोगों को रोक नहीं सकता ? ”

नायक निरुत्तर हो गया । उसने देखा कि लपकते हुये शोलों की ऊंचाई क्रमशः कम होती जा रही थी ।

“अब तुम दूसरी और मुंह कर लो ।” – औरत ने कहा ।

“वह क्यों ? ”

“मैं कपड़े बदलना चाहती हूँ ।” – औरत ने कहा ।

मगर नायक उसी प्रकार उसे देखता रहा । उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह देवी देवताओ की दुनिया में पहुंच गया है और यह औरत कोई देवी है ।

“क्या तुमने सुना नहीं ? ” इस बार औरत के स्वर में कठोरता थी ।

नायक जल्दी से पीछे की ओर घूम गया ।

“जब तक मैं न कहूं – बस इसी प्रकार मुंह फेरे खड़े रहना ।” - नायक ने औरत की आवाज सुनी ।

नायक मौन खड़ा रहा । उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था । इस अनोखे द्रश्य ने उसे सोचने समझने के योग्य ही नहीं रहने दिया था ।

लगभग दस मिनट बाद उसने अपने कंधे पर आंच सी महसूस की और उछल कर घूम पड़ा ।

वही औरत लाल रेशम के चुस्त लिबास में उसके सामने खाड़ी थी । उसके अधरों पर मुस्कान थी । उसने प्यार भरे स्वर में कहा ।

“सुनो – तुमने जो कुछ देखा है – उसे किसी से कहना नहीं ।”

“मगर यह आग का स्नान ? ”

“ओह ! ” – वह हंस पड़ी फिर बोली “तो तुम इस पर चकित हो ? ”

“चकित होने वाली बात ही है ।”

“अच्छा यह बताओ कि तुमको मेरी आयु क्या मालूम पड़ती है ? ”

“यही कोई चोबीस पचीस वर्ष ।” – नायक ने कहा ।

औरत अट्टहास कर उठी ।

“क्या मैंने गलत कहा है ? ” – नायक झल्ला कर बोला ।

“नहीं – मुझे जो भी देखेगा यही कहेगा ।” – औरत ने कहा “मगर मेरी आयु एक हज़ार तिस वर्ष की है – अर्थात दस सौ तीस वर्ष ।”

“यह नहीं हो सकता ।” – नायक ने कहा “कौन विश्वास करेगा ? ”

“लेकिन मैं सच कह रही हूँ ।” – औरत ने कहा “इसका कारण भी बताती हूँ कि ऐसा कैसे हुआ – मैंने पचीस वर्ष की आयु में पहली बार आग का स्नान किया था – बस उसी कारण से मेरे ऊपर समय का प्रभाव नहीं पड़ा । तब से आज तक मै हर पचास वर्ष पर एक बार आग का स्नान करती चली आ रही हूँ ।”

“विश्वास नहीं हो रहा है ।” – नायक ने कहा ।

“कमाल है – जो कुछ आँखों से देखा है उस पर भी तुमको विश्वास नहीं हो रहा है ? ” – औरत ने मुस्कुरा कर कहा “मैं अमर हो चुकी हूँ ।”

“और अगर मैं अभी चाकू से तुम्हारी गर्दन काट दूं तो ? ” – नायक मुस्कुरा कर बोला ।

“कोशिश करके देख लो ।” – औरत ने हंस कर कहा फिर तत्काल ही प्रश्न किया “अच्छा यह बताओ कि अगर तुम चाकू से किसी पथ्थर की चट्टान को काटना चाहोगे तो नतीजा क्या निकलेगा ? ”

“चट्टान नहीं कटेगी और चाकू का फल टूट जायेगा ।” – नायक ने झट से कहा ।

“बस यही फल मेरी गर्दन काटने का भी निकलेगा – अर्थात चाकू का फल टूट जायेगा और मेरी गर्दन न कट सकेगी – विश्वास न होता हो तो निकालो चाकू और काटो मेरी गर्दन , मैं चुपचाप इसो प्रकार खड़ी रहूंगी ।”

नायक कुछ नहीं बोला । न जाने क्या सोचने लगा था ।

“क्या सोचने लगे ? ” – औरत ने टोका ।

“कुछ नहीं ।” – नायक ने कहा फिर पूछा “तुम निशाता को जानती हो ? ”

“कौन निशाता ? ”

“वही लड़की जो मुझे यहां लाइ थी ।”

“ओह- वह चरवाही ? ”

“हाँ ।”

“वह मेरी दासी है ।”

“तुम्हारा नाम क्या है ? – नायक ने पुछा ।

“साइकी ।” – औरत ने कहा ।

“क्यों बकवास करती हो ।” – नायक झुंझला कर बोला “यह तो यूनान के सौन्दर्य की देवी का नाम है ।”

“मैं वही साइकी हूँ ।”